उच्चतम न्यायालय ने ऐतिहासिक निर्णय के तहत देश के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय तक को सूचना के अधिकार (आरटीआइ) के अधीन कर दिया। लेकिन देश की सहकारी संस्थाओं में आरटीआइ कानून लागू नहीं है। इफको, कृभको, नेफेड, एनसीसीएफ, सभी सहकारी बैंक, डेयरी और विपणन से जुड़ी लाखों सहकारी संस्थाएं आरटीआइ कानून के दायरे में नहीं हैं।
उम्मीद की जा रही है कि भारतीय सहकारी संस्थाओं पर भी आरटीआइ लागू करने का दबाव बढ़ेगा। सहकारी संस्था आरटीआइ से अलग क्यों है? भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ (एनसीयूआइ) के अध्यक्ष एवं राज्यसभा सदस्य डॉ. चंद्रपाल सिंह यादव कहते हैं, ‘सहकारी संस्थाएं लोगों की उद्यमी समूह हैं। समूह सदस्यों के प्रति उत्तरदायी होती हैं। सहकारी कानून में कोई सदस्य अपनी संस्था के बारे में हर तरह जानकारी हासिल कर सकता है। ऐसे में किसी बाहरी व्यक्ति को संस्था की सूचना देने की जरूरत नहीं है। इसलिए सहकारी संस्थाओं पर आरटीआइ कानून लागू नहीं है।’
एनसीयूआइ देश के सहकारी संस्थाओं की एपेक्स बॉडी है। एनसीयूआइ देशव्यापी सहकारी शिक्षण प्रशिक्षण संस्थानों को खुद से अलग किए जाने के मामले को लेकर सरकार से दिल्ली हाई कोर्ट में उलझी पड़ी है। सहकारी संस्थाओं पर आरटीआइ कानून का लागू नहीं होना, भ्रष्टाचार से जुड़े कई मामलों को उजागर होने से बचाने में कवच का काम करता है।
सहकारिता के बारे में उल्लेखनीय है कि यह सदियों से भारत में स्वयं सहायता समूह के तर्ज पर मौजूद है। योजना बनाने वालों ने सहकारिता को देश के विकास का आधार माना था। उस पर चलते हुए आठवीं पंचवर्षीय योजना तक सहकारी संस्थाओं को सरकारी संरक्षण हासिल था। वर्ष 1997 तक सहकारी उपक्रमों को आयकर में छूट हासिल थी। नतीजन रोजगार पैदा करने में सहकारिता ने अतुलनीय योगदान दिया। आज भी देश भर में आठ लाख से ज्यादा सहकारी संस्थाएं मौजूद हैं। सहकारिता से 30 करोड़ भारतीय किसी न किसी रूप में जुड़े हैं।
सहकारिता का क्षेत्र व्यापक है। इसका वास्ता सिर्फ कृषि तक सीमित नहीं है। बल्कि बैंकिंग, उर्वरक, उत्पादन, विपणन आदि किसी भी क्षेत्र में उद्यम करने की इच्छा रखने वाला समूह सहकारी संस्था जिला, प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर पर निबंधित करा सकता है। संस्था को कानून का पालन करते हुए सभी पदाधिकारियों का सावधिक चुनाव कराना होता। सहकारिता की एक खूबी यह भी है कि इसका लाभ उद्यमी समूह में शामिल सभी सदस्यों के बीच वितरित किया जाता है।
कृषि मंत्रलय के साथ मौजूद सहकारिता विभाग के मातहत संचालित सहकारी बैंक को वित्त मंत्रलय से, उर्वरक विपणन और उत्पादन करने वाली सहकारी संस्थाओं को उर्वरक मंत्रलय से, डेयरी से जुड़ी सहकारी संस्थाओं राष्ट्रीय डेयरी डेवलमेंट बोर्ड से वास्ता रखना होता है। ऐसे में सहकारिता संचालन के लिए सिंगल विंडो की जरूरत बनी हुई है। देश के विकास में सहकारी संस्थाओं ने कई प्रतिमान गढ़े हैं। सरकारी बैंकों के घाटों के खुलासे के दौर में कई सहकारी बैंकों के सफल संचालन से आने वाले नतीजे सबक में लिए जा रहे हैं। एमएस स्वामीनाथन की हरित क्रांति और वर्गीज कूरियन की श्वेत क्रांति ने सहकारी संस्थाओं के योगदान का प्रतिमान कायम किया है। लेकिन मौजूदा प्रतिद्वंदिता के दौर में सहकारी संस्थाओं को सरकार से न के बराबर मिल रहा संरक्षण, नए मिसाल गढ़ने की राह में रोड़ा बना हुआ है।
देश भर में सहकारिता कानून की एकरूपता के लिए संसद से पारित 97वां संविधान संशोधन विधेयक 2012 से अदालत की तारीख के झमेले में अटका पड़ा है। सुप्रीम कोर्ट में इसके सख्त पैरवी की जरूरत है। सहकारिता से जुड़े नेताओं का मानना है कि इसके लागू होते ही सहकारी संस्थाओं के आंतरिक लोकतंत्र को बहाल करने में आ रही दिक्कतों का समाधान हो सकता है। सहकारी संस्थाओं को ज्यादा पारदर्शी बनाया जा सकता है। हर क्षेत्र में सहकारी संस्था बनाकर उद्यम खड़ा करने की नई क्रांति लाई जा सकती है।
एनसीयूआइ के मुख्य अधिशासी एन सत्यनारायण बताते हैं कि अर्थव्यवस्था को पांच टिलियन डॉलर तक पहुंचाने में सहकारी आंदोलन पूरी तरह से सक्षम है। बस जरूरत है कि सरकार का सहकारी आंदोलन में भरोसा लौट आए व 1997 से पूर्व की स्थिति बहाल हो, यानी सहकारी संस्थाओं की आमदनी पर आयकर छूट की व्यवस्था हो।
लेबर कॉपरेटिव फेडरेशन के नेता अशोक डबास के मुताबिक सहकारी संस्थाएं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रतिवर्ष दो करोड़ लोगों को रोजगार देने के लक्ष्य को पूरा करने में सक्षम हैं। बस जरूरत सहकारिता में मौजूद भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने और ईमानदार लोगों को आगे बढ़ाने का प्रबंध करने की है। कृषि कॉपरेटिव से जुड़े प्रमुख नेताओं की राय में सहकारी संस्थाओं के सही प्रयोग से वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने के लक्ष्य को हासिल करना मुमकिन है।
सहकारिता से जुड़ी असीमित संभावनाओं के बीच सहकारी संस्थाओं को आरटीआइ के दायरे में लाने का प्रयास अटका पड़ा है। आरटीआइ के दायरे में आने से बचने के लिए सहकारी नेताओं की दलील की अपनी जगह है। लेकिन क्या यह जरूरी नहीं है कि आम नागरिक भी छोटी सी शुल्क अदा कर सहकारी संस्थाओं के कामकाज से जुड़ी जानकारी हासिल कर ले। यह वक्त की जरूरत है। खासकर तब जब कई सहकारी संस्थाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी हैं। हजारों करोड़ के घोटाले हो चुके हैं।
सहकारिता से घोटालेबाज माफियाओं की कहानियां जुड़ी हैं। सहकारिता का जिक्र होते ही लोगों के जेहन में घोटाले और घपले की कहानियां सामने आने लगती हैं, ऐसे में सहकारी संस्थाओं को आरटीआइ के दायरे में लाने की मांग गैर वाजिब नहीं लगती। इससे सहकारी संस्थाओं को भ्रष्टाचार के संदेह से दूर करने में मदद मिल सकती है। साथ ही सरकारी सहयोग की आकांक्षा रखने वाली सहकारी संस्थाओं की दावेदारी बढ़ेगी।