कभी नहीं भूलेगी 25 जून की वह काली रात!

…इमरजेंसी के नाम पर गिरफ्तारियों के साथ आतंक का दौर
नरेन्द्र मोदी और सुब्रमण्यम ने धारण कर लिया था सिख वेश

वयं राष्ट्रे जागृयाम ।(57)

-विवेकानंद शुक्ला

45 साल पहले की 25 जून की काली रात कभी नहीं भूलेगी जब लोकतंत्र का अपहरण कर लिया गया! इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए इमर्जेन्सी लगाई। हंसी आती है जब इस काले कारनामे को अंजाम देने वलों के चट्टे-बट्टे संविधान और लोकतंत्र को बचाने की क़समें खाते हैं। अगली सुबह 26 जून को समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा की आवाज में संदेश सुना, ‘भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।’ …लेकिन, सच इंदिरा की घोषणा से ठीक उलटा था। देशभर में हो रही गिरफ्तारियों के साथ आतंक का दौर पिछली रात से ही शुरू हो गया था। आज के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते इमर्जेन्सी में कैसा ख़ौफ़ था। आपातकाल वो दौर था जब सत्ता ने आम आदमी की आवाज को कुचलने की सबसे निरंकुश कोशिश की। आज संविधान बचाने की बात कर रहे हैं। आइए इस जघन्य घटना की परतें एक-एक कर खोलते हैं…।

1971 के आम चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ प्रचंड बहुमत (518 में से 352 सीटें) हासिल करने वाली इंदिरा गांधी ने जब उसी साल के अंत में पाकिस्‍तान को युद्ध में शिकस्‍त दी और बांग्‍लादेश दुनिया के नक्‍शे पर आया तो किसी दौर में ‘गूंगी गुडि़या’ कही जाने वाली इंदिरा गांधी को ‘मां दुर्गा’ कहा गया। उनको ‘आयरन लेडी’ कहा गया। उसी साल उनको भारतरत्‍न से भी नवाजा गया। लेकिन अगले कुछ वर्षों के भीतर ही इंदिरा गांधी की सत्‍ता का इकबाल जाता रहा और स्थिति इतनी बेक़ाबू हो गयी लिहाजा 25-26 जून, 1975 की दरम्‍यानी रात को देश में आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार की सिफारिश पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन ‘आंतरिक अशांति’ के तहत देश में आपातकाल की घोषणा कर दी।

इंदिरा गांधी का सियासी वक़्त शुरू होता है जब वो लालबहादुर शास्त्री की मई 1964 में हुई मौत के बाद देश की प्रधानमंत्री बनीं। जबकि काबिलियत के मामले में जवाहर लाल नेहरू मोरारजी देसाई को सबसे ऊपर मानते थे और तजुर्बे के लिहाज से भी मोरारजी इंदिरा गांधी पर भारी पड़ते थे। इंदिरा गांधी का कुछ कारणों से न्यायपालिका से टकराव शुरू हो गया था। यही टकराव आपातकाल की पृष्ठभूमि बना। आपातकाल के लिए 27 फरवरी, 1967 को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बड़ी पृष्ठभूमि तैयार की। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सुब्बाराव के नेतृत्व वाली एक खंडपीठ ने गोलकनाथ केस में सात बनाम छह जजों के बहुतम से से सुनाए गए फैसले में यह कहा कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान को न तो खत्म किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है। बाद में इस फैसले को बदलवाने के लिए 1971 में 24वां संविधान संशोधन पेश किया गया। इंदिरा गांधी के नेतृत्‍व में सरकार की यह कोशिश भी उस वक्‍त विफल हो गई जब केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 7-6 बहुमत के आधार पर 1973 में फैसला दिया कि संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। न्‍यायपालिका के साथ कार्यपालिका का विवाद इस हद तक बढ़ गया कि एक जूनियर जज को कई वरिष्‍ठ जजों पर तरजीह देते हुए चीफ जस्टिस बना दिया गया।नतीजतन कई सीनियर जजों ने इस्‍तीफा दे दिया।

सच यह भी है कि 1971 बाद सरकार की नीतियों की वजह से महंगाई दर 20 गुना बढ़ गई थी। गुजरात और बिहार में शुरू हुए छात्र आंदोलन से उद्वेलित जनता सड़कों पर उतर आई थी। उनका नेतृत्व कर रहा था सत्तर साल का एक बूढ़ा जिसने इंदिरा सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। बिहार के इस छात्र संघर्ष समिति के आंदोलन को गांधीवादी समाजवादी चिंतक जयप्रकाश नारायण (जेपी) समर्थन दे रहे थे। 1974 में जेपी ने छात्रों, किसानों और लेबर यूनियनों से अपील करते हुए कहा कि वे अहिंसक तरीके से भारतीय समाज को बदलने में अहम भूमिका निभाएं। इन सब वजहों से इंदिरा गांधी की राष्‍ट्रीय स्‍तर पर छवि ख़राब होती गयी। इन परिस्थितियों से निपटने के लिए पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने जनवरी 1975 में ही इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने की सलाह दी थी। इमर्जेंसी की योजना तो काफी पहले से ही बन गई थी।इसी वजह से तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल लागू करने के लिए उद्घोषणा पर हस्ताक्षर करने में कोई आपत्ति नहीं थी। वह तो इसके लिए तुरंत तैयार हो गए थे।

मगर आपातकाल का तात्कालिक कारण बना 12 जून 1975 की इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक फ़ैसला। दरअसल 1971 में इंदिरा गांधी रायबरेली से सांसद चुनी गईं। इंदिरा गांधी के खिलाफ संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी राजनारायण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक याचिका दाखिल की। राजनारायण ने अपनी याचिका में इंदिरा गांधी पर कुल 6 आरोप लगाए, मसलन, पहला आरोप- इंदिरा गांधी ने चुनाव में भारत सरकार के अधिकारी और अपने निजी सचिव यशपाल कपूर को अपना इलेक्शन एजेंट बनाया और यशपाल कपूर का इस्तीफा राष्ट्रपति ने मंजूर नहीं किया। दूसरा आरोप- कि रायबरेली से चुनाव लड़ने के लिए इंदिरा गांधी ने ही स्वामी अद्वैतानंद को बतौर रिश्वत 50,000 रुपए दिए, ताकि राजनारायण के वोट कट सकें। तीसरा आरोप- इंदिरा गांधी ने चुनाव प्रचार के लिए वायुसेना के विमानों का दुरुपयोग किया। चौथा आरोप- इलाहाबाद के डीएम और एसपी की मदद चुनाव जीतने के लिए ली गई। पांचवां आरोप- मतदाताओं को लुभाने के लिए इंदिरा गांधी की ओर से मतदाताओं को शराब और कंबल बांटे गए। छठा आरोप- इंदिरा गांधी ने चुनाव में निर्धारित सीमा से ज्यादा खर्च किया। 12 जून 1975 को राजनारायण की इस याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने फैसला सुनाया। इंदिरा गांधी को चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का दोषी पाया गया।हालांकि, अन्य आरोप खारिज कर दिए गए। जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन को रद्द कर दिया और 6 साल तक उनके चुनाव लड़ने पर भी रोक लगा दी। इस मामले में राजनारायण के वकील थे शांति भूषण, जो बाद में देश के कानून मंत्री भी बने।

इंदिरा गांधी ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ 23 जून को सुप्रीम कोर्ट में अपील की। सुप्रीम कोर्ट के अवकाश पीठ जज जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने अगले दिन 24 जून 1975 को याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि वो इस फैसले पर पूरी तरह से रोक नहीं लगाएंगे। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति दे दी, मगर साथ ही कहा कि वो अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं। विपक्ष के नेता सुप्रीम कोर्ट का पूरा फैसला आने तक नैतिक तौर पर इंदिरा गांधी के इस्तीफे पर अड़ गए। एक तरफ इंदिरा गांधी कोर्ट में कानूनी लड़ाई लड़ रहीं थीं, दूसरी तरफ विपक्ष उन्हें घेरने में जुटा हुआ था। गुजरात और बिहार में छात्रों के आंदोलन के बाद विपक्ष कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हो गया। लोकनायक कहे जाने वाले जयप्रकाश नारायण (जेपी) की अगुआई में विपक्ष लगातार कांग्रेस सरकार पर हमला कर रहा था।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन, 25 जून 1975 की जिस रात को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, उस रात से पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में एक विशाल रैली हुई। इस रैली में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को ललकारा था और उनकी सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया।अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, आचार्य जेबी कृपलानी, मोरारजी देसाई और चंद्रशेखर जैसे तमाम दिग्गज नेता एक साथ एक मंच पर मौजूद थे। जयप्रकाश नारायण ने अपने भाषण की शुरुआत रामधारी सिंह दिन की मशहूर कविता की एक पंक्ति से की- सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जयप्रकाश नारायण ने रैली को संबोधित करते हुए लोगों से इंदिरा गांधी सरकार को उखाड़ फेंकने की अपील की। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद पहले से ही नाजुक स्थिति में आ चुकीं इंदिरा गांधी की हालत विपक्ष के तेवर को देखकर और खराब हो गई।

विपक्ष के बढ़ते दबाव के बीच इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 की आधी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से इमरजेंसी के घोषणा पत्र पर दस्तखत करा लिए। रामलीला मैदान में हुई 25 जून की रैली की खबर देश में न पहुंचे इसलिए, दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई। रात को ही इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आर के धवन के कमरे में बैठकर उन लोगों की लिस्ट बनाया गया जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था। इसके तुरंत बाद जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई समेत सभी विपक्षी नेता गिरफ्तार कर लिए गए ।उन दिनों कांग्रेस को अपनी पार्टी में भी विरोध का डर पैदा हो गया था। इसीलिए जब जयप्रकाश नारायण सहित दूसरे विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया तो कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य चंद्रशेखर और संसदीय दल के सचिव रामधन को भी गिरफ्तार कर लिया गया। वह दौर ऐसा था जब गिरफ्तारी से बचने के लिए आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी तक ने सिख वेश धारण कर लिया था। आपातकाल के दौरान प्रेस की स्वतंत्रता छीनी जा चुकी थी। कई पत्रकारों को मीसा और डीआईआर के तहत गिरफ्तार कर लिया गया था। इंदिरा गांधी सरकार के कठोर कदम के खिलाफ पहली सत्याग्रही बने और 26 जून 1975 को विरोध में बैठक आयोजित करने पर उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया था।

आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी को सबसे पहले राजनारायण के मुकदमे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले का निबटारा करना था। इसलिए इन फैसलों को पलटने वाला कानून लाया गया। साथ ही इसका अमल पूर्व काल से लागू कर दिया।संविधान को संशोधित करके कोशिश की गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष पर जीवन भर किसी अपराध को लेकर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।इस संशोधन को राज्यसभा ने पारित भी कर दिया लेकिन इसे लोकसभा में पेश नहीं किया गया। सबसे कठोर संविधान का 42वां संशोधन था। इसके जरिए संविधान के मूल ढांचे में सोसलिस्ट, सेकुलर जोड़ कर इसे कमजोर करने, उसकी संघीय विशेषताओं को नुकसान पहुंचाने और सरकार के तीनों अंगों के संतुलन को बिगाड़ने का प्रयास किया गया। आपातकाल के पहले हफ्ते में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया।जबलपुर के ऐतिहासिक केस में एडीएम ने अपने आदेश में कहा था कि आपातकाल में संविधान के आर्टिकल 19 के तहत स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार खत्म हो जाते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी। यहां तक कहा गया कि किसी निर्दोष को गोली भी मार दी जाए तो भी अपील नहीं हो सकती क्योंकि आर्टिकल 21 के तहत जीने के आधिकार भी खत्म हो चुके हैं। ऐसा करके सरकार ने कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को रोक दिया गया। जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया। इससे अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को छीन लिया गया। राष्ट्रीय सुरक्षा काननू (रासुका) तो पहले से ही लागू था। इसमें भी कई बार बदलाव किए गए। प्रतिभाशाली कार्टूनिस्ट और लेखक अबु अब्राहम ने अहमद की संक्षिप्त राजनीतिक मृत्युलेख का रेखांकन किया था जिसमें उन्होंने अहमद को नहानेवाले टब में बैठ कर आपातकाल की घोषणा करते हुए दिखाया था। भारत के राष्ट्रपति नैतिक रूप से नंगे थे।

इस तरह इमरजेंसी के दौरान सरकार ने जीवन के हर क्षेत्र में आतंक का माहौल पैदा कर दिया था।एक बार इंदिरा ने कहा था कि आपातकाल लगने पर विरोध में कुत्ते भी नहीं भौंके थे, लेकिन 19 महीने में उन्हें गलती और लोगों के गुस्से का एहसास हो गया।18 जनवरी 1977 को उन्होंने अचानक ही मार्च में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। 16 मार्च को हुए चुनाव में इंदिरा और संजय दोनों ही हार गए। 21 मार्च को आपातकाल खत्म हो गया लेकिन पीछे छोड़ गया है लोकतंत्र का सबसे बड़ा सबक। इन सभी काले कारनामों के कारण जनता ने 1977 में एकजुट होकर न केवल कांग्रेस बल्कि इंदिरा गांधी को भी धूल चटा दी। इमरजेंसी के बहुत बाद एक इंटरव्यू में इंदिरा ने कहा था कि उन्हें लगता था कि भारत को शॉक ट्रीटमेंट की जरूरत है, लेकिन इस शॉक ट्रीटमेंट की योजना 25 जून की रैली से छह महीने पहले ही बन चुकी थी। 8 जनवरी 1975 को सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा को एक चिट्ठी में आपातकाल की पूरी योजना भेजी थी। इस तरह जनता ने लोकतंत्र में अपनी आस्था का सबूत दे दिया। आज इमरजेंसी को भुलाने की कोशिश की जाती है लेकिन हमें उन काले दिनों के अनुभवों को नहीं भूलना नहीं चाहिए। उन अनुभवों से ही हम वे सबक सीखते हैं जिनसे हमारा लोकतंत्र और मजबूत बनेगा। हंसी आती है जब इस काले कारनामे को अंजाम देने वाले संविधान और लोकतंत्र को बचाने की क़समें खाते हैं।

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