सबसे पहले तो इस ताजा सूचना पर गौर करें कि हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (HAM) के मुखिया जीतनराम मांझी (Jitan Ram Manjhi) रविवार को किशनगंज (Kishanganj) नहीं जाकर अचानक से रांची (Ranchi) जा रहे हैं। किशनगंज में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन (AIMIM) की रैली है, जिसके मुख्य वक्ता पार्टी के नेता असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) हैं। दूसरी ओर रांची में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के नेता हेमंत सोरेन (Hemant Soren) मुख्यमंत्री (Chief Minister) पद की शपथ ले रहे हैं।
ओवैसी की रैली में मांझी को मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाया गया था, जबकि रांची की महफिल में उन्हें बिल्कुल आखिरी क्षणों में न्योता भेजा गया। सवाल है कि मांझी का कार्यक्रम अचानक बदल कैसे गया? किशनगंज में क्या नुकसान था और रांची में क्या नफा है?
अंतिम समय में शपथ ग्रहण समारोह में रांची बुलाए गए मांझी
यह बात सभी को पता है कि रांची में हेमंत के शपथ ग्रहण की तैयारियां झारखंड के चुनाव नतीजे आने के कुछ ही दिन बाद शुरू हो गई थीं। शपथ ग्रहण कार्यक्रम में वहां की नई सरकार में शामिल होने जा रहे जेएमएम, कांग्रेस (Congress) और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के अलावा केंद्र में सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) विरोधी कई पार्टियों के नेताओं को भी आमंत्रित किया जा रहा था। इनका जमावड़ा आज रांची में दिख रहा है। इसे इत्तेफाक मानें या इरादतन, जीतनराम मांझी का नाम इन मेहमानों की सूची में शनिवार के दिन तक नहीं था। जाहिर है कि यदि आपको न्योता ही न मिला हो तो फिर इच्छा रहने के बावजूद आप किसी दावत या महफिल में जाएंगे तो नहीं।
मुस्लिम सियासत का नया दावेदार बनने की कोशिश में ओवैसी
लिहाजा मन मसोस कर ही सही, मांझी ने उन ओवैसी के मजमे का मुख्य अतिथि बनना स्वीकार कर लिया, जिनको लेकर बिहार में विपक्ष का महागठबंधन अभी दूरियां बनाए हुए है। दूरियां इसलिए, क्योंकि ओवैसी खुद को बिहार की मुस्लिम सियासत (Muslim Politics) के नये दावेदार के तौर पर पेश करने की जुगत में है। उनकी इस दावेदारी को दम तब से मिला है, जबसे उनकी पार्टी ने हालिया उपचुनाव में किशनगंज विधानसभा सीट जीत ली है। ऐसी उम्मीद है कि मुस्लिम बहुल किशनगंज में आज ओवैसी की रैली में ठीक-ठाक भीड़ भी जुटेगी। महागठबंधन (Grand Alliance) के आरजेडी और कांग्रेस जैसे घटक बिहार में मुस्लिम वोटों की इस दावेदारी से कुछ ज्यादा परेशान हैं। इन दलों के कुछ नेता तो उन्हें भाजपा का एजेंट तक बताने से भी गुरेज नहीं करते।
बिहार में ओवैसी के उभार को रोकना चाहते कांग्रेस व आज
ओवैसी के इस उभार में अलग-अलग प्रदेशों में कुछ नेता और पार्टियां अपना नुकसान तो कुछ अपना नफा भी देखती हैं। बिहार के संदर्भ में यदि आरजेडी या कांग्रेस ओवैसी के इस उभार को रोकना चाहेंगी तो मांझी की पार्टी जैसे छोटे दलों के नेता इसमें अपना हित देख रहे हैं। प्रदेश के जातीय और वर्गीय समीकरणों पर गौर करें तो मुस्लिम वोट के साथ किसी एक बड़ी जाति या वर्ग का जुड़ाव सत्ता की सीढ़ी को थोड़ा आसान बना देता है। विगत में लालू प्रसाद यादव (Lalu Prasad yadav) की अगुआई में माई (मुस्लिम-यादव) समीकरण की सफलता इसका उदाहरण है।
मुसलमानों व दलितों को साथ ले मजबूत हुए लालू-नीतीश
लालू ने मुस्लिम और यादवों के साथ दलितों को भी जोड़कर 15 साल तक राज किया। बाद में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने इस समीकरण को न सिर्फ कमजोर किया, बल्कि (BJP) के साथ मिलकर माई (MY) से बड़ा और व्यापक राजनीतिक आधार तैयार किया। नीतीश के इस राजनीतिक प्रयोग में निश्चित तौर पर दलितों की राजनीतिक ताकत भी स्थापित हुई। बड़ी संख्या में दलितों ने नीतीश का साथ दिया। नीतीश ने न सिर्फ महादलितों का एक नया मज़बूत वर्ग तैयार किया, बल्कि इस समाज के मांझी जैसे नेताओं को मुख्यमंत्री की कुर्सी तक भी पहुंचाया। तब से मांझी की सियासी महत्वाकांक्षा स्वाभाविक रूप से ऊंची हुई है। वह खुद को दलित राजनीति के नये दावेदार के तौर पर पेश करने की कोशिश में हैं।
मुस्लिम सियासत को धार देने को ओवैसी को मांझी की जरूरत
उधर, मुस्लिम सियासत की नई इबारत लिखने को आतुर ओवैसी को बिहार की मु़ख्य राजनीतिक धारा में प्रवेश पाने के लिए मांझी जैसे ही सही, किसी पतवार की जरूरत है। जाहिर है कि दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। ऐसे में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) और एनआरसी (NRC) के खिलाफ किशनगंज में आज एआइएमआइएम की रैली में मांझी ने बिना देर किए मुख्य अतिथि बनने का न्योता स्वीकार कर लिया। और तो और, ओवैसी की कृतज्ञता चुकाने के अंदाज में मांझी ने नागरिकता कानून को दलित विरोधी भी बता दिया।
ओवैसी की महफिल फीका करने के लिए मांझी को रोका
बिहार में कुछ महीने के बाद विधानसभा का चुनाव (Bihar Assembly Election) है। ऐसे में महागठबंधन यह कतई नहीं चाहेगा कि मुस्लिम या दलित राजनीति का कोई नया पैरोकार मंच पर आए, क्योंकि इन दोनों ही आधारों में नीतीश की अगुआई में आरजेडी काफी हद तक सेंध लगा चुका है। ऐसे में ओवैसी की महफिल को थोड़ा फीका करने के लिए मांझी को रोकना शायद जरूरी समझा गया। फिर क्या था, शनिवार को आनन-फानन में मांझी को रांची आने का न्योता भेजा गया। मांझी किशनगंज जाने को पहले से अनमने थे ही और उन्होंने बिना देर किए न्योता कुबूल कर लिया।