हिंदू धर्म में तिथियों को पांच भागों में बांटा गया है। उसमें एकादशी को नंदा अर्थात् आनंद देने वाली तिथि होने का गौरव प्राप्त है। एकादशी तिथि को सभी तिथियों में श्रेष्ठ माना जाता है। इसे हरिवासर भी कहते हैं। इस तिथि को नारायण का दिवस भी कहा जाता है।
कार्तिक मास में दीपावली से पहले पड़ने वाली एकादशी को रमा एकादशी कहते हैं। जो कि भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मी जी के नाम पर है। जिन्हें रमा भी कहते हैं। इस पावन एकादशी के बारे में मान्यता है कि इस दिन उपवास रखने वाले पर भगवान विष्णु की कृपा बरसती है और उसे सभी सुखों की प्राप्ति होती है और वह सभी पापों से मुक्त होते हुए अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है।
एकादशी का व्रत करने के लिए हमारे ऋषियों ने पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां और एक मन, इन ग्यारह को नियंत्रण में रखकर, ईश्वर स्मरण करते हुए एकादशी का व्रत करना चाहिए। इस उपवास को करने वाले व्यक्ति को प्रात:काल स्नान-ध्यान के पश्चात् भगवान विष्णु, मां लक्ष्मी और तुलसी जी की विशेष रूप से पूजा करनी चाहिए।
रमा एकादशी की कथा के अनुसार एक बार राजकुमार चन्द्रसेन अपने ससुराल गए, जहां हर कोई एकादशी का व्रत करता था। ससुराल वालों के कहने पर इन्होंने भी ये व्रत रख तो लिया, लेकिन भूख प्यास सहन नहीं होने के कारण इनकी मृत्यु हो गई, लेकिन एकादशी के पुण्य से इन्हें अप्सराओं के साथ सुंदर नगरी में रहने का अवसर मिला। वहीं पति की मृत्यु से दुखी होकर इनकी पत्नी भगवान विष्णु की उपासना में लीन रहने लगी।
एक दिन चन्द्रसेन की पत्नी चंद्रभागा को इस बात की जानकारी मिली कि उनके पति को रमा एकादशी के पुण्य से उत्तम नगरी में स्थान मिला है, लेकिन पुण्य की कमी से उन्हें जल्दी ही इस नगरी से जाना होगा। चंद्रभागा ने ऋषि वामदेव की सहायता से अपने पुण्य का कुछ भाग अपने पति को दे दिया और स्वयं भी पति के पास पहुंच गई।