– नवेद शिकोह
पत्रकारिता लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहरेदारी भी करती है। यानी हम लोग डेमोक्रेसी के पहरेदार भी है। जब पत्रकार अपनी इलेक्टेड समिति की लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहरेदारी नहीं कर पा रहे हैं तो क्या ख़ाक हम देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की ताकत बनते होंगे? मुलाहिजा फरमाइये- उत्तर प्रदेश में राज्य मुख्यालय की कवरेज करने वाले पत्रकारों की एक इलेक्टेड समिति है। नाम है- उ.प्र.राज्य मुख्यालय संवाददाता समिति। इसका कार्यकाल समाप्त हो गया है लेकिन चुनाव नहीं हो रहे हैं। तमाम पत्रकारों के आरोपों के मुताबिक तरह तरह के साम दाम दंड भेद से चुनाव ना करवाने की कोशिश हो रही है। और अलोकतांत्रिक इरादे कामयाब भी हो रहे हैं। जबकि पत्रकारों का एक तबक़ा चुनाव कराये जाने के लिए आतुर है। संघर्षरत है। लेकिन कामयाब और एकजुट नहीं हो पा रहा। नियमानुसार समिति के उच्च पदाधिकारियों को आम बैठक बुला कर चुनाव घोषित कर देना चाहिए थे, लेकिन चुनाव नहीं घोषित हो रहे हैं। जिसके कारण आक्रोषित पत्रकार इसे उच्च पदस्थ पदाधिकारियों की तानाशाही बता रहे हैं। कह रहे हैं कि ये लोकतांत्रिक व्यवस्था का हनन है। कुर्सी से चिपके रहने की हवस है। ये सब तो कह रहे हैं किंतु अपने ही पत्रकार परिवार की समिति की लोकतांत्रिक व्यवस्था को दुरुस्त नहीं कर पा रहे हैं। कथित तानाशाही को शिकस्त नहीं दे पा रहे हैं। और चुनाव नहीं करा पा रहे हैं। यानी हम अपने घर की लोकतांत्रिक व्यवस्था संभाल नहीं पा रहे हैं तो क्या ख़ाक देश के लोकतांत्र की पहरेदारी कर पायेंगे?
तमाम आरोप-प्रत्यारोपों के बीच संवाददाता समिति के अध्यक्ष ने बयान दिया है कि चुनावी प्रक्रिया को अंजाम देने के लिए एनेक्सी मीडिया सेंटर, विधानभवन प्रेस रूम या लोकभवन मीडिया सेंटर की जरुरत पड़ती है। इसकी इजाजत सूचना विभाग से संबंधित आलाधिकारियों से ली जाएगी। जिसके लिए समिति के कुछ पदाधिकारियों को अधिकृत किया गया है। समिति के अध्यक्ष के इस बयान और इससे पहले समिति के एक वरिष्ठ कार्यकाणी सदस्य द्वारा कही गई बात ने मैच फंसा दिया है। वरिष्ठ सदस्य ने अभी दो दिन पूर्व ही बाकायदा पब्लिक डोमेन पर बताया था कि कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने एक आलाधिकारी से चुनाव की अनुमति मांगी तो कोविड के मद्देनजर इजाजत नहीं मिली और स्वास्थ्य और पुलिस विभाग की तमाम बेहद जटिल अनुमतियों को प्राप्त करने की बात कह दी गई।
अब आप खुद बताइए क्या अब सवाल नहीं उठेंगे। लोकतांत्रिक व्यवस्था और पत्रकारिता का सौंदर्य होते हैं सवाल, यदि हम लोग सच्चे सवालों के साथ सच उजागर कर झूठ के खिलाफ विजय नहीं प्राप्त कर सकें तो ना तो हम लोकतांत्रिक व्यवस्था के पहरेदार कहला सकते हैं और ना ही पत्रकार। सवाल ये कि जब वरिष्ठ पत्रकारों को कोविड के हवाले से चुनाव की अनुमति नहीं मिली तो समिति के पत्रकार कैसे अनुमति हासिल कर लेंगे? प्रश्न ये कि जब समिति के वरिष्ठ सदस्य द्वारा ही अनुमति ना मिलने की बात सामने आ चुकी है समिति के कुछ पदाधिकारियों को अनुमति मांगने की वार्ता के लिए अधिकृत करना महज खानापूर्ति है क्या! सवाल ये भी है कि जब सम्मान-सम्मान जैसे खेलों के लिए अति विशिष्ट सरकारी भवनों के हॉल दिए जाने की अनुमति दी जा रही हे तो पत्रकारों की चुनावी प्रक्रिया के लिए अनुमति क्यों नहीं!
अब आइये उन पत्रकारों के उन आरोपों पर जिसके तहत कहा जा रहा है कि कोविड के बहाने चुनाव टलवाये जा रहे है.. कुर्सी से चिपके रहने के लिए तानाशाही की जा रही है। बहाने बनाए जा रहे हैं.. अंदरखाने से कोशिश की जा रही है कि अनुमति ही नहीं मिले। यदि ये आरोप सच है तो आरोप लगाने वाले एकजुट होकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहाल करने और चुनाव करवाने में क्यों नहीं सफल हो पा रहे? हस्ताक्षर अभियान में क्यों पांच प्रतिशत पत्रकारों की सहमति भी नहीं जुड़ पाती है?जब आप कथित तानशाह की तानाशाही को शिकस्त देने में बीस प्रतिशत समर्थन/मौजूदगी/हस्ताक्षर एकत्र करने में सफल नहीं हो पा रहे है तो कथित अलोकतांत्रिक तरीके से समिति के पदों पर कब्जा करने वालों को चुनाव में हराओगे कैसे?