भारतीय राष्ट्रवाद के वास्तविक जनक हैं स्वामी विवेकानंद

वयं राष्ट्रे जागृयाम ।(63)

-विवेकानंद शुक्ला

अपनी ओजस्वी वाणी से पूरे विश्व में भारत को गौरवान्वित करने वाले तेजस्वी वक्ता, शिकागो के सर्व धर्मपरिषद में सनातन संस्कृति हिंदुत्व का पताका लहराने वाले, रामकृष्ण मिशन के संस्थापक युवाओं के प्रेरणास्रोत और युग प्रवर्तक स्वामी विवेकानंद जी के निर्वाण दिवस पर कोटि-कोटि नमन। यदि हम इतिहास का एक सर्वेक्षण करें तो ये पाते हैं कि जो भी महापुरुष सनातन संस्कृति और भारत राष्ट्र को सुरक्षित और संरक्षित रखने का प्रयास किया वह बड़े कम आयु में दिवंगत हो गया। यह हमारा दुर्भाग्य है कि शंकराचार्य दारा शिकोह, पेशवा बालाजी राव,स्वामी विवेकानंद,स्वामी दयानन्द… आदि बड़े कम उम्र में चले गए… शायद इसलिए भी कि उन्होंने जो नीव रखी उस पर सनातन संस्कृति का भव्य भवन बना सकें।

4 जुलाई, 1902 को संध्या के समय बेलूर मठ में उन्होंने 3 घंटे तक योग किया। शाम के 7 बजे अपने कक्ष में जाते हुए उन्होंने किसी से भी उन्हें व्यवधान ना पहुंचाने की बात कही और रात के 9 बजकर 10 मिनट पर उनकी मृत्यु की खबर मठ में फैल गई… और 4 जुलाई 1902 को मात्र 39 साल की उम्र में महासमाधि धारण कर उन्होंने प्राण त्याग दिए थे।वैज्ञानिक आधारों को मानने वालों के अनुसार महासमाधि के समय उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ था जिसके कारण उनकी मृत्यु हुई। जिस समय स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव हुआ, उस समय देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। देश के उस पराधीनता काल में भी किसी भी तरह की आत्महीनता की बजाय भारत को, हिन्दू चिंतन को विश्व में प्रतिष्ठा दिलाकर, भारत को पराधीन कर विजय के दंभ में जी रही यूरोपीय जातियों व देशों को फटकार लगाकर एक दिग्विजयी योद्धा की भांति स्वामी विवेकानन्द भारत लौटे तो देश का जनमानस गर्वोन्नत होकर उनके स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाकर खड़ा था, लेकिन स्वामी जी मद्रास के समुद्रतट पर जहाज से उतर कर मातृभूमि की रज में लोट-पोट हो रहे थे, आनंद अश्रुओं से विगलित अवस्था में वे बेसुध से हो गए, मानों वर्षों से माँ की गोद से बिछुड़ा कोई अबोध बालक माँ के अंक में आकर विश्रांति पा गया हो।

निराशा, आत्मबोधहीनता और अज्ञान से निकलकर किस तरह जिजीविषा के साथ निर्भय होकर अमरत्व की ओर बढ़े, हिन्दू चिंतन विशेषकर उपनिषदों के आह्वान को बोधगम्य बनाकर जब उन्होंने प्रस्तुत किया, तो न केवल ईसाइयत की श्रेष्ठता के अहंकार पर चढ़कर आई साम्राज्यवादी निरंकुशता का दंभ चूर-चूर हो गया, बल्कि यूरोप और अमरीकावासी तो उन्मत्त होकर उनके पीछे दौड़ने लगे मानों उन्हें कोई त्राता मिल गया हो। अंग्रेजी शासन में जब मिशनरीज की स्थापना हो रही थी, स्वामी विवेकानंद ने भारत में राष्ट्रीयता और हिंदुत्व की भावना को एक प्रकार से पुनर्जीवित किया। रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की स्थापना इसी का हिस्सा थे। सन 1901 में उनकी ढाका यात्रा के दौरान जब युवाओं का एक समूह उनसे मिला और परामर्श लिया तो उन्होंने कहा, ‘बंकिमचन्द्र को पढ़ो और देशभक्ति व सनातन धर्म का अनुकरण करो। सबसे पहले भारत को राजनैतिक रूप से स्वतंत्र कराया जाना चाहिए’।

स्वामी विवेकानन्द से मिलने बाल गंगाधर तिलक उनके पास बेलूर मठ आए। स्वामी विवेकानन्द ने उनसे चाय बनाने का आग्रह किया। बाल गंगाधर तिलक ने दूध, चाय पत्ती और शक्कर लेकर सभी के लिये मुगलई चाय बनाई। स्वामी विवेकानन्द से किसी ने भारतीयों की एकता पर सवाल किया, “भारत में हर रंग के लोग पाए जाते हैं। काले, गोरे, भूरे, लाल, फिर भी आप सबमें एकता है।” स्वामी ने जवाब दिया, “घोड़े कितने रंग के होते हैं, काले, सफेद, भूरे हर रंग के फिर भी सब साथ रहते हैं। इसके विपरीत गधे केवल एक रंग के होते हैं, फिर भी सब अलग अलग रहते हैं।” स्वामी विवेकानन्द ने अंग्रेज़ों को गधा नहीं कहा, लेकिन बात सब तक पहुंच गई।

यह कोई संयोग नहीं है कि स्वामी विवेकानंद की समाधि के तीन वर्षों बाद ही उनके द्वारा प्रज्वलित अग्नि ने बंगाल के विभाजन के विरुद्ध एक विशाल आंदोलन भड़का दिया जो कि अपने आप में एक महान स्वतंत्रता आंदोलन बन गया। स्वामी विवेकानंद जी के ऐसे योगदान के कारण ही तिलक जी की पत्रिका “मराठा” ने विवेकानंद को भारतीय राष्ट्रवाद का जनक माना। 14 जनवरी 1912 को इन्होंने कहा, “स्वामी विवेकानंद भारतीय राष्ट्रवाद के वास्तविक जनक हैं… प्रत्येक भारतीय को आधुनिक भारत के इस पिता पर गर्व है”।

इसलिए 39 साल की छोटी उम्र में उनका मृत्यु को पाना ना केवल सनातन संस्कृति और भारत राष्ट्र के लिए, वरन पूरे विश्व के मानवता के विकास की दिशा में एक बड़ा आघात था। लेफ़्ट-लिबरल-वामपंथी और छद्म सेकुलर सोच के कारण शिक्षा में नैतिकता, राष्ट्रभक्ति, सामाजिकता जैसे उदात्त भाव तिरोहित हो रहे हैं, सनातन संस्कृति हिन्दुत्व को न केवल सांप्रदायिक बताया जाता है, बल्कि वोट-बैंक वाली तुष्टिकरण की राजनीति के लिए उसे कमजोर करने व लांछित करने के षडयंत्र भी लगातार जारी हैं। आधुनिक सोच के नाम पर औपनिवेशिक व पाश्चात्य मानसिकता हावी है, जिसके आगे भारतीय जीवनमूल्यों, संस्कारों व चरित्र निर्माण की प्रक्रिया को पोंगापंथ ठहरा दिया जाता है। ऐसे में जब भारत, भारत ही नहीं रहेगा तो वह विश्व के सामने क्या आदर्श रखेगा?

“Take risks in your life,
If you win, you can lead!
If you loose, you can guide!”
-Swami Vivekananda

मेरा देश बदल रहा है, ये पब्लिक है, सब जानने लगी है… जय हिंद-जय राष्ट्र!

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