कचरे से निपटने में भारत सही रास्ते पर बढ़ रहा है। दुनिया के लगभग सभी बड़े शहरों में काफी कचरा जमा है। अगर विश्व के अन्य देश भारत के नक्शे कदम पर चलते हुए बॉयो स्टैबलाइजिंग व बॉयो माइनिंग करते हैं तो यह वैश्विक तापमान को कम रखने में काफी हद तक सहायक होगा। इस विधि में कचरे को हवा के संपर्क में लाया जाता है और जीवाणु विघटन की प्रक्रिया होती है। इससे कचरा उपयोगी जैविक खाद में बदल जाता है। पुराने कचरे के प्रबंधन का पहला तरीका इसे हवा के संपर्क में लाकर बायोस्टैबलाइज करना है। इससे घातक तरल का निकलना व दुर्गंध आनी बंद हो जाती है।
चार से छह सप्ताह तक लगातार हवा में रहने तथा इसपर बॉयो कल्चर का छिड़काव किए जाने से नमी का स्तर नीचे चला जाता है तथा कचरे की मात्रा 35 फीसद तक कम हो जाती है। इसलिए सबसे पहले कचरे के ढेर को ट्रैक्टर या पावर टिलर का उपयोग कर ऊपर से नीचे की ओर हर 150 एमएम की परत पर ढीला किया जाना चाहिए और इसपर बॉयो कल्चर का छिड़काव होना चाहिए। इसके बाद हर 1.5 मीटर पर 2 से 2.5 मीटर गहरे गड्ढे किए जाने चाहिए और इसपर भी बॉयो कल्चर का छिड़काव जारी रहना चाहिए। फिर कचरे के इस हिस्से को नीचे लाकर नई बनी परत पर काम करना चाहिए।
ऐसा तब तक करते रहना चाहिए जब तक पूरा ढेर समाप्त न हो जाए। हटाए गए गए कचरे को भी 150 मिमी की परतों में ही दूसरी जगह रखना चाहिए। हवा के संपर्क में आकर और बॉयोकल्चर के छिड़काव से कचरा हानिरहित हो जाता है और पूरी तरह सूखकर स्क्रीनिंग व गुरुत्वीय पृथक्करण यानी ग्रैविटी सेपरेशन के लिए तैयार होता है। इस प्रक्रिया में कचरे के हर प्रकार को अलग-अलग किया जाता है और प्रत्येक हिस्सा उपयोगी साबित होता है। चाय पाउडर की तरह छह एमएम से नीचे के टुकड़े सबसे काम के होते हैं जिसमें मिट्टी व हानिरहित जैविक होता है और जो खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के काम में आता है। छह से 16एमएम के टुकड़ों का उपयोग पेड़ों की जड़ों में डालने, मेड़बंदी या नदी तटबंधों में हो सकता है।
16-35 या 35-100 एमएम का उपयोग जो ज्यादातर पथरीले होते हैं, का इस्तेमाल सड़कों के निर्माण में निचली परत के रूप में हो सकता है। 100 एमएम से बड़े आकार वाले अधिकतर नारियल, लकड़ी या रबर होते हैं। इनका उपयोग सीमेंट संयंत्रों में कोयले की जगह ईंधन के रूप में कुछ हद तक किया जा सकता है।