लिफाफा
पैगाम तुम्हारा और पता उनका
दोनों के बीच फाड़ा मैं ही जाऊँगा।
झाड़न
पड़ा रहने दो मुझे झटको मत
धूल बटोर रखी है वह भी उड़ जाएगी।
विश्वनाथ प्रताप सिंह की यह दोनों कविताएं जैसे उन की जिंदगी की इबारत साबित हो गईं। इतना कि आज उन के जन्म-दिन पर भी लोगों ने उन्हें याद करने की ज़रूरत नहीं समझी। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कर देश में जो नफ़रत, जो जहर उन्हों ने घोला, जो आग लगाई, देश के लोगों ने उन को भारतीय राजनीति का खलनायक मान लिया। मंडल का लाभ पाने वाले लोग वैसे भी कृतघ्न लोग हैं, सो उन लोगों ने भी आज उन्हें नहीं याद किया। अफ़सोस कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की जिंदगी भी बोफ़ोर्स बन कर रह गई। अपनी कविता की ही तरह वह लिफाफे की तरह फाड़े भी गए और अंततः धूल बन कर इस तरह उड़ गए कि कोई उन का नामलेवा भी नहीं रह गया। भारतीय राजनीति के अप्रतिम खलनायक बन कर रह गए। यह वही विश्वनाथ प्रताप सिंह हैं जिन्हों ने बतौर मुख्य मंत्री, उत्तर प्रदेश फ़ाइल पर लिखा था कि अगर मंडल लागू कर दिया तो आग लग जाएगी। और बतौर प्रधान मंत्री इसे लागू कर देश में आग लगा दी। जहर घोल कर समाज को बांट दिया।
बोफोर्स के समय एक नारा लगता था, राजा नहीं फकीर है, भारत की तकदीर है। पर बोफोर्स को राजीव गांधी की पीठ में छुरा घोंपने के लिए ही विश्वनाथ प्रताप सिंह ने ही मुद्दा बनाया। हासिल कुछ हुआ नहीं। सिवाय इस के कि विश्वनाथ प्रताप सिंह सिर्फ कलंक साबित हुए, समाज को बांटने और समाज में जहर घोलने के लिए वह सर्वदा-सर्वदा याद किए जाएंगे। इन का सपना दूसरा अम्बेडकर बनने का था मंडल लागू कर के लेकिन घृणा के पात्र बन कर रह गए। सपना था कि अम्बेडकर से ज़्यादा मूर्तियां बन जाएंगी। पर हालत यह है कि मरने के बाद इन को कोई याद करने वाला भी नहीं बचा। या जब भी किसी ने याद किया, गाली दे कर ही याद किया। वह कहते हैं न, न घर के रहे, न घाट के। देश और समाज से घात करने वालों का यही हश्र होता है।