लव जिहाद जैसी सामाजिक बुराई को सिर्फ कानून बनाकर दूर नहीं किया जा सकता

 वर्तमान में एक बार फिर से लव जेहाद को लेकर बहस छिड़ी हुई है। उत्तर प्रदेश के कानपुर और अन्य इलाकों में लव जिहाद की कई घटनाओं ने लोगों का इस ओर ध्यान खींचा। इन घटनाओं के बाद उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश समेत कुछ अन्य राज्य लव जिहाद के खिलाफ कानून बनाने की तैयारी में हैं। इस बीच राजस्थान के मुख्यमंत्री ने इसके खिलाफ अपनी राय सामने रख दी।

लव जिहाद पर जारी इस बहस के बीच खुद के प्रगतिशील होने का दावा करने वाले विश्लेषकों ने भारतीय जनता पार्टी के नेता शाहनवाज हुसैन और मुख्तार अब्बास नकवी की शादी को लेकर भी लव जिहाद के खिलाफ कानून की बात करनेवालों का उपहास करना शुरू कर दिया। यहां वो ये भूल गए कि जिस लव जिहाद के खिलाफ कानून की बात हो रही है उसके मूल में धोखा देकर या नाम बदलकर विवाद करने का मामला है। न तो नकवी ने नाम बदलकर प्रेम किया और न ही शाहनवाज ने नाम बदलकर शादी की।

ये अवांतर प्रसंग है लेकिन यहां ये उल्लेख करना आवश्यक है कि प्रगतिशीलता और निष्पक्षता का बाना धारण करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी हर मसले में घालमेल करने में सिद्धहस्त हैं। लव जिहाद पर बनने वाले कानून को अगर वो प्रेम और प्यार की राह में बाधा से जोड़ दें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। खैर..इस पर चर्चा फिर कभी। फिलहाल बात लव जिहाद पर ।

इन दिनों लव जिहाद एक बेहद गंभीर सामाजिक समस्या के तौर पर उपस्थित हुआ है जिसका फायदा आपराधिक मनोवृत्ति के लोग उठा रहे हैं। धोखा देकर लड़कियों को अपने प्रेम के जाल में फंसाना और फिर शादी कर लड़की का धर्मांतरण करवाना आ उसके लिए दबाव बनाना ही लव जिहाद के मूल में है। कहीं पढ़ा था कि किसी भी सामाजिक परिवर्तन की रफ्तार अगर धीमी रहती है तो उसको सुधार कहकर परिभाषित किया जाता है और अगर वो सामाजिक परिवर्तन काफी तेजी से होता है तो उसको क्रांति कहा जाता है।

इसी तरह से अगर कोई सामाजिक बुराई धीमी गति से फैलती है तो उसपर अंकुश लगाने के लिए दीर्घकालिक योजना की जरूरत होती है लेकिन अगर सामाजिक बुराई तीव्र गति से फैलने लगती है तो उसको कानून के डंडे और सामाजिक जागृति से काबू में लाया जाता है। पिछले दिनों जिस तरह से लव जिहाद के मामले बढ़े हैं उसको रोकने के लिए कानून बनाने की सोच उचित प्रतीत होती है। लव जिहाद जैसी सामाजिक बुराई को सिर्फ कानून बनाकर दूर नहीं किया जा सकता है। इसके लिए संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में भी काम करना आवश्यक होगा।

दरअसल हमारे देश में गंगा-जमुनी तहजीब का जो सिद्धांत प्रतिपादित किया गया उसका निषेध करना होगा। ऐसी कोई संस्कृति हमारे देश में नहीं है। गंगा जमुनी तहजीब के साथ साथ इस अवधारणा को भी दूर करने का उपक्रम करना होगा कि भारत विविध संस्कृतियों का देश है। हमारे देश की संस्कृति एक ही है, एक ऐसी संस्कृति जहां हम तमाम तरह की विविधताओं का उत्सव मनाते हैं।

भारतीय संस्कृति की यही विशेषता रही है कि वो सबको अपने अंदर समाहित करता चलता है। भारतीय संस्कृति के सामाजिक रूप पर अगर विचार करें तो यह पाते हैं कि आर्यों और आर्येतर जातियों ने साथ मिलकर एक संस्कृति को मजबूत किया जिसे हिंदी संस्कृति के तौर पर जाना गया। मुसलमानों के भारत में आगमन के पहले जब तुर्क और मंगोल आदि भारत आए तो उन्होंने यहां की संस्कृति को अपनाया। नतीजा यह हुआ कि विविधता और बढ़ गई। इस अवधारणा को पुष्ट करने के लिए विद्यालय स्तर पर काम करने की जरूरत है। अभी हाल ही में पेश की गई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस बात के संकेत तो हैं लेकिन बहुत स्पष्ट रूप से इसको सामने रखने की जरूरत है।

स्पष्टता के साथ नीति सामने आएगी तो फिर उसके क्रियान्वयन के लिए प्रयास करना होगा। नैतिक शिक्षा की बात बार-बार की जाती है और तथाकथित प्रगतिशील तबका उसका उपहास करती रही है, लेकिन आज की सामाजिक समस्या को ध्यान में रखते हुए नैतिक शिक्षा की आवश्कता एक बार फिर से महसूस होने लगी है।

सामाजिक और पारिवारिक संस्कार शिक्षा के मूलाधारों में से एक होना चाहिए। कथित प्रगतिशील तबका भारतीय संस्कृति या यों कहें कि हिंदू संस्कृति का ये कहकर मजाक उड़ाती रही है कि यहां लोक से अधिक परलोक को प्रधानता दी गई है। ऐसा कहने के पीछे उनका उद्देश्य यह होता है कि वो ये साबित करें कि हिंदू संस्कृति जिंदगी को जीने या संघर्ष करने की प्रेरणा नहीं देता है बल्कि पलायन की राह दिखाता है। ऐसे कथित प्रगतिशील विद्वानों को ये नहीं पता कि उनके इन तर्कों का आधार उनका अज्ञान है।

हम वैदिक धर्म का सूक्षमता से अध्ययन करें तो पाते हैं कि वहां संन्यास की नहीं बल्कि गृहस्थधर्म की प्रधानता है। ऋगवेद में तो इस बात का उल्लेख मिलता है कि ऋषि वैराग्य की कामना वहीं करते बल्कि वो इंद्र से ये कहते हैं कि ‘हमारे घोड़ों को पुष्ट करो, हमारी संततियों को बलवान बनाओ, हमारे शत्रुओं को कमजोर करो आदि आदि।‘ ऋगवेद में समाज और संस्कृति की जो रेखा दिखाई देती है उसका ही विस्तार रामायण और महाभारत में भी दिखता है। गीता में भी कर्मयोग पर जोर दिया गया है।

ये सारी बातें विस्तार से नई पीढ़ी को बतानी होगी। उनको पौराणिक ग्रंथों में वर्णित ज्ञान से संस्कारित करना होगा। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय मिलकर एक समेकित योजना पर काम करें। इसके लिए किसी नए संस्थान बनाने की जरूरत भी नहीं बल्कि जो संस्थाएं पहले से काम कर रही हैं उनकी कार्यप्रणाली को ठीक करके उनसे ये काम करवाया जा सकता है। बस संस्कृति और उसको मजबूत करने में रुचि की होनी चाहिए।

शिक्षा और संस्कृति को मजबूत करके हम समाज में अपने युवाओं को इस तरह से संस्कारित कर सकते हैं जिससे वो सभ्यता के दुर्गुणों के पीछे नहीं भागें। दिनकर ने सभ्यता और संस्कृति को बहुत कायदे से परिभाषित किया है। उनके अनुसार ‘सभ्यता वह वस्तु है जो हमारे पास है, संस्कृति वह है जो हम स्वयं हैं। प्रत्येक सुसभ्य व्यक्ति सुसंस्कृत नहीं होता क्योंकि संस्कृति का निवास मोटर, महल और पोशाक में नहीं, मनुष्य के ह्रदय में होता है।‘ नई शिक्षा नीति में संस्कृति को लेकर जो चीजें छूट गई हैं उसको राष्ट्रीय संस्कृति नीति बनाकर शामिल किया जा सकता है।

आजाद भारत के इतिहास में अबतक हमारे देश की कोई संस्कृति नीति नहीं बनी। संस्कृति के क्षेत्र में जो लोग सक्रिय रहे उनकी सोच के हिसाब से काम होता रहा। पहले पुपुल जयकर और बाद के दिनों में कपिला वात्स्यायन की सोच सरकारी की संस्कृति को लेकर बनने वाली नीतियों को प्रभावित करती रही। इमरजेंसी के बाद के दौर में वामपंथियों की सोच ने भी भारत सरकार की नीतियों को प्रभावित किया। विदेश से आयातित विचारों के आधार पर भारतीय संस्कृति को सिर्फ व्याख्यायित ही नहीं किया गया बल्कि उसको प्रभानित करने की नापाक कोशिश भी हुई।

समग्रता में संस्कृति नीति के बारे में कभी सोचा गया हो ऐसा ज्ञात वहीं है। अब जब सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने की दिशा में ठोस कदम उठाया है तब देश के लिए एक समग्र सांस्कृतिक नीति को लेकर भी विचार करना चाहिए। अगर मौजूदा सरकार इस देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ साथ एक समग्र संस्कृति नीति बनाने और उसको लागू करने पर विचार करती है तो लव जिहाद जैसी सामाजिक समस्याएं न्यून हो सकती हैं।

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