-पवन सिंह
किसी दुश्मन देश की कमर तोड़नी हो तो दो काम करना चाहिए, पहला यह कि उसकी अर्थव्यवस्था को चिटका दें और दूसरा उस देश के अंदर की समरसता को कमजोर कर दें…वह देश घुटनों पर होगा। चीन की ताकत उसकी सशक्त अर्थव्यवस्था रही है और विगत दस सालों में आर्थिक विकास के मद में बौराया चीन अपने हर पड़ोसी को धमका रहा है और पूरे साउथ चाइना पर एकाधिकार चाहता है। उसकी इस मंशा का असल रोड़ा भारत है। भारत से चीन के व्यापारिक रिश्ते ऐसे हैं कि उसने आयात-निर्यात में ही असुंतलन नहीं रखा बल्कि तमाम भारतीय उद्योगों को खा गया। हमारे देश के 20 जवानों की शहादत पर चंद दो दिनों से कुछ व्यापारियों और कुछ लोगों का राष्ट्रवाद उबालें मार रहा है। घर में पड़े चार खराब चाइनीज़ फोन सड़क पर पटक कर चीन को उसकी औकात बता रहा है। चेहरा “बमबम चैनलों” पर चमक गया और हो गया विरोध। संक्षिप्त में कुछ सच्चाई से अवगत कराने की जरूरत है। चीन ने सबसे बड़ा झटका भारतीय मोबाइल और इलेक्ट्रॉनिक उद्योग को दिया है। मुझे तो यह कहना चाहिए कि उसने तबाह कर दिया है।
मुझे यह कहने में किंचित्मात्र भी गुरेज नहीं है कि हमारा राष्ट्रीय नेतृत्व इस पूरी तबाही को नंगी आंखों से देखता रहा है। ताज़ा उदाहरण है शंघाई टनल कारपोरेशन का। जब दोनों देशों की सेनाएं सीमा पर आमने-सामने हैं तो चीन की इस बडी कंपनी को मेरठ-दिल्ली सुरंग निर्माण का 1126 करोड़ का ठेका दे दिया गया। चीन की दस बड़ी मोबाइल कंपनियों ने भारत की तीन कंपनियों की फैक्ट्रियों को धूलधूसरित कर दिया। वर्ष, 2014 जुदाई में श्याओमी कंपनी ई-मार्केट प्लेस फ्लिप्कार्ट के जरिए भारत में घुसती है और 2015 में ही भारत में अपना प्रोडेक्शन आरंभ कर देती है। वर्ष, 2014 जनवरी, में ही एक अन्य कंपनी लेनोवो आती है और भारतीय कंपनियों को हिला देती है। इस कंपनी ने कुछ साल पहले गूगल से उसका ब्रांड मोटोरोला खरीद लिया था। इसके बाद ओप्पो आती है और ग्रेटर नोएडा में अपना प्लांट लगाती है। फिर वीवो आती है और तमिलनाडु में प्लांट लगा देती है। इसके बाद बैंगलूरू में अपना एक रिसर्च सेंटर खोल देती है। फिर जियोनी फरीदाबाद में, वन प्लस नोएडा में, कूलपैड औरंगाबाद में अपनी-अपनी फैक्ट्रियां लगा देती हैं। जोपो मोबाइल और दूरसंचार के उपकरण बनाने वाली कंपनी ZTE गुड़गांव में प्लांट लगा देती हैं।
आज चीन की इन कंपनियों का भारत के विशालकाय मोबाइल बाजार के 80 फीसदी हिस्से पर कब्जा है। चीन सरकार एक सोची-समझी रणनीति के तहत इन कंपनियों को जबरदस्त पैकेज मुहैय्या कराती है ताकि उत्पाद भारतीय कंपनियों के मुकाबले सस्ते रहें। यह कंपनियां भारत आती हैं और फिल्मी दुनियां व क्रिकेट की हस्तियों से प्रचार करवा कर मार्केटिंग करवा कर पूरा बाजार हथिया लेती। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय कंपनी इंटेक्स इन दैत्याकार और चीनी सरकार से सुविधा प्राप्त कंपनी से नहीं लड़ पाई और बैठ गई। इंटेक्स को कसाना के 20 एकड़ के अपने प्लांट को बंद करना पड़ा। माइक्रोमैक्स, लावा और कार्ब़न कंपनियों की हिस्सेदारी मात्र 5 से 7% पर सिमट कर रह गई। भारत का खिलौना उद्योग चीन कच्चा चबा गया।चीन के द्वारा सबसे ज्यादा नुकसान भारत के खिलौना उद्योग को हुआ है| चाइनीज खिलौनों की लागत इतनी कम है कि कोई भी भारतीय कम्पनी चीन की प्रतियोगिता का मुकाबला नहीं कर सकती| पिछले साल भारतीय खिलौनों के केवल 20% बाजार पर भारतीय कंपनियों का अधिकार था बाकी के 80% बाजार पर चीन और इटली का कब्ज़ा था| एसोचैम के एक अध्ययन के अनुसार पिछले 5 साल में 40% भारतीय खिलौना बनाने वाली कम्पनियां बंद हो चुकी है और 20% बंद होने की कगार पर हैं|
चीन के साथ भारत का आयात-निर्यात भी देख लें। चीन के साथ भारत का व्यापार 2017-18 में 89.71 बिलियन डॉलर से घटकर 2018-19 में US$87.07 बिलियन हो गया। चीन से भारत का आयात 2018-19 में US$70.32 बिलियन डॉलर था जबकि भारत का चीन को निर्यात 2018-19 में US$ 16.75 था. इस तरह से 2018-19 में चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा US$53.57 पहुंच गया। 2015-16 के वित्त वर्ष में भारत का चीन को निर्यात $2,390 मिलियन था जो कि भारत के कुल निर्यात का केवल 3.59% था|दूसरी तरफ चीन की तरफ से भारत को निर्यात $14,704 मिलियन था,जो कि भारत के कुल आयात का 15% था| चीन ने भारत के इलेक्ट्रॉनिक उद्योग की भी कमर तोड़ के टुकड़े कर डाले हैं। बल्ब और तरह-तरह की एलईडी लाइट्स, टार्च, स्विच बोर्ड आदि से भारत का बाजार भरा हुआ है। यही नहीं, भारत के पूरा फार्मा उद्योग 70% तक चीन से आयातित रसायन पर टिका है। हमारे नेतृत्व ने कभी इसका विकल्प ही नहीं तलाशा।
अब एक अन्य तकनीकी पहलू पर आते हैं वह है WTO के नियम।‘डब्ल्यूटीओ के नियमों के अनुसार कोई भी देश आयात पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लगा सकता। चाहे उस देश के साथ हमारे राजनयिक,क्षेत्रीय या सैन्य समस्याएं क्यों न हो…. अब ऐसे में हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान और राष्ट्रीय नेतृत्व का कैरेक्टर सामने आता है। वह ऐसे कि भारत सरकार भारतीय उद्योगों का संरक्षण उसी तरह करें जैसे चीन करता है और हम भारतीयों का कर्त्तव्य बनता है कि हम अपने देश के ही उत्पाद खरीदें।… लेकिन हमारे यहां ज्वार-भांटा टाइप का राष्ट्रवादी उबाल आया है और वह चैनलों की चूं-चांय में निपट जाता है। क्या मैं यह पूछ सकता हूं कि देश के जितने भी व्यापारी हैं उनकी दुकानों में वा गोदामों में जितना भी चाइनीज़ माल भरा है वह उसे सड़क पर लाकर जला सकते हैं? … यकीन मानिए दो चार को छोड़कर कोई नहीं करेगा। घर में पड़े चार पुराने खराब मोबाइल सड़क पर पटक कर चैनलीय राष्ट्रवाद ऐसा ही होता है….. भारत के व्यापारी अगर चीन से माल मंगाना बंद कर दें और नागरिक खरीदना तो WTO के डब्लू चाचा भी कुछ नहीं कर सकते…. लेकिन यह होगा नहीं। शेष जो हो रहा है वह सामने है।