वयं राष्ट्रे जागृयाम ।(58)
-विवेकानंद शुक्ला
आज कम्युनिस्ट चीन हिंदुस्तान को अपनी जो हेकड़ी दिखा रहा है उसको मज़बूत बनाने का काम नेहरु ने किया। आज गलवान घाटी में झड़प हो या आतंकवाद का समर्थन सब जगह चीन हिंदुस्तान से दुश्मनी निभा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के सुरक्षा परिषद के सदस्य का जिस वीटो पावर का इस्तेमाल करके चीन हिंदुस्तान के विरोधियों पर कार्यवाही को रोकता है वह नेहरु द्वारा थाल में सज़ा कर चीन को सप्रेम भेंट किया था।कांग्रेस नेता शशि थरूर ने भी अपनी किताब ‘नेहरू द इन्वेंशन ओफ इंडिया ‘में भी लिखा है कि सुरक्षा परिषद में भारत की सीट नेहरू ने चीन को दिलवा दिया था। आइए इस गुत्थी के परतों को एक-एक कर खोलते हैं…
1947 में भारत को आजादी मिली और उसके ठीक दो साल बाद यानी 1949 में माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ने 1 अक्टूबर, 1949 को चीनी लोक गणराज्य (पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना) की स्थापना की,जब चीन में हुए गृहयुद्ध में माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने चियांग काई शेक के नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी कॉमिंगतांग पार्टी को हराया था।कम्युनिस्टों से हार के बाद कॉमिंगतांग ने ताइवान में जाकर अपनी सरकार बनाई।माओ का मानना था कि जीत जब उनकी हुई है तो ताइवान पर उनका अधिकार है जबकि कॉमिंगतांग का कहना था कि बेशक चीन के कुछ हिस्सों में उनकी हार हुई है मगर वे ही आधिकारिक रूस से चीन का प्रतिनिधित्व करते हैं।
जिसे हम चीन कहते हैं उसका आधिकारिक नाम है ‘पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’ और जिसे ताइवान के नाम से जानते हैं, उसका अपना आधिकारिक नाम है ‘रिपब्लिक ऑफ़ चाइना’।दोनों के नाम में चाइना जुड़ा हुआ है।1945 में संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य रहा ताइवान (रिपब्लिक ऑफ चाइना) संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का भी हिस्सा था।चीनी क्रांति के बाद बाद दोनों प्रतिद्वंद्वियों ने अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधित्व के दावे करने शुरू कर दिए।ऐसी हालत में संयुक्त राष्ट्र के लिए भी मुश्किल होने लगा।यह सवाल बड़ा और महत्वपूर्ण हो गया कि कौन सी सरकार चीन का वास्तविक रूप में प्रतिनिधित्व करती है? हिंदुस्तान की आजादी के बाद से ही नेहरु के कारण चीन से मित्रता वाले संबंध थे। उस दौर में नेहरु सरकार शुरू से ही चीन से दोस्ती बढ़ाने की पक्षधर थी। जब चीन दुनिया में अलग-थलग पड़ गया था, उस समय भी नेहरु चीन के साथ खड़े थे।जापान के साथ किसी वार्ता में भारत सिर्फ इस वजह से शामिल नहीं हुआ क्योंकि चीन आमंत्रित नहीं था।
लेकिन सरदार पटले ने चीन की चाल को भांप लिया था। वर्ष 1950 में ही सरदार पटेल ने नेहरू को चीन से सावधान रहने के लिए कहा था। अपनी मृत्यु के एक महीने पहले ही 7 नवंबर 1950 को देश के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने चीन के खतरे को लेकर नेहरू को आगाह करते हुए एक चिट्ठी में लिखा था कि भले ही हम चीन को मित्र के तौर पर देखते हैं लेकिन कम्युनिस्ट चीन की अपनी महत्वकांक्षाएं और उद्देश्य हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए कि तिब्बत के गायब होने के बाद अब चीन हमारे दरवाजे तक पहुंच गया है। पहली चेतावनी आई थी सरदार पटेल की ओर से, और भी कई चेतावनियाँ आईं| डॉ अम्बेडकर, डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी, संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरूजी, आचार्य कृपलानी, सभी नेहरू जी को सावधान कर रहे थे। चीन हमारे प्रदेशों पर राजनयिक दावा जता रहा था। चीन के खतरनाक इरादों को बतलाने वाली सिलसिलेवार घटनाएं हो रहीं थीं।
लेकिन अपने अंतरराष्ट्रीय आभामंडल और कूटनीतिक समझ के सामने पंडित नेहरू ने किसी कि भी सलाह को अहमियत नहीं दी। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया। उस दौर में आदर्शवाद और नैतिकता का बोझ पंडित नेहरू पर इतना था कि वो चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दिलवाने के लिए पूरी दुनिया में लाबिंग करने लगे। अमरीका नहीं चाहता था कि सुरक्षा परिषद की सीट ताइवान से चीन को मिले।इसी क्रम में अमरीका तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति कैनेडी ने 1956 में भारत को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता थाल में सजाकर भेंट करनी चाही थी, क्योंकि एशिया में वो कम्युनिस्ट चीन के मुकाबले भारत को मजबूत होते देखना चाहते थे, लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने अपनी गुटनिरपेक्ष नेता की रूमानी छवि के मोहजाल में फँसकर इसे ठुकरा दिया। इतना ही नहीं, चीन पर अंधविश्वास रखने वाले नेहरू ने भारत के स्थान पर चीन को सुरक्षा परिषद् में प्रवेश देने की माँग कर डाली। उन्होंने कहा कि रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की सीट पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को मिलनी चाहिए और भारत को एक दिन अपने हक़ से सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता मिलेगी।
और अंत में कम्युनिस्ट चीन के बढ़ते प्रभाव 1945 में संयुक्त राष्ट्र का संस्थापक सदस्य रहा ताइवान 1971 में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी पीआरसी से सुरक्षा परिषद की अपनी सीट गंवा बैठा। 1971 से चीन यूएन सिक्यॉरिटी काउंसिल का हिस्सा हो गया और 1979 में ताइवान की यूएन से आधिकारिक मान्यता खत्म हो गई। आज संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए भारत सरकार जी-तोड़ मेहनत कर रही है। आज चीन सुरक्षा परिषद की सदस्यता के बल पर पकिस्तान के आतंकियों को सुरक्षाकवच दे रहा है| आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के संस्थापक मसूद अज़हर को चीन ने वैश्विक आतंकी घोषित कराने के मामले में भारत के ख़िलाफ़ वीटो कर देता है ।भारत की एनएसजी सदस्यता में रोड़े अटका रहा है। चीन के प्रति विपक्षियों की वफादारी की कोई नई बात नहीं। परंतु चीन पर भरोसा कैसे करें? वो दुश्मन पाकिस्तान को पालता है. नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार और बांग्ला देश को पैसा देकर भारत के ख़िलाफ़ उकसाता है। यूएन सिक्योरिटी काउन्सिल में हमारी परमानेंट मेम्बरशिप रोकता है।
मेरा देश बदल रहा है, ये पब्लिक है, सब जानने लगी है… जय हिंद-जय राष्ट्र!