आज हम जिस 71वें गणतंत्र का उत्सव मना रहे हैं, उसे अलंकृत करने, आकार देने और मजबूत करने में हमारे पूर्वजों ने अपनी शहादत दी। ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’, अपने इस वायदे के तहत देश को आजादी दिलाने वाले महानायक सुभाष चंद्र बोस उनमें से एक रहे हैं। आजादी के सिपाही का जीवन वैसे तो वीरता के किस्सों के साथ याद किया जाता है लेकिन संघर्ष के साथ जीवन रहस्यों के लिए तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस का ही नाम आता है। आइए, उनके 123वें जन्मदिन पर उनके जीवन के रहस्यों से करते हैं उनके अपनों द्वारा साक्षात्कार…
क्या आप जानते हैं?
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी, ये सबको मालूम है लेकिन बहुत कम लोगों का पता है कि इससे काफी पहले उन्होंने यूनीफॉर्म वॉलेंटियर कोर नाम से एक और फोर्स का गठन किया था। नेताजी शुरू से ही सैन्य अनुशासन में यकीन करते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने 1928 में कांग्रेस में यूनीफॉर्म वॉलेंटियर कोर का गठन किया था। नेताजी यूनीफॉर्म वॉलेंटियर कोर के जनरल ऑफिसर कमांडिंग थे। नेताजी वॉलेंटियर कोर के सदस्यों के साथ सुबह कोलकाता मैदान में लांग मार्च, ड्रिल, घुड़सवारी, बंदूकबाजी, कसरत इत्यादि करते थे। यह बिल्कुल सैन्य प्रशिक्षण जैसा था।
शुरुआती जीवन
उड़ीसा के कटक में आज ही के दिन 1897 में संपन्न बंगाली परिवार में जन्म हुआ। बचपन उड़ीसा में बीता। प्रारंभिक पढ़ाई के बाद दर्शनशास्त्र में स्नातक के लिए उन्होंने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया। देश को आजादी दिलाने के उनके लंबे सफर के बाद आज रहस्यों का अंतहीन सिलसिला कायम है। 2017 में केंद्र सरकार की ओर से भले ही उनकी मौत के कारणों को स्पष्ट कर दिया गया लेकिन ये फैसला उनके परिवार और उनसे जुड़े लोगों के मन और मस्तिष्क में दर्द के साथ कई सवाल भी छोड़ गया।
आइसीएस बने
1919 में ब्रिटेन गए और चौथे स्थान के साथ आइसीएस परीक्षा पास की। विदेशी सरकार के अधीन काम नहीं करने की इच्छा के चलते 1921 में इस्तीफा देकर स्वदेश वापसी।
पार्टी अध्यक्ष
1938 में कांग्रेस अध्यक्ष बने। 1939 के कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए भी वह चुनाव में खड़े हुए। महात्मा गांधी ने पट्टाभि सीतारमैया को खड़ा किया और चुनाव में सीतारमैया हार गए। कांग्रेस के असहयोग के चलते उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया।
आल इंडिया फारवर्ड ब्लॉक का गठन
22 जून, 1939 को इस संस्था का गठन किया। दो जुलाई, 1940 को गिरफ्तार कर कोलकाता के प्रेजीडेंसी जेल में रखा गया।
निर्वासन झेलना पड़ा
अफगानिस्तान के रास्ते सोवियत संघ पहुंचे। वहां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में स्टालिन से मदद मांगी लेकिन उसने इन्कार कर दिया। 1943 में सिंगापुर पहुंच आजाद हिंद फौज की कमान संभाली। जापान ने समर्थन दिया। 1945 में विमान दुर्घटना में मौत की खबर मिली।
23 जनवरी पर आती थी विशिष्ट टीम
1982 का मार्च महीना। लगभग आधी रात गुजर चुकी थी। व्हील चेयर पर एक बुजुर्ग को लेकर उनके कुछ शिष्य गेट के भीतर घुसे। भवन के पूर्वी उत्तरी हिस्से में तीन कमरे के सेट में बुजुर्ग रहने लगे। उनका सामान धीरे-धीरे एक माह तक आता रहा। छह माह बाद उनके नेताजी होने की चर्चाएं शुरू हुईं। ढाई साल घर में रहे लेकिन मार्च महीने की आधी रात की पलक भर झलक को छोड़ दिया जाए तो उन्हें किसी ने भी नहीं देखा। पड़ोसी जिले बस्ती की सरस्वती देवी ने ही उन्हें देखा था। सरस्वती देवी नेपाल राजघराने के गुरु परिवार से संबंधित थीं। साल में दो बार कोलकाता से विशिष्ट सदस्यों की टीम यहां आती थी। 23 जनवरी और दुर्गा पूजा में।
काली मां का चित्र देखकर ठहर गईं ललिता बोस
16 दिसंबर 1985 की रात में गुमनामी बाबा की मृत्यु हो गई। 28 दिसंबर 1985 को नेताजी की सगी भतीजी ललिता बोस मेरे घर रामभवन आई। ललिता ने ताला खोल कर पहला कमरा देखा तो अनमनी सी रहीं लेकिन भीतरी कमरे की दीवार पर काली मां का चित्र देख वह चौक गईं फिर ज्यों ही उन्होंने बक्सा खोला उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। बक्से में पुराने पत्र थे। ललिता बोस की निगाह रोलेक्स घड़ी, गोल फ्रेम चश्मा, पार्कर पेन, इंग्लैंड के टाइपराइटर पर भी पड़ी।
एक पत्र आजाद हिंद फौज की गुप्तचर शाखा के मुखिया डॉ. पवित्र मोहन राय का भी लिखा हुआ मिला। कोर्ट में केस हुआ। सूची बनाकर सभी सामान मालखाने में सुरक्षित रखे जाने का आदेश हुआ। 2760 वस्तुओं में से 425 आर्टिकल रामकथा संग्रहालय में रखे जा चुके हैं लेकिन अभी तक जनता के दर्शन के लिए उस गैलरी को खोला नहीं गया।
(अयोध्या (तब फैजाबाद) में रामभवन के स्वामी शक्ति सिंह से बातचीत पर आधारित, जहां गुमनामी बाबा ने जीवन के आखिरी ढाई साल बिताए।)