वयं राष्ट्रे जागृयाम ।(56)
-विवेकानंद शुक्ला
हिंदुस्तान के तथाकथित अल्पसंख्यक नौजवान दो विरोधी दिशाओं में जा रहे हैं। हाल ही में दो नौजवानों का नाम अलग-अलग कारणों से सामने आया है जिसे जानबूझकर ख़बर नही बनाने दिया गया। पहला ओडिशा के आफताब हुसैन हैं जो अपनी हिंदुस्तानी जड़ों को पहचानते हुए जगन्नाथ रथयात्रा जारी रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर किया हैं और दूसरा कश्मीर यूनिवर्सिटी का पीएचडी स्कालर अपनी जड़ों को काटने के लिए आतंकी गिरोह हिज़्बुल मुजाहिद्दीन ज्वाइन करने वाला हिलाल अहमद डार है। हमें इनके मनोविज्ञान को समझना होगा! ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा 23 जून 2020 को आयोजित होनी थी जो दस दिनो तक चलता है। प्रत्येक वर्ष इस रथ यात्रा में देश-विदेश से लाखों की संख्या में श्रद्धालु भगवान का रथ खींचने के लिए आते हैं। भक्तों की इसी भीड़ को कोरोना संक्रमण के लिए बड़ा खतरा मानते हुए 18 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इस वर्ष रथ यात्रा पर रोक लगा दी थी।सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर 21 लोगों ने पुनर्विचार याचिका दायर किया। याचिकाकर्ताओ में ओडिशा के न्यागढ़ जिले का रहने वाला 19 वर्षीय बीए (अर्थशास्त्र) अंतिम वर्ष का छात्र आफताब हुसैन भी शामिल है। इनके साथ-साथ केंद्र सरकार, राज्य सरकार, बीजेपी के संबित पात्रा, जगन्नाथ संस्कृत जन जागरण मंच, अन्तराष्ट्रीय हिंदू महासभा संघ, लक्ष्मी विस्वाल आदि की तरफ से कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दी गई थी।
आफताब हुसैन ने याचिका में कहा है कि रथयात्रा लगातार हजार सालों से हो रही है और एक बार इसे रोक दिया गया तो अगले 12 सालों में मंदिर के अनुसार रथ यात्रा नहीं हो सकती और यह अराजकता पैदा करेगा।सुप्रीम कोर्ट ने अपने 18 जून के आदेश में संशोधन कर कुछ प्रतिबंधों के साथ रथ यात्रा को अनुमति दी है। इस फ़ैसले के बाद चर्चा में आए आफताब ने कहा कि ओडिशा भगवान जगन्नाथ के कारण ही दुनिया भर में प्रसिद्ध है। अगर उनकी रथ यात्रा नहीं होगी तो हमारी मान हानि होगी। जगन्नाथ हमारे घर के सदस्य जैसे हैं। अगर उन्हें दुख होगा तो हमें भी दुख होगा। ऐसा न हो इसलिए मैंने याचिका दायर की।हुसैन ने कहा कि कुछ लोगों द्वारा पुरी रथ यात्रा को रोकने की साजिश थी।
जब आफताब से पूछा गया कि मुस्लिम समुदाय का एक वर्ग कहता रहा है कि लॉकडाउन में ईद मनाने की अनुमति नहीं मिली लेकिन अब हिंदुओं को रथ यात्रा के लिए अनुमति दी जा रही है। यह पक्षपात है। आपने इस बारे में क्या कहेंगे? तो हुसैन ने कहा कि ओडिशा रथ यात्रा के लिए जाना जाता है। जगन्नाथ रथ यात्रा से ही ओडिशा की पहचान है ओडिशा ईद के लिए नहीं जाना जाता। ओडिशा का गण पर्व रथ यात्रा है, ईद नहीं। आफताव ने कहा कि मानवता ही एकमात्र धर्म है। सोशल मीडिया पर आफताब तुलना भगवान जगन्नाथ के सबसे बड़े भक्त सालबेग से हो रही है। लोग उसे दूसरा सालबेग बता रहे हैं।आइए आफताब के पृष्ठभूमि के बारे में जानते हैं जिससे आफताब का ऐसा विचार पैदा हुआ।आफताब हुसैन के मुताबिक बचपन से ही घर का माहौल ही ऐसा रहा कि वह भगवान जगन्नाथ के भक्त बन गए।उनके दादा मुल्ताब खान भी भगवान जगन्नाथ के बड़े भक्त थे। उसके दादा ने वर्ष 1960 में इटामाटी में भगवान ब्रह्मा, विष्णु व महेश के एक मंदिर का निर्माण कराया था, जिसे त्रिनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। आफताब के अनुसार उन्होंने भगवान जगन्नाथ पर कई किताबें पढ़ीं हैं। इसससे भगवान जगन्नाथ के प्रति उनकी आस्था और गहरी हो गई।
भगवान जगन्नाथ के सबसे बड़े भक्त सालबेग, 17वीं शताब्दी में मुग़लिया सल्तनत की सेना में सैनिक थे। सालबेग की माता ब्राह्मण थीं, जबकि पिता मुस्लिम थे। उनके पिता मुगल सेना में सूबेदार थे। इसलिए सालबेग भी मुगल सेना में भर्ती हो गए थे। एक बार मुगल सेना की तरफ से लड़ते हुए सालबेग बुरी तरह से घायल हो गए थे। तमाम इलाज के बावजूद उनका घाव सही नहीं हो रहा था। इस पर उनकी मां ने भगवान जगन्नाथ की पूजा की और उनसे भी प्रभु की शरण में जाने को कहा। मां की बात मानकर सालबेग ने भगवान जगन्नाथ की प्रार्थना शुरू कर दी। उनकी पूजा से खुश होकर जल्द ही भगवान जगन्नाथ ने सालबेग को सपने में दर्शन दिया। अगले दिन जब उनकी आंख खुली तो शरीर के सारे घाव सही हो चुके थे। इसके बाद सालबेग ने मंदिर में जागर भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने का प्रयास किया, लेकिन धार्मिक कारणों से उन्हें प्रवेश नहीं दिया गया। इसके बाद सालबेग मंदिर के बाहर ही बैठकर भगवान की अराधना में लीन हो गए। इस दौरान उन्होंने भगवान जगन्नाथ पर कई भक्ति गीत व कविताएं लिखीं। उड़ीया भाषा में लिखे उनके गीत काफी प्रसिद्ध हुए, बावजूद उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं मिला। इस पर सालबेग ने एक बार कहा था कि अगर उनकी भक्ति सच्ची है तो उनके मरने के बाद भगवान जगन्नाथ खुद उनकी जमार पर दर्शन देने के लिए आएंगे। सालबेग की मौत के बाद उन्हें जगन्नाथ मंदिर और गुंडिचा मंदिर के बीच ग्रांड रोड के करीब दफना दिया गया।
ऐसी मान्यता है कि सालबेग की मृत्यु के बाद जब रथ यात्रा निकली तो रथ के पहिये मजार के पास जाकर थम गए। लोगों ने काफी कोशिश की, लेकिन रथ मजार के सामने से नहीं हिला। तब एक व्यक्ति ने तत्कालीन ओडिशा के राजा से कहा कि वह भगवान के भक्त सालबेग का जयकारा लगवाएं। उस व्यक्ति की सलाह मानकर जैसे ही सालबेग का जयघोष हुआ, रथ अपने आप चल पड़ा। ऐसी मान्यता है कि तभी से भगवान जगन्नाथ की इच्छा अनुरूप उनकी सालाना आयोजित होने वाली तीन किलोमीटर लंबी नगर रथ यात्रा को कुछ देर के लिए उनके भक्त सालबेग की मजार पर रोका जाता है। यहाँ ये बताते चलें कि पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट में एक NGO ओडिशा विकास परिषद की याचिका पर 18 जून को सुप्रीम कोर्ट ने रथयात्रा पर रोक लगाई थी।इस NGO ने याचिका दायर कर कहा था कि राज्य सरकार यात्रा पर रोक के आदेश का फैसला नहीं ले पा रही है और यात्रा की तैयारियों का काम बड़े जोर से चल रहा है, जिसमें लाखों लोगों की भीड़ जुटेगी और कोरोना संक्रमण फैल सकता है। ओडिशा विकास परिषद’ NGO का नाम शायद ही कभी प्रकाश में आया हो। ये एक अनजाना सा ही नाम है, मगर इसने मुकुल रोहतगी, रंजीत कुमार जैसे वरिष्ठ वकील को अपना पक्ष रखने के लिए रखा। सनातन संस्कृति के ख़िलाफ़ साज़िश करने वाले कैसे इस NGO को मुहरा बना रहे हैं ये जाँच का विषय है।
दूसरी तरफ़ एक ख़बर आयी है कश्मीर यूनिवर्सिटी का पीएचडी स्कालर हिलाल अहमद डार की जिसके परिजन पिछले एक सप्ताह से जम्मू-कश्मीर और प्रदेश प्रशासन के समक्ष बेटे के लापता होने और खोजने की गुहार लगा रहे थे।परिजनों का कहना था कि उनका बेटा हिलाल अहमद डार डार अपने दोस्तों के साथ गांदरबल जिले के नरनाग में पर्वतारोहण के लिए 13 जून को निकला था और तभी से लापता है। 14 जून को परंतु उसके बाद वह वापस नहीं लौटा। इस बीच उसके परिजनों ने दो से तीन बार कश्मीर प्रेस एनक्लेव के बाहर प्रदर्शन कर जम्मू-कश्मीर पुलिस व प्रशासन से उनके लापता बेटे को वापस लाने के लिए गुहार लगाई। इस मामले में बहुत बड़ा खुलासा हुआ है। आइजीपी कश्मीर रेंज विजय कुमार ने बताया कि पीएचडी स्कालर हिलाल अहमद डार आतंकी गिरोह हिज़्बुल मुजाहिद्दीन ज्वाइन कर लिया है।
इसप्रकार देखे तो पाते हैं कि हिलाल अहमद डार उन्ही टुकड़े-टुकड़े गैंग का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें JNU,ज़ामिया यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी आदि के तमाम पीएचडी स्कालर और स्टूडेंट्स शामिल हैं जो राष्ट्र और संस्कृति विरोधी कई कारनामे कर चुके हैं ।इनके द्वारा पैदा किए गए राष्ट्र और संस्कृति विरोधी माहौल से निराशा तो होती है मगर आफताब हुसैन जैसे लोग सामने आकर एक आशा की किरण दिखा जाते हैं और बता जाते हैं कि अब्दुल रहीम खानखाना ’रसखान’ सालबेग, अशफाकुल्ला खान,वीर अब्दुल हामिद और पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम का सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ है, अपने जड़ों को पहचानने वाले कम हैं मगर समाप्त नहीं हुए हैं। असली मामला तो यही है कि कौन इस मुल्क को अपनी पुरखों की मिट्टी मानता है, कौन हिंदुस्तान की ज़मीन में पैदा हुए संस्कृति को अपना तहज़ीब मानता है, कौन राम, कृष्ण, शंकराचार्य, तुलसी, कबीर, राणा प्रताप, शिवाजी… को अपना मानता है, कौन तुर्क-मुग़ल लुटेरों को ग़ैर मानता है…!
मेरा देश बदल रहा है, ये पब्लिक है, सब जानने लगी है … जय हिंद-जय राष्ट्र!