उद्योगपतियों की लूटपाट, चीन के साथ कम्युनिस्टों की वफादारी और सरहद पर लड़ती सेना

दयानंद पांडेय

भारत के उद्योगपतियों ने अगर देश के अपने उपभोक्ताओं के साथ गद्दारी न की होती , उपभोक्ताओं को सिर्फ लूट का कारखाना न माना होता और बनाया होता तो चीनी सामानों के बहाने हर साल देश का अरबो रुपए चीन की तिजोरी में न जाता कभी। जब तक देश के उद्योगपति लूट-पाट का कारखाना बंद कर, अपने उपभोक्ताओं को चीन से भी सस्ता लेकिन टिकाऊ सामान नहीं उपलब्ध नहीं करवाते, दवा हो या इलेक्ट्रानिक या प्लास्टिक आदि सामान, आप चीन को व्यवासायिक स्तर पर नहीं पीट सकते। जब तक भारत के कम्युनिस्टों की वफादारी चीन के साथ रहेगी, चीन को विभीषण सुख मिलता रहेगा। एक नैतिक ताक़त भी। नहीं, हम कांग्रेस की बात नहीं कर रहे। एक मृतप्राय पार्टी का एक लतीफा कुमार की देश में कोई हैसियत नहीं रह गई है। कांग्रेस को वैसे भी सत्ता से इतना इश्क है कि वह युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज है, मुहावरे को बारंबार सिद्ध करती हुई पतन के पाताल लोक में प्रविष्ट हो चुकी है। फिर आप कहेंगे कि कम्युनिस्टों की हालत तो कांग्रेस से भी गई गुज़री है। बिलकुल ठीक बात है।

कम्युनिस्टों की हालत चुनावी लोकतंत्र में प्राय: समाप्त है। संसदीय लोकतंत्र में उन का यक़ीन भी नहीं है। तानाशाही और हिंसा में यकीन रखते हैं वह। लेकिन कम्युनिस्टों का जो सांस्कृतिक, पत्रकारीय और साहित्यिक फ्रंट है, वह अफवाह फ़ैलाने में, निगेटिव नैरेटिव रचने और निगेटिव माहौल बनाने में बहुत मज़बूत है। तो इस मोर्चे पर मोदी सरकार पूरी तरह फिसड्डी है। नेहरू भी इस मोर्चे पर फिसड्डी थे। 1962 में चीन से पराजित होने के बाद कम्युनिस्टों की तरफ अपनी भृकुटि टेढ़ी की थी पर जल्दी ही वह विदा हो गए। फिर इंदिरा गांधी ने संघियों से लड़ने के लिए कम्युनिस्टों को अपना बगल बच्चा बना कर आहिस्ता-आहिस्ता कांग्रेस के पेरोल पर रख लिया। इंदिरा मंत्रिमंडल में तत्कालीन शिक्षा मंत्री नुरुल हसन ने इस में मुख्य भूमिका अदा की। सभी शिक्षण संस्थाओं, अकादमियों, समितियों में वामपंथियों की भर्ती युद्धस्तर पर की। जे एन यू, रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब, रामचंद्र गुहा आदि इसी दौर की पैदावार हैं। नफ़रत, हिंसा, और तानाशाही का बिरवा रोप कर भारतीय संस्कृति को रौंदने और निगेटिव बनाने का खेल शुरू हुआ, जो आज भी मुसलसल जारी है।

राजीव गांधी के कार्यकाल में अर्जुन सिंह ने इन निगेटिव तत्वों को खुल कर पैसा देना शुरू किया। इस के बाद ही से कम्युनिस्ट लेखक, इतिहासकार, संस्कृतिकर्मी खुल कर कांग्रेस की कुत्तागिरी करने लगे। तरुण तेजपाल, बहल, प्रणव रॉय, विनोद दुआ, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई आदि की नागफनी सामने आई। लेखकों में, संस्कृतिकर्मियों में खूब पैसा बंटा। सरकारी कुर्सियों पर बैठाए गए। इनाम, इकराम, विदेश यात्राएं और सत्ता सुख का प्रसाद बांटा गया। अब यह लोग पूरी तरह अल्सेशियन बन चुके थे। माइंड सेट तो था ही सेक्यूलरिज्म का एक पट्टा भी गले में पहना दिया कांग्रेस ने। क्विंट, वायर, कारवा जैसी चीज़ें भी इसी बीच हुईं। चीन की ऊष्मा भी, वामपंथ के नाम पर मिलने लगी। तभी तो नक्सली हिंसा में मारे जाने वाले सुरक्षा बलों के जवानों के प्रति श्रद्धांजलि नहीं, जश्न मनाने लगे यह लोग। हर घर से अफजल निकालने का नारा लगाते-लगाते भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्ला, इंशा अल्ला तक आ गए। बात यहीं कहां रुकी?

देश के हर पॉजिटिव काम में नुक्स निकालने का ठेका ले लिया इन लोगों ने। सेना को बलात्कारी बताने लगे। चुनाव आयोग पर ई वी एम का दाग लगाने लगे। सी बी आई को नचाने लगे। सुप्रीम कोर्ट को भी अपनी जद में लेने की कोशिश की। जेएनयू, जामिया मिलिया करते-करते शाहीन बाग़ करने लगे। सीएए के बहाने देश जलाने लगे। कोरोना के बहाने मज़दूरों को भड़काने और भगाने लगे। जनविद्रोह की पूरी तैयारी थी। पर गर्भपात हो गया, इस जनविद्रोह का। अब चीन का जाल सामने है तो इन की फिर बल्ले-बल्ले है। एक से एक खुराफाती सवाल है। अजब-गज़ब सूचनाएं। चीन को नहीं, मोदी से नफरत के बहाने देश को घेरने की सारी कवायद आप के सामने है। समझना हो समझिए। नहीं, आंख बंद कर सो जाइए। विभीषण की सहिष्णुता का सुख लीजिए। चीन की चाटुकारिता में घुटने टेके कम्युनिस्टों की बलैया लीजिए! इस लिए भी कि किसी भी जंग में सरहद पर भले सेना लड़ती है लेकिन भीतर से समूचा देश लड़ता है। सेना के साथ खड़ा ही नहीं, उस पर अटूट विशवास भी करता है। सैनिक जानता है कि हमारे पीछे पूरा देश, पूरी मनुष्यता खड़ी है। हम पर कुछ आंच आई भी तो हमारा देश देख लेगा। उस का मनोबल बढ़ा रहता है। लेकिन जब अफजल के पैरोकार, विभीषण सुख देने को लालायित लोग सेना पर ही सौ सवाल लेकर पिल पड़ें तो?

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