लेफ़्ट-लिबरल व अर्बन नक्सल्स जैसे दलाल मिला रहे चीन से ताल में ताल
वयं राष्ट्रे जागृयाम ।(54)
-विवेकानंद शुक्ला
नेहरु का 1962 के युद्ध में बिना सैन्य साजों-सामान और तैयारी के भारतीय सेना को युद्ध के मुँह में झोंक देने का क्या उद्देश्य था ? जिसके कारण देश के माथे पर हार का जो कलंक लगा वह आज तक पीछा नही छोड़ रहा ! चीन अभी तक भारत को 1962 का नेहरु वाला ही भारत समझने वाला चीन इस बात से चिढ़ा है कि 2020 का हिंदुस्तान कैसे अपनी सीमाओं को सुदृढ़ कर पा रहा है? 1962 के युद्ध में नेहरु की भूमिका पर एक रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट को पिछली सरकारों ने यह कह कर सार्वजनिक नही किया कि यह रिपोर्ट अति गोपनीय है। सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध से जुड़ी बहुत महत्वपूर्ण रिपोर्ट का एक हिस्सा एक आष्ट्रेलियन पत्रकार द्वार सार्वजनिक किया गया था वर्ष 1914 में, जिसकी चर्चा करना आज के गलवान घाटी के संदर्भ ज़रूरी है। गोपनीय रिपोर्ट लेफ्टीनेंट जनरल हेंडरसन ब्रूक्स और ब्रिगेडियर पीएस भगत ने बनाई थी, जिसे अब ऑस्ट्रेलिया के पत्रकार नेविल मैक्सवेल ने 2014 me जारी की थी।नेविल मैक्सवेल 1962 के युद्ध के दौरान लंदन स्थित अख़बार ‘द टाइम्स’ के युद्ध संवाददाता के रूप में काम कर रहे थे।वर्ष 1970 में ‘इंडियाज़ चाइना वॉर’ नामक किताब लिखने वाले पत्रकार नेविले मैक्सवेल ने हेंडरसन ब्रुक रिपोर्ट के कुछ हिस्सों के आधार पर लिखी थी।इसी रिपोर्ट के हिस्से अब सामने आए हैं।
मैक्सवेल के मुताबिक, रिपोर्ट में तत्कालीन नेहरू सरकार की नीतियों का विस्तृत विवरण है। उसमें भारत की हार के लिए नेहरू को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराया गया है।नेहरू की ‘फारवर्ड पालिसी’ पूरी तरह नाकाम साबित हुई। इस पॉलिसी के तहत कथित तौर पर सैन्य मोर्चे पर मौजूद सैन्य अधिकारियों की सलाह के विपरीत सीमा पर आक्रामक नीति अपनाई गई, जबकि सीमा पर मौजूद सेना के पास संसाधनों का सख्त अभाव था।इस आक्रामक नीति के पीछे नेहरु की मंशा कहीं सेना को जानबूझकर पराजित करवाना तो नही था ताकि सेना का मनोबल और साहस इतना कम हो जाए कि पाकिस्तान आर्मी द्वारा तख़्ता पलट नेहरु के ख़िलाफ़ ना हो ।नेहरु को ये ये भय था कि पाकिस्तान से प्रेरणा लेकर कहीं सेना द्वारा तख़्ता पलट ना कर दिया जाय।इस अवधारणा को तमाम रिपोर्ट्स से समर्थन मिलता है। अंतरराष्ट्रीय टाइम पत्रिका ने युद्ध पर अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि “भारतीय सैनिकों के पास साहस के अलावा हर चीज़ की कमी है।” भारत की सेना की इस साधनहीन अवस्था के जिम्मेदार कौन थे, प्रधानमंत्री नेहरू और सोवियत संगठन KGB के पेरोल पा रखे गए वामपंथी झुकाव वाले उनके प्रिय रक्षामंत्री मेनन के अलावा ? आज़ादी के बाद कई बार तीनों सेनाओं के प्रमुख सेना की ज़रूरतों की सूची लेकर प्रधानमंत्री के कक्ष में जाते थे और सर झुकाए खाली हाथ लौट आते थे।(1962 में भारतीय सेना की स्थिति को दर्शाता एक चित्र इस पोस्ट के साथ संलग्न है)
अपने सबसे विश्वस्त सलाहकार वेंगालिल कृष्णन कृष्णा मेनन (वीके कृष्ण मेनन) को नेहरू ने 1957 में रक्षा मंत्री नियुक्त किया।मेनन की सेनाध्यक्ष केएस थिमैय्या से नहीं बनी।जनरल का मानना था कि देश की चीन से लगती सीमा मज़बूत होनी चाहिए क्योंकि असली ख़तरा वहीं से है। वहीं, मेनन की सोच थी कि देश को असली ख़तरा पाकिस्तान से है। थिमैय्या सेना के आधुनिकीकरण की बात सोच रहे थे।वे .303 बोर एनफील्ड राइफल को हटाकर बेल्जियन एफ़एन4 ऑटोमेटिक राइफल लाना चाहते थे।जानकारों के मुताबिक मेनन इस पर राजी नहीं थे।उनका कहना था वे देश में नाटो के हथियार देश में नहीं आने देंगे।
अब हाल के वर्षों में सेना का आधुनिकीकरण किया जाने लगा, हिंदुस्तान की सीमाओं पर रोड बनाए जाने लगा, ख़ासकर लद्दाख़ में दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी (DS-DBO) रोड बनने के बाद गलवान घाटी में हम चीन से बीस हो गए हैं ।दौलत बेग ओल्डी में एयर स्ट्रिप और आर्मी बेस बनने के बाद चीन की स्थिति LAC पर बहुत नाज़ुक हो चुका है। चीन इसी वजह से बौखला गया है। क्योंकि चीन के ज़ेहन में 1962 के हिंदुस्तान का पिक्चर चिपका है और पिछली सरकारों द्वारा किसी भी प्रकार का रुचि ना लेने से चीन मान लिया था कि सीमा क्षेत्रों में विकास कर पाना हिंदुस्तान के बस का नही है! अब जब गलवान घाटी में हिंदुस्तान चीन पर ऊन्नीस पड़ा है तो चीन बहुत चालाकी से साइकोलॉजिकल युद्ध में लग गया है जिससे भारतियों को डराया जा सके, ये जो मीडिया में ड्रामा, आर्टिकल, ट्विटर पर चीन की प्रोपेगेंडा मशीनरी सब उसी गेम का पार्ट है। मगर दुर्भाग्य इस बात का है कि हिंदुस्तान के लेफ़्ट-लिबरल और अर्बन नक्सल्स जैसे चाइनीज़ दलाल इस साइकोलॉजिकल युद्ध में चीन का साथ दे रहे हैं।
मेरा देश बदल रहा है, ये पब्लिक है, सब जानने लगी है … जय हिंद-जय राष्ट्र!