प्रदुम्न तिवारी : लखनऊ । आज जब जननायक अटल बिहारी वाजपेयी चिरनिद्रा में सो चुके हैं, तो उनके बारे में कुछ लिखने में हाथ कांप रहे हैं । लेखनी और वाणी के धनी अटल में क्या नहीं था । वह बेहतर राजनेता तो थे ही, सबसे बढकर वह मनुष्य थे । मनुष्यता उनकी पहली पहचान थी । यही वह गुण था, जिससे अटल सत्ता के शीर्ष पर तो पहुंचे ही, उन्होंने दलीय मतभेदों से उठकर हर नेता के साथ आत्मीयता का रिश्ता भी कायम किया ।
अटल ही में वह कला थी, जिससे तीव्र वैचारिक मतभेद वाले राजनीतिक दलों के नेताओं में मतैक्य स्थापित कर उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन—एनडीए को खडा कर दिया । यह उन्हीं की ही मेहनत और तपस्या का फल है कि आज एनडीए देश पर राज कर रहा है ।
अटल में वाणी और लेखनी की कुव्वत कौन कहे, उनकी सहजता में भी जो भाव था, वह लोगों को सहज अपनी ओर आकर्षित करता था । जीवन भर की राजनीति में कभी किसी ने उनके मुख से धुर विरोधियों के लिए भी कटु शब्दों का प्रयोग नहीं सुना ।
बात 1996 की है । जनसंघ के नाराज नेता बलराज मधोक ने लखनउ से अटल के खिलाफ चुनाव लडने का ऐलान कर दिया था । बलराज मधोक उसी दिन लखनउ पहुंचे, जिस दिन अटल जी को अपना नामांकन करना था । मधोक भी राज्य अतिथि गृह में ठहरे हुए थे । जानकारी मिलने पर मैं उनसे बातचीत करने पहुंच गया ।
अटल के खिलाफ ही क्यों चुनाव लडना चाहते हैं, जवाब आया कि अटल को अपने पर बहुत घमंड है । मैं उनका घमंड चूर करने आया हूं । अटल से ही क्या नाराजगी, इस सवाल पर बोले कि अटल अशिष्ट हैं । मधोक से यह पूछने पर कि फिर जनता उन्हें सर आंखों पर क्यों बैठाती है, उन्होंने कहा कि यह तो संघ की बदौलत हो रहा है । फिर जनसंघ में आप हाशिये पर क्यों चले गये और अटल शीर्ष पर पहुुंच गये, इस पर बोले कि यह सब अटल की साजिश है ।
बातें और भी हुईं लेकिन उनका यहां ज्यादा उल्लेख प्रासंगिक ना होगा । पर यह वाकया इसलिए याद है कि मधोक से बात करने के दो घंटे बाद जब मैं अटल जी से मिला और उन्हें मधोक की अशिष्ट वाली टिप्पणी की जानकारी दी तो अटल जी ने बहुत स्वाभाविक ढंग से कहा कि मैं मधोक जी पर कोई टिप्पणी नहीं करूंगा क्योंकि वो मेरे वरिष्ठ हैं । फिर अटल जी इस बारे में कुछ नहीं बोले । यह है अटल की शख्सियत । यह साक्षात्कार उस समय अमर उजाला में विस्तृत रूप से प्रकाशित भी हुआ था ।
कितने ही उदाहरण हैं । जहां तक वाणी की बात है तो उनकी वाकपटुता और हास्य प्रधान शैली का कोई जवाब ही नहीं है । बात लखनउ के बेगम हजरत महल पार्क की है । अटल जी जनसभा में बोल रहे थे । सभा में उन्होंने राजनीतिक छुआछूत के पुरोधाओं पर चुटकी ली थी— ”आपने एक कहावत सुनी होगी । आठ कनौजिया, नौ चूल्हे । नवां चूल्हा इसलिए कि उससे आग लेकर बाकी अपने अलग अलग आठ चूल्हे जलाते थे ।” यह भी जोडा कि मैं भी कनौजिया ब्राहमण हूं । इस पर सभा में जोरदार ठहाका लगा । यही नहीं, उनकी कविताएं भी मानवीय संवेदनाओं से भरपूर और राजनीति को दिशा दिखाने वाली हैं ।
अटल जी ‘परिचय’ नामक कविता बहुत चर्चित हुई थीं । उसकी पंक्तियां थीं … पय पीकर सब मरते आये, लो अमर हुआ मैं विष पीकर । इन्हीं पंक्तियों में छिपा है अटल का जीवन दर्शन । अपने राजनीतिक जीवन में पता नहीं उन्हें कितनी बार गरल पीना पडा लेकिन हंसते हंसते उन्होंने समस्याओं को ऐसा सुलझाया कि विरोधी भी उनके हुनर को दाद देने से नहीं चूके ।
वर्ष 1951 में गठित जनसंघ के अटल जी संस्थापक सदस्य थे । पंडित दीनदयाल उपाध्याय और तत्कालीन सर संघ चालक गुरू गोलवरकर ने विचार विमर्श के बाद अटल जी को डाक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ लगाया । अटल जी मुखर्जी के सचिव की हैसियत से उनसे जुडे रहे । यहां तक कि मुखर्जी जब बिना परमिट कश्मीर में दाखिल हुए तो अटल भी उनके साथ ही थे ।
मुखर्जी तो गिरफ्तार हो गये लेकिन उन्होंने अटल को वापस भेजे हुए कहा कि अटल जाओ और देशवासियों को संदेश दे दो कि मुखर्जी बिना परमिट कश्मीर में दाखिल हो गया है । अटल जी पर दीनदयाल उपाध्याय और संघ का बेहद प्रभाव था । संघ के बडे पदाधिकारी रहे भाउराव देवरस का जब निधन हुआ तो दिल्ली में मीडिया ने अटल जी की प्रतिक्रिया जाननी चाही । अटल जी ने सिर्फ इतना ही कहा था कि देवरस ना होते तो दीनदयाल उपाध्याय ना होते और दीनदयाल जी ना होते तो मैं ना होता । ये थे अटल ।