वयं राष्ट्रे जागृयाम।(41)
-विवेकानन्द शुक्ला
अमेरिका में भारतीय दूतावास के बाहर लगी गांधीजी की प्रतिमा पर लेफ़्ट-लिबरल्स द्वारा पेंट पोतने की शर्मनाक घटना घटी है। ज़ाहिर है कि आज भी ये गांधी को पसंद नहीं करते। मैं हमेशा से कहता हूँ कि लेफ़्ट-लिबरल-कम्युनिस्ट-जिहादियों का गांधी प्रेम केवल दिखावा है और जनता को मूर्ख बनाने का तरीक़ा है! अमेरिका में हो रहे हिंसक आंदोलन में अमेरिका के भारतीय दूतावास के बाहर लगी गांधीजी की प्रतिमा को ग्राफिटी और स्प्रे पैंटिंग से बिगाड़ दिया गया है। अमेरिका में लेफ़्ट-लिबेरल-डेमोक्रेट्स द्वारा शुरू किया प्रदर्शन हिंसक स्वरूप ले लिया है। अहिंसा के इस पुजारी के सामने से हिंसक लोगों की भीड़ निकली थी। अमेरिका के भारतीय दूतावास के बाहर लगी गांधीजी की प्रतिमा को ग्राफिटी और स्प्रे पैंटींग से बिगाड़ दिया गया है। आठ फूट ऊंची कांसे की इस प्रतिमा में गांधीजी हाथ में लाठी लिए चलते से दिखते है। 16 सितम्बर, 2000 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इसका अनावरण किया था। डिजाईनर गौतम पाल ने भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के लिये इसको बनाया था।
आज जब सभी लोग इनकी असलियत जानने लगे हैं। निश्चित तौर पर मार्क्सवादी-माओवादी हाशिए पर खड़े हैं, इनके हिंसा और राष्ट्र के विरुद्ध अराजकता फैलाने के हथियार किसी काम के नहीं रहे। अब इन्हें गांधी के सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह ही वे हथियार दिख रहे हैं जिनके माध्यम से ये अपनी खोई हुई शक्ति पाने, नई शक्ति बनाने के लिए उतावले हैं। आजकल अचानक उपजा गांधी-नेहरु भक्ति ठीक वैसे है जब घरों की सफ़ाई होती है तो ज़हरीली छिपकलियाँ महापुरुषों के टंगे फ़ोटो के पीछे छिप जाती हैं! कम्युनिस्ट वामपंथियों के दिल में गांधी के लिए कितना ज़हर भरा है, आइए इसकी पड़ताल करते हैं…
हिंदुस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी ओफ इंडिया की स्थापना 1925 में होने के पहले से ही गांधी के बारे में इनकी राय बेहद घटिया थी। कम्युनिस्ट दृश्टिकोण से गांधी की आलोचना करने वाले पहले कम्सुनिस्ट लेखक एम एन राय ने 1922 में प्रकाशित पुस्तक इण्डिया इन ट्रान्सीशन में गांधीजी को सामन्तवादी तत्वों के स्वार्थसाधक के रूप में प्रस्तुत किया है। एक अन्य कम्युनिस्ट लेखक रजनीपामदत्त ने 1927 में प्रकाशित अपनी पुस्तक माडर्न इण्डिया में कहा कि गांधीजी स्वयं को उच्चवर्गीय स्वार्थ और पूर्वाग्रहों से दूर नहीं रख सके। दत्त के अनुसार गांधीजी कर नेतृत्व छोटे बुर्जुआ बुद्धिजीवी वर्ग का है। 1939 में कम्युनिस्ट लेखक रजनीपामदत्त ने गांधीजी के विषय में घोषित किया कि भारत में उन सबके लिए जो तरूणाई और विवके के पक्ष में है, गांधी का नाम अभिशाप और धृणा का द्योतक है। 1942 में रजनीपामदत्त ने गांधीजी को भारतीय राजनीति की ”शांतिवादी दुष्ट प्रतिभा ” के नाम से सम्बोधित किया (इण्डिया : व्हाट मस्ट बी डन” लेबर मंथली अंक 24 सितम्बर 1942)।
स्वतंत्रता संग्राम में भी जहां असहयोग आंदोलन देश में फैल रहा था और लोग इस आंदोलन में अपने आप को शामिल कर रहे थे, तब कम्युनिस्टों ने इस आंदोलन को क्रांतिकारी शक्तियों के साथ विश्वासघात बताया।वामपंथी यहीं पर नहीं रुके,उन्होंने आगे गांधी जी पर फिर हमला किया।सविनय अवज्ञा आंदोलन को वामपंथियों ने बेकार का युद्ध बताया।इतना ही नहीं, 1942 के आंदोलन में वे ब्रिटिश सरकार के गुप्त एजेंट व मुखबिर बन गये।स्टालिन हमेशा से गांधी जी को अपने पथ की बाधा के रूप में देखता था. इसका प्रमाण रूसी विश्वकोष के पहले संस्करण (1929) तथा दूसरे संस्करण ( 1952) से मिलता है।
धर्म और राजनीति में एकात्म्य की प्रतिष्ठा करने वाले महात्मा गांधी का भी इनके बारे में अच्छा मत नही था।गांधी कहते थे कि देश की निर्धनता को दूर करने का मार्ग ”मार्क्सवाद” कदापि नहीं हो सकता। साध्य और साधन की शुचिता पर, जिसका कम्युनिस्ट भारी विरोध करते है, गांधीजी ने बहुत जोर दिया था।महात्मा गांधी का चिंतन अत्यंत ही सुस्पष्ट था उन्होने कम्युनिस्टों को खूनी और दुर्दान्त हिंसक बताकर उनकी निंदा करते हुए कहा है कि– मेरा रास्ता साफ है, हिंसात्मक कामों में मेरा उपयोग करने के सभी प्रयत्न विफल होगें, मेरा एक ही शस्त्र है- अहिंसा। ”बोलशेविज्म” के बारे में उन्होने कहा था कि रूस के लिए यह लाभप्रद है या नहीं मैं नहीं कह सकता किंतु इतना अवश्य कह सकता हूं कि जहां तक इसका आधार हिंसा और ईश्वर विमुखता है, यह मुझे अपने से दूर ही हटाता है।
कम्युनिस्टों के घृणित हथकण्डों से अत्यंत पीड़ित होने के बाद हरिजन 6 अक्टूबर 1946 के अंक में उन्होने कहा कि मालूम होता है कि साम्यवादियों ने बखेड़े खड़े करना ही अपना पेशा बना लिया है, वे न्याय-अन्याय और सच-झूठ में कोई फर्क नहीं करते। ऐसो प्रतीत होता है कि वे रूस के ओदशों पर काम करते है क्योंकि वे भारत की बजाय रूस को अपना आध्यात्मिक घर मानते है। मैं किसी बाहरी शक्ति पर इस तरह निर्भर रहना बर्दाश्त नहीं कर सकता। 1948 में महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद, कम्युनिस्टों ने गांधीजी के नाम का उपयोग करने के लिए नया और अपनी पिछली घोषणाओं तथा मान्यताओं के विपरित रूख अख्त्यार किया ताकि वे गांधीजी के नाम को अपनी रणनीति का पुर्जा बना सके।वामपंथी लेखकों द्वारा अब गांधी जी को लेकर जो लेख लिखे जाते हैं, लगता है मानो वे गांधी जी के सर्वश्रेष्ठ अनुयायी हैं…।
मानव इतिहास में व्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण करने वाले जितने निरंकुश,हिंसक और वहशी तानाशाहों का उल्लेख आज तक हुआ है उन सब में कम्युनिस्ट शासकों का जोड़ मिलना असंभव है। समाज के आर्थिक ढ़ांचे पर आंख गड़ाते हुए नागरिकों के आपसी झगड़ों की आग भड़काना, प्रत्येक स्तर पर वर्ग स्वार्थो के संघर्ष उभाड़ते हुए जनता को नेतृत्वविहीन करना, प्रक्षोभक प्रसंगों में अशांति, अव्यवस्था, हत्या, लूट, तोड़फोड़ के षडयंत्र रचकर जनजीवन को आतंकित करना और अंत में राक्षसी अट्टहास के साथ सैन्यशक्ति के बल पर पार्टी अधिनायकवाद स्थापित करना कम्युनिस्टों की रीति-नीति के जाने-पहचाने कदम है।
मेरा देश बदल रहा है, ये पब्लिक है, सब जानने लगी है… जय हिंद-जय राष्ट्र!