इन दिनों श्राद्ध पक्ष चल रहा है और इन दिनों पितृ के लिए तर्पण करने का अपना ही एक अलग महत्व है. ऐसे में आज हम आपको बताने जा रहे हैं श्राद्ध/ पितृ पक्ष की लोककथा. कहा जाता है इस लोक कथा को पढ़ना और सुनना चाहिए क्योंकि यह शुभ होता है. आइए बताते हैं.
लोक कथा – जोगे तथा भोगे दो भाई थे. दोनों अलग-अलग रहते थे. जोगे धनी था और भोगे निर्धन. दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम था. जोगे की पत्नी को धन का अभिमान था, किंतु भोगे की पत्नी बड़ी सरल हृदय थी. पितृ पक्ष आने पर जोगे की पत्नी ने उससे पितरों का श्राद्ध करने के लिए कहा तो जोगे इसे व्यर्थ का कार्य समझकर टालने की चेष्टा करने लगा, किंतु उसकी पत्नी समझती थी कि यदि ऐसा नहीं करेंगे तो लोग बातें बनाएंगे. फिर उसे अपने मायके वालों को दावत पर बुलाने और अपनी शान दिखाने का यह उचित अवसर लगा. अतः वह बोली- ‘आप शायद मेरी परेशानी की वजह से ऐसा कह रहे हैं, किंतु इसमें मुझे कोई परेशानी नहीं होगी. मैं भोगे की पत्नी को बुला लूंगी. दोनों मिलकर सारा काम कर लेंगी.’
फिर उसने जोगे को अपने पीहर न्यौता देने के लिए भेज दिया. दूसरे दिन उसके बुलाने पर भोगे की पत्नी सुबह-सवेरे आकर काम में जुट गई. उसने रसोई तैयार की. अनेक पकवान बनाए फिर सभी काम निपटाकर अपने घर आ गई. आखिर उसे भी तो पितरों का श्राद्ध-तर्पण करना था. इस अवसर पर न जोगे की पत्नी ने उसे रोका, न वह रुकी. शीघ्र ही दोपहर हो गई. पितर भूमि पर उतरे. जोगे-भोगे के पितर पहले जोगे के यहां गए तो क्या देखते हैं कि उसके ससुराल वाले वहां भोजन पर जुटे हुए हैं. निराश होकर वे भोगे के यहां गए. वहां क्या था? मात्र पितरों के नाम पर ‘अगियारी’ दे दी गई थी. पितरों ने उसकी राख चाटी और भूखे ही नदी के तट पर जा पहुंचे. थोड़ी देर में सारे पितर इकट्ठे हो गए और अपने-अपने यहां के श्राद्धों की बढ़ाई करने लगे. जोगे-भोगे के पितरों ने भी अपनी आपबीती सुनाई. फिर वे सोचने लगे- अगर भोगे समर्थ होता तो शायद उन्हें भूखा न रहना पड़ता, मगर भोगे के घर में तो दो जून की रोटी भी खाने को नहीं थी. यही सब सोचकर उन्हें भोगे पर दया आ गई.
अचानक वे नाच-नाचकर गाने लगे- ‘भोगे के घर धन हो जाए. भोगे के घर धन हो जाए.’ सांझ होने को हुई. भोगे के बच्चों को कुछ भी खाने को नहीं मिला था. उन्होंने मां से कहा- भूख लगी है. तब उन्हें टालने की गरज से भोगे की पत्नी ने कहा- ‘जाओ! आंगन में हौदी औंधी रखी है, उसे जाकर खोल लो और जो कुछ मिले, बांटकर खा लेना.’ बच्चे वहां पहुंचे, तो क्या देखते हैं कि हौदी मोहरों से भरी पड़ी है. वे दौड़े-दौड़े मां के पास पहुंचे और उसे सारी बातें बताईं. आंगन में आकर भोगे की पत्नी ने यह सब कुछ देखा तो वह भी हैरान रह गई. इस प्रकार भोगे भी धनी हो गया, मगर धन पाकर वह घमंडी नहीं हुआ. दूसरे साल का पितृ पक्ष आया. श्राद्ध के दिन भोगे की स्त्री ने छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाएं. ब्राह्मणों को बुलाकर श्राद्ध किया. भोजन कराया, दक्षिणा दी. जेठ-जेठानी को सोने-चांदी के बर्तनों में भोजन कराया. इससे पितर बड़े प्रसन्न तथा तृप्त हुए.