झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन ने सोमवार को राज्य सभा सांसद के रूप में शपथ ली. 11 जनवरी 1944 को जन्मे सोरेन 76 वर्ष की उम्र में सदन में लौटे हैं. एक आम आदिवासी परिवार में जन्मे शिबू सोरेन का जीवन आदिवासी समाज की दिक्कतों, उनकी अपने हक के लिए लामबंदी और संघर्ष तथा विकास की मुख्यधारा की ओर उनकी यात्रा की कहानी है. शिबू सोरेन को संथाली भाषा में दिशोम गुरु कहकर बुलाया जाता है, जिसका अर्थ होता है देश का गुरु. वे झारखंड और देशभर में गुरुजी के नाम से ही ज्यादा पुकारे जाते हैं.
शिबू सोरेन के पिता की हत्या महाजनों ने की थी. इस घटना के बाद से उन्होंने महाजनों और सूदखोरों के खिलाफ मुहिम शुरू कर दी. शिबू सोरेन, रामगढ़ जिले में नेमरा गांव के रहने वाले हैं. लेकिन उन्होंने इस आंदोलन को धनबाद तक पहुंचाया. धनबाद के टुंडी गांव पहुंचते-पहुंचते उनका आंदोलन बढ़ता चला गया. इस दौरान उन्होंने आदिवासी समाज की मुख्य समस्याओं को समझा और उनके हल की दिशा में कदम बढ़ा दिए.
आगे चलकर शिबू सोरेन की मुलाकात कॉमरेड एके राय और विनोद बिहारी महतो से हुई. इन सभी लोगों ने मिलकर 1974 में झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया. जब झारखंड मुक्ति मोर्चा बना था, तब एके राय सीपीएम छोड़ चुके थे. वे एक स्वतंत्र मार्क्सिस्ट के तौर पर प्रयोग कर रहे थे. उन्होंने एक नया कॉन्सेप्ट तैयार किया था कि लाल झंडा और हरा झंडा एक साथ होगा.
यानी कि आदिवासी समुदाय के लोग और मजदूर दोनों एक साथ आ जाएंगे. ये सभी मिलकर झारखंड को मुक्त कराएंगे. उस समय वियतनाम में बहुत बड़ा संघर्ष चल रहा था जिसका नाम था वियतनाम लिबरेशन आर्मी. वहीं से प्रभावित होकर इस पार्टी का नाम झारखंड मुक्ति मोर्चा दिया गया.
शिबू सोरेन को संसदीय व्यवस्था में काफी यकीन रहा है. वो मानते हैं कि चुनाव लड़कर राजनीति के जरिए हालात बदले जा सकते हैं. इसलिए उन्होंने झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी का गठन किया. पार्टी के पहले अध्यक्ष बिनोद बिहारी महतो चुने गए और शिबू सोरेन महासचिव बने. काफी समय तक तीनों मिलकर काम करते रहे, फिर 90 के दशक में तीनों में अलगाव हो गया लेकिन सोरेन पार्टी का नेतृत्व संभाले रहे.
इसके बाद शिबू सोरेन केंद्र सरकार के संपर्क में आए. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले और चुनाव में उतरे. हालांकि झारखंड मुक्ति मोर्चा के केंद्रीय अध्यक्ष शिबू सोरेन अपना पहला लोकसभा चुनाव हार गए थे. ये 1977 की बात है. तीन साल बाद 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में शिबू सोरेन को जीत हासिल हुई. इसके बाद वे लगातार 1989, 1991, 1996 और 2002 में चुनाव जीते.
2009 के उपचुनाव में तमाड़ विधानसभा क्षेत्र से शिबू सोरेन झारखंड पार्टी के उम्मीदवार गोपाल कृष्ण पातर उर्फ राजा पीटर से 9000 से ज्यादा वोटों से हार गए थे और इस कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था. सोरेन मनमोहन सरकार में कोयला मंत्री भी रहे थे. 2014 में शिबू दुमका से लोकसभा चुनाव जीतकर सांसद बने लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
वरिष्ठ पत्रकार फैसल अनुराग कहते हैं कि शिक्षा, शराबबंदी और सूदखोरी के खिलाफ शिबू सोरेन ने जो आंदोलन चलाया, उसी से उनका कद काफी बड़ा हो गया. उनकी कोशिश थी कि उनके समाज के लोगों का शोषण ना हो, वो पढ़ें-लिखें, अपना हक मांग सकें. शिबू सोरेन आदिवासी समाज के पिछड़ेपन को दूर करना चाहते हैं. उन्होंने देखा कि इस समाज में सबसे बड़ी समस्या शिक्षा की है.
उनका मानना रहा है कि आदिवासी समुदाय के लोग पढ़े-लिखे नहीं होते हैं, इसलिए उनसे अंगूठे का निशान लेकर, उन्हें जिंदगी भर के लिए कर्ज के दलदल में धकेल दिया जाता है. इसके लिए उन्होंने लोगों के बीच ये बात फैला दी कि जो लोग पढ़े-लिखे नहीं होते हैं, उनके अंगूठे कुचल दिए जाते हैं. ये लोगों को सिर्फ डराने के लिए था लेकिन इसका अच्छा असर हुआ.
दूसरी चीज उन्होंने शराबबंदी की शुरुआत की. उन्होंने कहा कि अगर किसी ने शराब पी तो उसे कठोर सजा दी जाएगी. उनकी तीसरी बात थी कि अगर कोई शख्स किसी सूदखोर के चक्कर में आया तो उसे सजा के तौर पर घुटनों के बल चलाया जाएगा. ये सभी ऐलान लोगों में एक डर पैदा करने के लिए थे ताकि वो किसी तरह के चंगुल में ना फंसें और अपने विकास पर ध्यान दें.
1970 के दौरान शिबू सोरेन के बारे में लोगों के बीच कहा जाने लगा कि उनकी नजरों से बच पाना मुश्किल है. वो एक साथ कई घरों पर नजर रख सकते हैं. समाज ने उन्हें एक ऐसे गुरु के तौर पर स्थापित कर दिया जो दूर से बैठकर भी उनपर निगाह रख सकता था. इसी डर की वजह से लोगों में नई चेतना भी जागी और उन्हें समाज में गुरु कहा जाने लगा.