-राघवेन्द्र प्रताप सिंह
लखनऊ : पिछले दिनों महाराष्ट्र और गुजरात के बॉर्डर पर स्थिति एक छोटा सा जिला पालघर अचानक राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आ गया। पालघर वही जिला है जहां बीते दिनों दो साधुओं त्रयम्बकेश्वर दक्षिणमुखी हनुमान मंदिर के महंत कल्पवृक्ष महाराज उनके साथी महंत सुशील गिरी महाराज की हत्या कर दी गई थी। इस घटना में ही साधुओं के वाहन चालक नीलेश तेलगड़े की भी हत्या हो गई थी। उसे भी लाठी डंडे से पीट-पीट कर 16 अप्रैल 2020 को पालघर जिला स्थित गढ़चिंचले गांव में साधुओं सहित निर्ममता से मार दिया गया था। अब सवाल उठता है कि इन हिन्दू साधुओं की हत्या को लिंचिंग माना जायेगा या नहीं? यह हत्याकांड बहुत से सवाल खड़े करता है। सेक्युलर विचारधारा सहित अवार्ड वापसी खेमा, बात- बात में देश में इंटॉलरेंस की बात करने वाले इस लिंचिंग पर खामोश क्यों हैं? दोनों संत श्री पंच दशनाम अखाड़ा, वाराणसी से संबंधित थे। रात के समय की गई इस हत्या में लिप्त व्यक्तियों को 17अप्रैल, 2020 को गिरफ्तार किया गया। दिल दहला देने वाली इस घटना का वीडियो 19 अप्रैल को सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। पर हैरानी की बात है कि आमतौर पर मोमबत्ती-पोस्टर लेकर रास्ते पे हंगामा खड़ा करने वाले उदारवादी, वामपंथी, इस्लामी और जेएनयू खेमा कहीं भी सड़क पर धरना देते या कैंडिल जलाते नजर नहीं आया।
सोचिए! पालघर में संतों की लिंचिंग जैसी घटना अगर किसी अन्य समुदाय के साथ घटी होती तो क्या आज इस तरह की शांति देखने को मिलती ? मुझे लगता है नहीं …ऐसे में सवाल उठता है कि क्या साधुओं की हत्या पर इस विचारधारा को मानने वालों की अंतरात्मा जागृत नहीं होती? महाराष्ट्र के पालघर जिले के ऐसे कुछ इलाके हैं, जहाँ प्रायः कोंकणा, वारली और ठाकुर जनजाति के लोग रहते हैं। आधुनिक विकास से वंचित इन दूरदराज के गॉंवों में कई वर्षों से क्रिश्चियन मिशनरी और वामपंथियों ने अपना प्रभाव क्षेत्र बनाया हुआ है। ज्ञात हो कि हाल ही के कुछ वर्षों में वामपंथी और मिशनरी प्रभावित जनजाति प्रदेशों में जनजाति समुदाय के मतांतरित व्यक्तियों द्वारा अलग धार्मिक संहिता की माँग होती रही है। उन्हें बार-बार यह कह कर उकसाया जाता रहा है कि उनकी पहचान हिन्दुओं से अलग है।
भारत में ब्रिटिश राजकर्ताओं द्वारा विभाजन की राजनीति के चलते जनजातियों के लिए जनगणना में सरना नामक अलग धार्मिक संहिता का प्रावधान सन 1871-1891 के दौरान किया गया था। स्वतंत्रता के बाद सन 1951 में की गई, जनगणना से उसे हटाया गया। लेकिन, वामपंथी और ईसाई षड्यंत्रकारियों ने आदिवासी या मूलनिवासी जैसी संज्ञाएँ जनजातियों के लिए गढ़ कर उनमें अलगाव का भाव उत्पन्न करने के लिए प्रयास इनके द्वारा किया गया। इसी के परिणामस्वरूप जनजातियों में कुछ मतांतरित लोगों ने हिंदू धर्म को द्वेष भावना से देखना शुरू किया। कुछ वर्षों से पालघर जिले के जनजाति समुदाय के कुछ व्यक्तियों में भी इस द्वेष भाव को उत्पन्न किया गया है। ऐसे परिणामों की चिंता ध्यान में रखते हुए क्रिश्चियन मिशनरी गतिविधियों पर नियोगी समिति की रिपोर्ट (1956) ने धर्मान्तरण के कानूनी निषेध की सिफारिश की थी। लेकिन कुछ कारणों के चलते इसे लागू नहीं किया जा सका।
याद रखिये इन्हीं क्रिश्चियन मिशनरी और चरमपंथी साम्यवादी विचारों वाले नक्सली गिरोह ने स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या 23 अगस्त 2008 को जन्माष्टमी के दिन कर दी थी। 16 अप्रैल, 2020 को दो साधुओं और उनके वाहनचालक की क्रूर हत्या इसी विकृत मानसिकता को दर्शाती है। वाहन चालक नीलेश तेलगड़े के साथ कल्पवृक्ष गिरी महाराज और सुशील गिरी महाराज अपने गुरुबंधु की अंत्येष्टि में शामिल होने गुजरात में सिलवासा जा रहे थे तभी कासा पुलिस चौकी के पास गढ़चिंचले गाँव वालों ने उन्हें रोका और मारने पीटने लगे…. पास ही में स्थित फारेस्ट चौकी में मौजूद गार्ड ने उन्हें अपनी चौकी में आश्रय दिया और पुलीस को फोन किया। गढ़चिंचले गाँव से कासा पुलीस चौकी का अंतर 40 किलोमीटर का है। कम से कम पुलिस को पहुँचने में आधा घंटा तो लगेगा ही आखिर तब तक हिंसक भीड़ ने उनकी हत्या क्यों नहीं की? पालघर में संतों की लिंचिंग के वीडियो से स्पष्ट पता चलता है कि वे वृद्ध साधु पुलिस का हाथ पकड़कर चल रहे हैं और पुलिस उन्हें भीड़ के हवाले कर देती है। क्या यह सुनियोजित साजिश नहीं है ? क्या भगवा वस्त्रधारी साधुओं को जान से मारने के लिए भीड़ को कोई उकसा नहीं रहा था ? अब फिर सवाल उठता है कि उन साधुओं को बचाने के लिए पुलिस ने हवा में गोलीबारी या पैरों पर गोली चलाकर भीड़ को भगाने का प्रयास क्यों नहीं किया ? मन व्यथित कर देने वाली इस घटना को देखकर ऐसे कई सवाल खड़े होते हैं।
पालघर घटना को लेकर एक वामपंथी संगठन पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टीज (PUCL) ने 23 अप्रैल को अपने एक रिपोर्ट में लिखा है कि पालघर में वन विभाग के वाॅच मैन ने आत्महत्या कर ली। यह वही व्यक्ति था जो पालघर में सन्तों के रोके जाने से लेकर मारे जाने तक पूरे प्रकरण का प्रत्यक्षदर्शी था। वह एक ऐसा व्यक्ति था जिसे पुलिस की भूमिका की भी जानकारी रही हो और षड्यंत्रकारियों की भी जानकारी हो। वह सन्तों को तीन घंटे बंधक बनाए जाने के दौरान की प्रत्येक घटना का प्रत्यक्षदर्शी था। महाराष्ट्र सरकार ने इसकी जानकारी सार्वजनिक क्यों नहीं की? उसने आत्महत्या की या षड्यंत्रकारियों को बचाने के लिए उसकी हत्या कर दी गई…. ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न खड़े होते हैं। पालघर में सन्तों की हत्या के पांचों मुख्य अभियुक्त जयराम धाक भवर,महेश सीताराम रावते, गणेश देवजी राव,रामदास रूप जी असारे,और सुनील सोमा जी रावते, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के कार्यकर्ता हैं।
ये पांचों अभियुक्त पांच अलग-अलग गांव के हैं। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे अकस्मात् इकट्ठा हो गए। ऐसे में संदेह पैदा करता है कि यह बर्बरता सुनियोजित रूप से की गई हो। हो सकता है कि सन्तों की गाड़ी रोकने के बाद उन्हें और पुलिस को एक साथ सूचना देकर बुलाया गया हो। सन्तों को रोकने के लिए वन विभाग के बैरियर का उपयोग किया गया हो । पुलिस वन विभाग की चौकी से दोनों साधुओं को निकालकर भीड़ को सौंप देती है जो खुद एक संदेह पैदा कर रहा। घटना के समय एनसीपी का जिला पंचायत सदस्य काशीराम चौधरी और दो अन्य जिला पंचायत सदस्य वहाँ उपस्थित थे और कहा जाता है कि गलतफहमी में घटना हो गई । उन अपराधियों का कष्टकारी नामक ईसाई एनजीओ से क्या सम्बन्ध है? कष्टकारी एनजीओ प्रमुख सीराज बलसारा अपराधियों की जमानत का प्रयत्न क्यों कर रहा है?
पूरे देश में वामपंथ और चर्च की सांठगांठ जग जाहिर है। चाहे झारखंड हो, छत्तीसगढ हो, महाराष्ट्र हो या आन्ध्र प्रदेश जहाँ-जहाँ नक्सलवादी, माओवादी गतिविधियाँ बढ़ती हैं वहाँ-वहाँ चर्च अपना धर्मान्तरण का खेल खेलता है। पालघर की घटना में वामपंथ और चर्च की सुनियोजित सांठगांठ का ही परिणाम नजर आ रहा है। ऐसा सुनने में आ रहा है कि इस षड्यंत्र का मुख्य रचनाकार सीपीएम विधायक कामरेड विनोद निकोलय है। चर्चा यह भी है कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे एनसीपी और कांग्रेस के दबाव में इस घटना को ढ़कने का प्रयत्न कर रहे हैं। पूरे प्रकरण में महाराष्ट्र सरकार की भूमिका भी संदिग्ध नजर आ रही है, अतः इस घटना की सीबीआई और एनआईए द्वारा निष्पक्ष जांच करा कर इसकी सच्चाई को सामने लाया जा सकता है। विचारधारा और धर्म के नाम पर हत्याएं या अपराध किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हैं, फिर यह चाहे हिंदुओं की हो या सिख या मुसलमान की…. सिविल सोसायटी की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह ऐसे मामलों में निष्पक्ष होकर मुखर विरोध करे।