राष्ट्रवादी सोच, बेदाग छवि के प्रतिमूर्ति थे अटल बिहारी बाजपेयी

राष्ट्र समर्पित जीवन से भारतीय राजनीति में श्रद्धेय अटल बिहारी बाजपेयी ने एक अमिट छाप छोड़ी। विचारधारा और सिद्धांतों पर आधारित अटल जी के जीवन में सत्ता का तनिक मात्र मोह नहीं रहा। उनके नेतृत्व में देश ने सुशासन को चरितार्थ होते देखा। बेशक, वाजपेयी अच्छे वक्ता, राजनेता और कवि ही नहीं, बल्कि देश को विकास की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने वाले युग दृष्टा के रूप में याद किए जाएंगे। अच्छे प्रशासक और विकास को लेकर स्पष्ट दिशा उन्होंने दिखाई। गठबंधन सियासत के सूत्रधार एवं हार न मानने वाले महानायक अटल हिन्दुस्तान की यादों में सदा अटल रहेंगे। या यूं कहे अटल थे, अटल हैं, अटल रहेंगे।

सुरेश गांधी

भाजपा के दिग्गज और देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आज 96वीं जयंती है। जननायक अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर, 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में हुआ था। वाजपेयी का निधन 16 अगस्त 2018 को नई दिल्ली के एम्स अस्पताल में हुआ। सहृदय-दूरदर्शी राजनेता, संवेदनशील कवि, मित्रों और विरोधियों द्वारा समान रूप से चाहे जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी सच में एक जननायक हैं। राजनीतिक सफर का प्रारंभ भारतीय जनसंघ के सबसे पहले सदस्यों में से एक के रूप में किया। फिर 1960 के दशक के आखिर में वाजपेयी एक प्रमुख विपक्षी दल के सांसद के रूप में निखरकर सामने आए। थोड़े समय के लिए सत्ता में आई जनता सरकार में विदेश मंत्री बने और 1999 में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार का नेतृत्व किया, जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया। यह उपलब्धि और विशिष्ट बन जाती है, क्योंकि एक गठबंधन सरकार ने ऐसा कर दिखाया था।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पं.दीनदयाल उपाध्याय जैसे जनसंघ के दिग्गजों के शिष्य रहे वाजपेयी जवाहरलाल नेहरू की प्रशंसा के पात्र बने, जिनसे उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने सलाह-मशवरा किया, जिनकी आलोचना करने में वह कभी पीछे नहीं रहे और उग्र मजदूर संघ के नेता जॉर्ज फर्नांडिस से दोस्ती की, जो आगे चलकर उनके सहयोगी भी बने। इस प्रकार उन्होंने सभी प्रकार के राजनीतिक विचारों को साथ लेकर चलने की अद्भुत क्षमता प्रदर्शित की। उन्हीं के नेतृत्व में राजग सरकार ने छह साल में भारत के नवनिर्माण की नींव रखने का काम किया। अटल को कविताएँ लिखने के लिए पर्याप्त समय भले ही न मिलता हो, लेकिन उन्हें कवि-गोष्ठियों में जाने का बड़ा शौक था। राजनीतिक विचारधारा और पार्टी से जुड़ाव प्रतिद्वंद्वी दलों की ओर से आयोजित काव्य-पाठ के सत्र में जाने से अटल खुद को नहीं रोक पाते थे। उन्हें इन काव्य-पाठ के सत्रों में जाने के लिए बस कहने भर की देर हुआ करती थी। भागवत झा आजाद तथा गिरिजा व्यास जैसे कांग्रेसियों या फिर मोहन निगम जैसे समाजवादियों के घर भी वे जाया करते थे। उनके लिए कविता राजनीति से ऊपर थी। अटल ‘धर्मयुग’ के संपादक धर्मवीर भारती से लगातार जुड़े रहे। वे भी एक जाने-माने लेखक थे। जिन्होंने अटल को कविता का पाठ करते सुना है, वे कहते हैं कि बीजेपी के आला नेता एक महान् वक्ता थे, लेकिन उनका कविता सुनाने का अंदाज उससे भी बेहतर था। वह अपने कविता पाठ में ऐसा भाव ले आते थे कि सामग्री की खामियां उनमें छिप जाती थीं। उनके हाव-भाव और विराम इतने उपयुक्त स्थान पर होते थे कि कविता में जान डाल देते थे। उनकी कविता की खासियत यह थी कि वह सीधे निकलती थी। उनकी कविताएँ काल्पनिक नहीं होती थीं। उनकी आशावादिता उनकी कविताओं में झलकती थी और एक या दो पंक्तियों में निराशावाद रहता भी था, तो अगली ही पंक्ति आशावाद से भरी होती थी।

चाहे प्रधानमंत्री के पद पर रहे हों या नेता प्रतिपक्ष, बेशक देश की बात हो या क्रांतिकारियों की, या फिर उनकी अपनी ही कविताओं की, नपी-तुली और बेवाक टिप्पणी करने में अटल जी कभी नहीं चूके। बात 1994 में यूएन के एक अधिवेशन की है। उस वक्त यूएन में पाकिस्तान ने कश्मीर पर भारत को घेर लिया था। प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने भारत का पक्ष रखने के लिए नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी को भेजा था। वहां पर पाक नेता ने कहा कि कश्मीर के बगैर पाकिस्तान अधूरा है। तो जवाब में वाजपेयी ने कहा कि वो तो ठीक है, पर पाकिस्तान के बगैर हिंदुस्तान अधूरा है। एक बार आपातकाल के दौरान दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी नेताओं की रैली थी। सबको इंतजार था अटल ने जैसे ही माइक थामा। अचानक चेतना जाग्रत हुई। जैसे ही अटल ने कहा, बहुत दिनों बाद मिले हैं दीवाने… उनका इतना कहना था कि माहौल तालियों से गड़गड़ा उठा। दो-तीन मिनट तक तालियां थमीं नहीं। फिर तालियों का शोर शांत हुआ तो उनकी अगली लाइन थी… कहने सुनने को हैं बहुत से अफसाने… फिर तालियां… रुकते ही फिर अगली लाइन… जरा खुली हवा में सांस तो ले लें, कब तक है आजादी कौन जानें….। बस फिर क्या था तालियां और सुप्त जनता पूरी तरह से ऊर्जा से परिपूर्ण हो गई। अटल खूब बोले और लोगों ने खूब इसका इस्तकबाल भी किया।

ये अटल का जनता से संवाद का अपना निराला, चुटीला और विश्वसनीय अंदाज था। पहली लाइन में उन्होंने जता दिया कि बहुत दिनों बाद मिले हैं और दूसरी लाइन में वे बता गए कि अभी वे बहुत बातें करेंगे। चार लाइनों में उन्होंने देश के माहौल को भी जता दिया। वे जनता के दिलो-दिमाग से सीधा संवाद करने में महारथी थे। वे सिर्फ शब्दों के ही नहीं बल्कि कृतित्व के भी धनी थे, लिहाजा लोग उनसे अंतर्मन से जुड़ जाते थे। उनकी वक्तृत्व शैली और हाजिरजवाबी का तो लोहा पूर्व लोकसभा अध्यक्ष अनंतशायनम अयंगर भी मानते थे। उन्होंने एक बार कहा था लोकसभा में अंग्रेज़ी में हीरेन मुखर्जी और हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी से अच्छा वक्ता कोई नहीं है। जब वाजपेयी के एक नज़दीकी दोस्त अप्पा घटाटे ने उन्हें यह बात बताई तो वाजपेयी ने ज़ोर का ठहाका लगाया और बोले ‘तो फिर बोलने क्यों नहीं देता।’ अटल बिहारी वाजपेयी जब देश के प्रधानमंत्री बने थे, उस समय संसद में विश्वास मत के दौरान उन्होंने बहुत प्रभावी भाषण दिया था। उन्होंने सदन में पार्टी को व्यापक समर्थन हासिल नहीं होने के आरोपों पर कड़ा जवाब दिया था। उन्होंने कहा था कि यह कोई चमत्कार नहीं है कि हमें इतने वोट मिल गये हैं। यह हमारी 40 साल की मेहनत का नतीजा है। हम लोगों के बीच गये हैं और हमने मेहनत की है। हमारी 365 दिन चलने वाली पार्टी है। यह चुनाव में कोई कुकुरमुत्ते की तरह पैदा होने वाली पार्टी नहीं है। उन्होंने कहा था कि आज हमें सिर्फ इसलिए कटघरे में खड़ा कर दिया गया, क्योंकि हम थोड़ी ज्यादा सीटें नहीं ला पाये। राष्ट्रपति ने हमें सरकार बनाने का मौका दिया और हमने इसका फायदा उठाने की कोशिश की, लेकिन हमें सफलता नहीं मिली, यह अलग बात है, पर हम अब भी सदन में सबसे बड़े विपक्ष के तौर पर बैठेंगे।

वाजपेयी जब युवा थे और उनके पास कोई बड़ा पद नहीं था तो भी उनका कद खासा बड़ा था। 1957 में जब वह पहली बार सांसद बने थे तो उस ज़माने में वाजपेयी बैक बेंचर हुआ करते थे, लेकिन देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू बहुत ध्यान से वाजपेयी के उठाए मुद्दों को सुनते थे। एक बार नेहरू ने भारत यात्रा पर आए एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते हुए कहा था, “इनसे मिलिए। ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं। हमेशा मेरी आलोचना करते हैं लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूं। एक बार एक दूसरे विदेशी मेहमान से नेहरू ने वाजपेयी का परिचय संभावित भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी कराया था। वाजपेयी की एक कविता है कि छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई बड़ा नहीं होता……

ये उनके शब्द नहीं, बल्कि उनका जीवन-दर्शन भी था। वाजपेयी के मन में भी नेहरू के लिए बहुत इज़्ज़त थी। 1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभालने साउथ ब्लॉक के अपने दफ़्तर गए तो उन्होंने नोट किया कि दीवार पर लगा नेहरू का एकचित्र ग़ायब है। उन्होंने तुरंत अपने सचिव से पूछा कि नेहरू का चित्र कहां है, जो यहां लगा रहता था। उनके अधिकारियों ने ये सोचकर उस चित्र को वहां से हटवा दिया था कि इसे देखकर शायद वाजपेयी ख़ुश नहीं होंगे। वाजपेयी ने आदेश दिया कि उस चित्र को वापस लाकर उसी स्थान पर लगाया जाए जहां वह पहले लगा हुआ था। प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि जैसे ही वाजपेयी उस कुर्सी पर बैठे जिस पर कभी नेहरू बैठा करते थे, उनके मुंह से निकला, “कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एकदिन मैं इस कमरे में बैठूँगा।“ विदेश मंत्री बनने के बाद उन्होंने नेहरू के ज़माने की विदेश नीति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं किया। हिंदी ही नहीं उर्दू पर भी उनकी जबर्दस्त पकड़ थी। 1978 में विदेश मंत्री के तौर पर पाकिस्तान गए तो उन्होंने सरकारी भोज में खांटी उर्दू में भाषण दिया। पाकिस्तान के विदेश मंत्री आगा शाही चेन्नई में पैदा हुए थे। उनको भी वाजपेयी की गाढ़ी उर्दू समझ में नहीं आई।

जहां तक बुनियादी ढांचे और आर्थिक क्षेत्र के साथ विदेश नीति का सवाल है तो उनकी क्षमताओं का लोहा सब मानते हैं। दूरसंचार के क्षेत्र और सड़क निर्माण में वाजपेयी के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता। भारत में आजकल जो राजमार्गों का जाल बिछा हुआ देखते हैं उसके पीछे वाजपेयी की ही सोच है। देश के राजनीतिक फलक पर छाप छोड़ने वाले चुनिंदा प्रधानमंत्रियों का जब जिक्र होता है, तो इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी का नाम शीर्ष पर आता है। अपनी सख्त छवि के लिए मशहूर इंदिरा गांधी से शायद ही कोई नेता उलझना चाहता था, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर उन्हें तमाम मुद्दों पर संसद में घेर लेते और सवालों का जवाब देने पर मजबूर कर देते। यह किस्सा है वर्ष 1970, यानी भाजपा के गठन से करीब एक दशक पहले का। तब जनसंघ हुआ करता था और अटल बिहारी वाजपेयी इसके शीर्ष नेताओं में से एक थे। तारीख थी 26 फरवरी. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सदन में खड़ी हुईं और उन्होंने ’भारतीयता’ के मुद्दे पर जनसंघ को घेर लिया और तंज कसते हुए कहा कि, ’मैं जनसंघ जैसी पार्टी से पांच मिनट में निबट सकती हूं’। अटल बिहारी वाजपेयी सदन में जनसंघ के नेता थे। पार्टी पर इंदिरा गांधी की इस टिप्पणी से वे बिफर पड़े। अटल जी अपनी सीट से खड़े हुए और कहा कि ’पीएम कहती हैं कि वे जनसंघ से पांच मिनट में निबट सकती हैं, क्या कोई लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री ऐसा बोल सकता है? मैं कहता हूं कि पांच मिनट में आप अपने बालों को ठीक नहीं कर सकती हैं, फिर हमसे कैसे निबटेंगी’। एक बार तो इंदिरा गांधी ने अटल जी की आलोचना करते हुए कहा था कि ’वह बहुत हाथ हिला-हिलाकर बात करते हैं’। इसके बाद अटल जी ने जवाब में कहा कि ’वो तो ठीक है, आपने किसी को पैर हिलाकर बात करते देखा है क्या.?’

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