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‘सत्या’ को हुए 20 साल, रामू ने अब खोले ये राज

राम गोपाल वर्मा की कालातीत क्लासिक फ़िल्म 'सत्या' से पहले मुंबई के अंडरवर्ल्ड को इतने विश्वसनीय तरीक़े से किसी ने बड़े पर्दे पर नहीं दिखाया। सत्या, कल्लू मामा, भीखू म्हात्रे जैसे किरदारों के ज़रिए रामू ने मुंबई की वो दुनिया सबके सामने खोलकर रख दी थी, जो इससे पहले फ़िल्मी पर्दे पर दिखाई तो जाती थी, मगर सच्चाई से कोसों दूर। 3 जुलाई को राम गोपाल वर्मा का 'सत्या' 20 साल का हो रहा है। इस मौक़े पर रामू ने बताया है कि एक काल्पनिक किरदार सत्या कैसे मुंबइया अंडरवर्ल्ड की पहचान और प्रतीक बन गया। रामू ने एक लंबा नोट The Truth Behind Satya लिखकर फ़िल्म के एक-एक किरदार को रचने और गढ़ने की कहानी कही है, वो भी बड़े दिलचस्प अंदाज़ में, जिसे पढ़कर आपका भेजा बिल्कुल शोर नहीं करेगा। पढ़िए रामू का नोट... प्रोड्यूसर के मर्डर से निकला 'सत्या' 1993 में हुए सीरियल ब्लास्ट की वजह से मैंने दाऊद इब्राहिम और कुछ दूसरे गैंगस्टर्स के नाम सुन रखे थे। लेकिन मैंने कभी इस पर विचार नहीं किया था कि अंडरवर्ल्ड आख़िर है क्या? फिर एक दिन मैं एक निर्माता के दफ़्तर में बैठा हुआ था और उन्हें एक कॉल आया कि एक नामी व्यक्ति की किसी गैंग ने गोली मारकर हत्या कर दी है। निर्माता मुझे बता रहे थे कि जिस शख़्स को गोली मारी गई है, वो सुबह 7 बजे सोकर उठे थे और मैंने उन्हें सुबह फोन किया था। वो 8.30 बजे अपने किसी दोस्त से मिलने वाले थे। उन्होंने बताया था कि वो उनसे मिलने आएगा, मगर क़रीब 9 बजे वो मारे गये। लोगों की यह आदत होती है कि जब कोई इस प्रकार हिंसक और अप्रत्याशित रूप से मौत का शिकार होता है तो वे उसके हरेक लम्हे को याद करते हैं कि उसके साथ क्या हुआ होगा। जब निर्माता बात कर रहे थे, क्योंकि यह मेरी आदत है कि मैं हर वक़्त सिनेमा के नज़रिए से सोचता हूं, मैंने सोचा- “अगर वो व्यक्ति सुबह 7 बजे मारा गया है तो उसके क़ातिल कितने बजे सोकर उठे होंगे? क्या उसने अपनी मम्मी को सुबह जल्दी उठाने के लिए बोला होगा, क्योंकि उसे एक ज़रूरी काम से जाना है? उसने हत्या करने के बाद नाश्ता किया होगा या पहले किया होगा?” ऐसी बातें मेरे ज़हन में आ रही थीं क्योंकि मैं मारे गये व्यक्ति और हत्यारे के बीच लम्हों के बीच सामंजस्य बैठा रहा था। तभी अचानक मेरे ज़हन में आया कि हम इन गैंगस्टर्स के बारे में तब ही सुनते हैं जब वो मारते हैं या ख़ुद मारे जाते हैं। लेकिन इसके बीच वो क्या करते हैं? यह पहला विचार था, जिसकी परिणीति 'सत्या' में हुई। ओशिवरा से आया उर्मिला का किरदार मेरा एक दोस्त ओशिवरा में चौदहवीं मंज़िल पर रहता है। उसने मुझे एक घटना के बारे में बताया। उसकी बिल्डिंग में उससे ऊपर वाली मंज़िलों में एक शख़्स रहता था। मेरा दोस्त अक्सर लिफ्ट में उससे टकरा जाता था और दोनों एक-दूसरे का हाल-चाल पूछते थे, मसलन हैलो, कैसे हैं आप या हैप्पी दीवाली वगैरह-वगैरह। फिर एक दिन मेरे दोस्त की पत्नी ने बताया कि उस शख़्स को पुलिस गिरफ़्तार करके ले गई। मुंबई का यह एक पहलू है कि आप एक बिल्डिंग में सालों से रहते रहें, लेकिन आपको पड़ोसी कौन है, इसका पता भी नहीं चलता। इसी विचार से सत्या में उर्मिला का ट्रैक आया। उर्मिला का किरदार नहीं जानता था कि 'सत्या' कौन है, लेकिन फिर भी उसके साथ संबंध बना लेती है। गुस्से और क्षोभ से निकला भीखू म्हात्रे एक दिन मैं अजीत दिवानी नाम के एक सज्जन से मिला, जो मंदाकिनी के पूर्व सचिव थे। मंदाकिनी उस वक़्त दाऊद की प्रेमिका थीं और इसी वजह से अजीत कथित तौर पर कुछ गैंगस्टर्स को जानते थे और उनसे मिलते रहते थे। मेरे साथ हुई बातचीत में, उन्होंने अपना एक अनुभव बयान किया था। वो एक गैंगस्टर के घर गये थे, जिसके भाई को पुलिस ने मार दिया था। उसका भाई भी गैंगस्टर ही था। अजीत ने बताया कि गैंगस्टर अपने भाई की डेड बॉडी को इसलिए गाली दे रहा था क्योंकि उसने उसकी बात नहीं सुनी, जिसकी वजह से उसकी मौत हुई। इस बात ने मुझे चौंका दिया क्योंकि मृत शरीर को गाली देने की घटना मैंने कभी नहीं सुनी थी। फिर मैंने विचार किया तो इसका जवाब मिला कि एक गैंगस्टर बाग़ी ताक़त होता है और मृतक ने भाई की बात ना सुनकर उसे बचाने की ताक़त को उससे छीन लिया था, जिसके चलते भाई गुस्सा हो रहा था। यह वाकया भीखू म्हात्रे के किरदार की आत्मा बना, जो उस दृश्य में दिखायी देता है, जब चंदर की मौत पर भीखू भड़क रहा था। (फ़िल्म में भीखू म्हात्रे का किरदार मनोज बाजपेयी ने अदा किया था। मनोज के करियर की यह आज भी सर्वश्रेष्ठ परफॉर्मेंसेज में शामिल है) बोरीवली के गैंगस्टर से आया कल्लू मामा का किरदार मैं एक लोकेशन की तलाश में बोरीबली के बीयर बार में गया था, जहां एक व्यक्ति से मुलाक़ात हुई, जो इत्तेफ़ाक़ से पूर्व गैंगस्टर निकला। उसका व्यवहार और तेवर मुझे पसंद नहीं आये। फिर जब मैं उसी इलाक़े में शूटिंग कर रहा था, तो वो व्यक्ति फिर मिला, लेकिन तब मुझे वो बिल्कुल बदला हुआ इंसान लगा। तब मुझे महसूस हुआ कि पहली मुलाक़ात में वो अपनी वही छवि मेरे सामने पेश कर रहा था, जो मैं सोचता था, वो है। कई सेलेब्रिटीज़ ऐसा करते हैं। अगर वो सोचते हैं कि कोई उनको बड़ा आदमी समझ रहा है तो उनकी बॉडी लैंग्वेज बदल जाती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वो वैसा लगने का बहाना कर रहे होते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि अगर आप कुछ और दिखने का बहाना कर रहे हैं, तो वो ज़्यादा देर तक नहीं टिकता। यहीं से मुझे सत्या का कल्लू मामा मिला। जब एक बिल्डर उससे मिलने आता है तो कल्लू मामा ऐसे दिखाता है जैसे कोई बहुत बड़ा गैंगस्टर है, लेकिन असल में गैंग के अंदर वो एक जोकर है, जिसका लोगों को बाद में अंदाज़ा होता है। चूंकि बिल्डर ख़ुद यह सोच लेकर आ रहा है कि वो एक ख़तरनाक गैंगस्टर से मिलन जा रहा है, इसीलिए वो वही छवि पेश करने की कोशिश करता है। (कल्लू मामा का किरदार सौरभ शुक्ला ने निभाया था, जिसने उन्हें देशभर में फेमस कर दिया था) मेरी नहीं सत्या की कामयाबी रामू ने इस लेख के अंत में उन सभी का शुक्रिया अदा किया है, जिन्होंने 'सत्या' बनाने में सहयोग किया। रामू कहते हैं- मैं विनम्र बनने की कोशिश नहीं कर रहा हूं, जब मैं यह कहता हूं कि ख़ामियां मेरी हैं और अच्छी चीज़ें दूसरों की हैं। मैं तो अनुराग (कश्यप), सौरभ (शुक्ला), मनोज (बाजपेयी), उर्मिला (मातोंडकर), चकरी, मकरंद (देशपांडे), विशाल, संदीप, एलन और जेरार्ड और बाक़ी सभी की ऊर्जाओं के बीच तैर रहा था और किसी तरह कामयाबी के किनारे तक पहुंच गया। 'सत्या' का असली सच यही है। राम गोपाल वर्मा के इस ख़त के पूरे मजमून को आप नीचे पढ़ सकते हैं, जिसे उन्होंने ट्वीट किया है। View image on Twitter View image on Twitter Ram Gopal Varma ✔ @RGVzoomin Tomorrow is the 20th birthday of SATYA ..IT WAS AN ACCIDENT http://bit.ly/TruthBehindSatya … ⁦ 12:19 PM - Jul 2, 2018 2,627 380 people are talking about this Twitter Ads info and privacy मनोज बाजपेयी को राष्ट्रीय पुरस्कार सत्या संगठित अपराध को पर्दे पर दिखाने वाली देश की पहली फ़िल्म मानी जाती है। 1998 में रिलीज़ हुई सत्या एक सीधे-सादे युवक की कहानी है, जो दक्षिण भारत से मुंबई रोज़गार की तलाश में आता है, मगर हालात का शिकार होकर अंडरवर्ल्ड का हिस्सा बन जाता है। फ़िल्म का स्क्रीनप्ले अनुराग कश्यप ने लिखा था, जबकि संगीत विशाल भारद्वाज और संदीप चौटा ने दिया था। फ़िल्म के गाने गुलज़ार ने लिखे थे। फ़िल्म के गाने 'सपने में मिलती है' और 'भेजा शोर करता है' बहुत मशहूर हुए थे। फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी जेरार्ड हूपर ने की थी। उस वक़्त इसे शूट करने में लगभग 2 करोड़ रुपए ख़र्च हुए थे और 15 करोड़ का बिज़नेस किया था। सत्या उन चंद फ़िल्मों में शामिल है, जिन्हें क्रिटिक्स ने भी पूरे अंक प्रदान किये हैं। सत्या को 6 फ़िल्मफेयर और 4 स्टार स्क्रीन समेत कई अवॉर्ड्स मिले थे। मनोज बाजपेयी को बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्रदान किया गया था।

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