सच बताऊं दो , चार , दस करोड़ रुपए कमा कर भी वह सुख नहीं मिल सकता जो सुख मुझे बिना एक पैसा पाए किसी रचना को पूरा कर के मिल जाता है । मिलता ही रहता है । अनमोल है यह ख़ुशी । जब मैं लिखता हूं तो मां बन जाता हूं। अनायास । रचना जैसे मेरे लिखने में आ कर बच्चों की तरह झूम जाती है । खिलखिलाती मिलती है । रचना में समाये पात्र चौकड़ी भरते हैं बच्चों के दोस्तों की तरह । कभी बात मान जाते हैं , कभी नहीं मानते । बहुत बार मेरे हाथ में नहीं आते । अपने मन से जो चाहे करते रहते हैं । और मैं एक मां की तरह उन के पीछे-पीछे लगा रहता हूं। उन को सजाता, संवारता और दुलराता हुआ। कई बार लिखना चाहता हूं कहानी लेकिन उपन्यास हो जाता है। लिखना उपन्यास चाहता हूं , कहानी हो जाती है । सालों साल किसी कथ्य के पीछे लगा रहता हूं और नहीं लिख पाता हूं। कई बार अचानक कोई कथा उछल कर बच्चों की तरह गोद में आ कर मचलने लगती है और फटाक से अपने को लिखवा लेती है । एक अनिर्वचनीय सुख से भर देती है । लेकिन जब कुछ चाह कर भी नहीं लिख पाता तो लगता है जैसे जिंदगी अकारथ जी रहा हूं। नपुंसक हो गया हूं। मेरे लेखन में यह नपुंसकता आती रहती है , जब-तब । लेकिन जाती भी है । कभी जल्दी चली जाती है , कभी देर से ।
जैसे कि मन्ना जल्दी आना की कथा बीसियों साल से मेरे मन में चल रही थी । निरंतर । लेकिन नहीं लिख पा रहा था । जब विद्यार्थी था , साथ ही एक साप्ताहिक अख़बार में काम करता था । अब्दुल मन्नान अपने समय के गोल्ड मेडलिस्ट थे । उस प्रेस के मैनेजर थे और मैं बीस- इक्कीस साल की उम्र में विद्यार्थी होते हुए भी अख़बार का संपादक। अब्दुल मन्नान और मेरा मुहल्ला अलग-अलग था पर हमारे घर के बीच बहुत फ़ासला नहीं था । पैदल पांच मिनट का रास्ता था । हमारे घर के बगल से गुज़रती गली सीधे उन के घर पहुंचती थी । गोरखपुर में मुहम्मद ज़की का अख़बार था पूर्वी संदेश । ज़की साहब मेरे लिखे और मेरे काम पर मेहरबान थे । ख़ुद प्रधान संपादक थे और मुझे संपादक बना दिया था । बाक़ायदा प्रिंट लाइन पर मेरा नाम देते थे । यह मेरे जैसे विद्यार्थी के लिए बड़ी बात थी । पर तब उस का महत्व बहुत समझ में नहीं आता था । पर मैं अख़बार के लिए अपनी पूरी क्षमता , पूरी ऊर्जा न्यौछावर कर देता था । एक दिन अचानक प्रशासन द्वारा अब्दुल मन्नान को पाकिस्तानी बता दिया गया । उन की जद्दोजहद , उन का संघर्ष , उन का एकदम से चुप हो जाना मुझे सन्न कर गया था । मन्नान साहब किसी काम से मेरे पास ही बैठे थे । एल आई यू के लोग मेरे सामने से ही उन्हें पकड़ कर ले गए । उन्हें घर भी नहीं जाने दिया । सीधे कचहरी ले गए । मैं भी घबराया हुआ पीछे-पीछे अपनी साईकिल से गया । जहां उन की बेग़म और बच्चे पहले ही से लाए जा चुके थे । और उसी दिन कुछ घंटे में ही उन्हें सपरिवार पाकिस्तान रवाना कर दिया गया था । तब से ही यह कथा मन में फांस की तरह बसी हुई थी । लेकिन चार शहर , कई नौकरी , कई घर बदलने के बाद भी मन्नान कलम में समा नहीं पा रहे थे । पर वह मुझे बहुत बेचैन , बहुत बेबस करते रहते थे । अकसर । जैसे कोई नदी आती थी अब्दुल मन्नान की बेबसी की और मुझे अपने साथ बहा ले जाती थी । लहरों के थपेड़े खिलाती हुई । फिर मुझे अकेला छोड़ जाती । अपनी यातना में डुबो कर । कई बार लिखने की सोच कर मैं बच्चों की तरह दुलरा कर बुलाता रहता अब्दुल मन्नान को । लेकिन वह किसी शैतान बच्चे की तरह फुदक कर गोद में आ कर भी भाग जाते थे । आख़िर हमारे मैनेजर रह चुके थे और हम से इतनी आसानी से मैनेज कैसे होते भला ? लेकिन जब लोक कवि अब गाते नहीं लिख रहा था तो अचानक एक उपकथा के रूप में वह आ कर मेरी गोद में बैठ गए । लिखवा ले गए अपने आप को । लेकिन एक उपन्यास उपकथा बन कर किसी उपन्यास में समा जाए , यह मुझे कुछ ठीक नहीं लगा । फिर उपन्यास से अलग निकाल कर नया उपन्यास लिखने की कोशिश की । पर मन्नान तो बस बैठ गए तो बैठ गए । हिले नहीं । लंबी कहानी बन कर छपे । अब पछताता हूं कि थोड़ा और धैर्य रखना था । उपन्यास की सारी गुंजाईश थी । पर अब जो हो गया , सो हो गया । लोक कवि अब गाते नहींमें एक उपकथा है दफ़ा 604 की । छपने के बाद में लगा कि यह भी एक अलग और स्वतंत्र कथा थी जो उपन्यास में रह कर दब सी गई है । लेकिन कोई कथा कहीं भी रहे दबती कहां है भला ? पढ़ने वाले लोग दबने नहीं देते । राजकमल प्रकाशन ने क़ानून और उस से जुड़ी कहानियों के दो अलग-अलग संग्रह अभी , बिलकुल अभी छापे हैं । जिन में से एक संग्रह का नाम ही मेरी उस उपकथा पर रखा है दफ़ा 604 । और यह उपकथा बतौर एक कथा इस संग्रह में छापा है । दूसरे संग्रह मिस्टर क़ानूनवालाज चैंबर में भी मेरी एक लंबी कहानी मुजरिम चांद का एक हिस्सा वकील साहब की किताब शीर्षक से छापा है । उत्तर प्रदेश में कभी राज्यपाल रहे रोमेश भंडारी से जुड़ी कथा है यह । सुप्रसिद्ध डाक्टर यतीश अग्रवाल के सुपुत्र और कानूनविद अपूर्व अग्रवाल ने इन दोनों किताबों को संपादित किया है ।
इसी तरह मैत्रेयी की मुश्किलें भी लिखना उपन्यास ही चाहता था पर मैत्रेयी भी नहीं मानी । अड़ गई । लंबी कहानी बनना ही उसे रास आया । देह -दंश भी उपन्यास ही के तौर पर शुरू किया था । पर उस की नियति भी कहानी में ही थी । बड़की दी का यक्ष प्रश्न में तो सारी संभावना थी उपन्यास की । लेकिन बाद में डर यह लगा कि अगर आगे की कथा भी बांच दूंगा तो लोगों का बेटियों पर से यकीन उठ जाएगा । और यह मैं नहीं चाहता था । लेकिन बांसगांव की मुनमुन तो कहानी थी । कहानी ही लिख रहा था । लेकिन मुनमुन की व्यथा-कथा अपने पंख उठा कर जब उड़ी तो उड़ती ही गई । उपन्यास बन गई । बहुत सारी स्त्रियों की आग बन गई । उन की जद्दोजहद की आंच बन गई। हमारी मुनमुन तो अभी और उड़ना चाहती थी । पर वह चाहते हुए भी रुक गई। वे जो हारे हुए का आनंद तो मुझे आज भी उकसाता रहता है कि मेरा संघर्ष , मेरी हार , अभी मेरी विजय के रूप में उपस्थित होनी बाक़ी है । इसे कब दर्ज करोगे दयानंद पांडेय ? और मैं छटपटा कर रह जाता हूं । हारमोनियम के हज़ार टुकड़े का सूर्य प्रताप शाही कहता है , मुझे अश्वत्थामा बना कर क्यों जीवित कर रखा है ? मुझे भी असल मृत्यु दो , मेरी भी कथा पूरी करो मेरे मित्र , मेरे भाई । अपने-अपने युद्ध का संजय अभी भी युद्धरत है और बार-बार मुझे गुहराता रहता है कि मुझे कब तक शर-शैय्या पर लिटाए रहोगे ? मैं भीष्म नहीं हूं , न ही मेरी कोई प्रतिज्ञा है । लेकिन चाह कर भी इन संजय , इन सूर्य प्रताप , इन आनंद की यातना और मुनमुन की उड़ान को और लिख नहीं पाता । जाने कितनी मुनमुन मेरे मन की राख में आग बन कर बैठी हुई हैं कथाभूमि पर उतरने ख़ातिर। लेकिन क्या करूं कथा कोई हेलीकाप्टर नहीं होती जो जब चाहे , जहां चाहे हेलीपैड बना कर उतार ली जाए । किसी चौड़ी सड़क पर उतार दी जाए । किसी हाईवे पर उतार दी जाए। और पाठकों की दुनिया में लैंड कर दी जाए । उसे तो कभी रन वे चाहिए होता है टेक आफ और लैंड करने के लिए । कभी पानी चाहिए होता है , मछली की तरह जीने और तैरने के लिए । नाव की तरह सफ़र करने के लिए । यात्रियों को इस पार से उस पार ले जाने के लिए । कभी आकाश चाहिए होता है , पक्षी की तरह उन्मुक्त उड़ने के लिए । पेड़ की एक डाल चाहिए होती है सुस्ताने के लिए । बिजली के खंभे का कोई तार चाहिए , शाम को अपने ठिकाने पर जाने के पहले बैठ कर समूह में बतियाने के लिए । घर का या पेड़ का कोई शांत कोना चाहिए होता है घोसला बनाने के लिए । कोई कोटर चाहिए होता है गिलहरी की तरह फुदक कर छुप जाने के लिए । कोई मकड़ी का जाला भी कथा बन सकने की जिजीविषा जानने के लिए । जाने कौन-कौन सा अलम चाहिए होता है । सजनी भी और बलम भी । राह में , मेले में , अकेले में याद आने वाला प्यार भी । बहुत सारे योग , संयोग और वियोग लिखने-लिखवाने के लिए कारण बनते रहते हैं । शांति , सुकून , संतुष्टि , बेचैनी , जीने-मरने की छटपटाहट , सुख-दुःख बहुत से फैक्टर हैं। जो कभी लिखवा लेते हैं , कभी तरसा देते हैं । ज़्यादातर कारण तरसाने वाले ही मिलते हैं । करें भी तो क्या करें ? लाख कहता फिरूं कि मैं ने यह लिखा है , वह लिखा है । पर सच कहूं अपने हाथ में कुछ नहीं होता । वह तो कोई है जो लिखवा लेता है । जाने कितनी कहानियां अधूरी हैं , कम से कम तीन उपन्यास मन की अलगनी पर लटके पड़े हैं ।अनगिन कविताएं किसी गिलहरी की तरह टुकटुक ताक रही हैं अपनी-अपनी कोटरों से । ढेर सारे लेख , संस्मरण , किताबों की समीक्षाएं बादल की तरह आसमान में प्रतीक्षारत उमड़-घुमड़ रही हैं । मित्रों की फरमाईशें फांस बनी खड़ी हैं लेख और टिप्पणियों के लिए । लेकिन एक तो बहुत सारा आलस , ढेर सारी नींद , कुछ पारिवारिक उलझन , नौकरी की मुश्किल आदि अपने समुद्र में समो लेती हैं । दूसरे लिखना अपने आकाश में बुलाता रहता है । इस समुद्र और आकाश के बीच धरती छटपटाती रहती है । मैं इस से भी ज़्यादा छटपटाता हूं । छटपटाता ही रहता हूं दिन-रात ।
लेकिन लिखना फिर भी मेरे लिए कोई फ्रेम वर्क नहीं है । लिखना मेरे लिए प्रेम है । जैसे प्रेम का पाठ कोई अनिवार्य और निश्चित पाठ की तरह नहीं होता , हरदम भाग्य में नहीं होता , वैसे ही लिखने का भी कोई तय फ़ार्मूला नहीं होता । मेरे लिए भी नहीं है । जब मन हुआ प्रेम किया , जब मन हुआ लिख दिया । रात -दिन का कोई फेर नहीं है । लेकिन जैसे मन मुताबिक़ कई बार प्रेम के अवसरों से चूक जाता हूं , लिखने के भी तमाम मौक़े ऐसे ही गंवा देता हूं । समय सीमा और शब्द सीमा भी मेरे लिए कोई मायने नहीं रखते । लेकिन अब कुछ मूर्ख संपादकों के दिन बहुरे हुए हैं तो वह शब्द सीमा और समय सीमा का पाठ पढ़ाने में अपना आचार्यत्व बघारते हैं तो मैं उन्हें गुडबाई कर देता हूं । मैं अब जान गया हूं कि कागज़ पर छपे हुए से ज़्यादा नेट पर छपा हुआ पढ़ा जाता है । सो मैं अपने ब्लॉग सरोकारनामा पर लिख कर ख़ूब ख़ुश रहता हूं । न किसी को रचना भेजता हूं , न चिरौरी करता हूं अन्य मित्रों की तरह कि छाप दीजिए । छाप कर मुझे अमर कर दीजिए । कोई मांगता है तो सहर्ष भेज देता हूं । बहुत से लोग सरोकारनामा से साभार ले कर रोज ही बीसियों जगह छापते रहते हैं । पत्रिकाओं , अख़बारों और नेट पर भी । मेरा परम सौभाग्य है कि सरोकारनामा दुनिया भर में पढ़ा जाता है और इस की हिट संख्या लाखों में है। महान पत्रिकाओं की तरह हज़ार , दो हज़ार की प्रसार संख्या नहीं है। रही बात छपने-छपाने की तो प्रकाशक किताब भी छाप देता है और छाप कर सरकारी लाइब्रेरियों में भेज देता है । भेजता रहता है । यह उस का अपना खेल है । उस का अपना कारोबार है । मैं उस में कुछ नहीं कर सकता । लेकिन किताब छपी देख कर मैं ख़ुश भी बहुत होता हूं । पर किताब की समीक्षा करवाना भी एक कठिन और अपमानित कर देने वाला , चार सौ बीसी भरा काम हो गया है इन दिनों । मैं ने इस अपमान से भी छुट्टी ले रखी है । मैं ने कभी अपनी किसी किताब का आज तक लोकार्पण भी नहीं करवाया । लोकार्पण में जिस तरह लेखक का सम्मान सहित अपमान होता है , वह देख कर मैं हतप्रभ हो जाता हूं । लेकिन लोगों को अपमानित हो कर भी आत्म प्रचार लुभाता है तो मैं क्या कोई भी कुछ नहीं कर सकता । यह सब देख कर मन करता है कि लिखना बंद कर दूं । पर मैं प्रेम करना कभी बंद नहीं कर सकता । प्रेम मेरी सांस है , लिखना मेरी आस और सांस दोनों है । मेरे प्रेम का , मेरे लिखने का फलक भी बहुत बड़ा है । न लिखूं तो मर जाऊं ।
हाथ से लिखने के लिए मुझे बढ़िया स्मूथ क़लम , साफ़ – सफ़ेद काग़ज़ ही रास आता है । काग़ज़ के एक तरफ लिखना मुझे भाता है । कुर्सी पर बैठ कर मेज़ पर भी लिखता हूं। मेरे लिखने की कुर्सी है । मेज भी है बड़ी सी । यह कुर्सी मेज़ मैं बहुत संभाल कर दिल्ली से भी उठा ले आया था । बेड और तमाम अन्य चीज़ों की तरह इन्हें वहां इन के हाल पर नहीं छोड़ा वहां । किताबों के साथ इन्हें भी ले आया । पर लिखने के लिए सब से मुफ़ीद जगह घर में मुझे बिस्तर ही लगता है। जब कागज़ पर लिखता था तब भी और अब जब लैपटाप पर टाइप कर के लिखता हूं तब भी। अधलेटा , मसनद लगा कर । इधर -उधर करवट बदलते हुए लोग सोते हैं जैसे , मैं लिखता हूं । कभी इस और उठंग कर कभी उस ओर । कह सकते हैं कि बिस्तर ही मेरी कर्मभूमि है । बिस्तर पर ही खाना , सोना , पढ़ना , लिखना , फ़ोन , टी वी आदि सारा जीवन चलता रहता है । आधी रात के बाद मद्धम-मद्धम स्वर में गाने सुनते हुए लिखना भी मुझे बहुत भाता है । गंभीर और सुचिंतित लिखने के लिए रात का समय सब से मुफ़ीद होता है मेरे लिए । जब सारा आलम सोता है तब मेरे पात्र जाग जाते हैं। और मुझे बुला लेते हैं अपने साथ । अपने को लिखने के लिए , अपने को रचने के लिए । जैसे रात के सन्नाटे में ही चुपके से या नि:शब्द हो कर ही सही अपनी बात वह मुझ से कह पाते हैं , कलम से कागज़ पर उतर पाते हैं । उन की विवशता जैसे तब ही आवाज़ पा पाती है। नहीं सन्नाटा नहीं पाने पर , शांति न पाने पर वह विवशता वायसलेस हो जाती है । सो जब लोग जाग जाते हैं , जागने लगते हैं तो हम लोग सोने चले जाते हैं । जब कुछ बाक़ायदा लिख रहा होता हूं तो उस कथ्य को , उस चरित्र को चौबीसो घंटे जी रहा होता हूं। उसी को ओढ़ता , बिछाता , खाता , पीता और सोता हूं। दूसरा कुछ सोच नहीं पाता हूं। सोचना भी नहीं चाहता । और जो ग़लती से भी सोच लिया , कोई दूसरी बात मन में आ गई , घट गई तो फिर उस कथा का क्या होगा , मैं भी नहीं जानता। जैसे कोई स्त्री चाहती है कि उस को छोड़ किसी और को प्रेम न किया जाए , सोचा न जाए , मेरी रचना भी मुझे ले कर इसी तरह पजेसिव हो जाती है। और जो वह रूठ गई तो उसे मनाना वैसे ही होता है जैसे रूठे रब को मनाना आसान है , रूठे यार को मनाना मुश्किल।
अपने-अपने युद्ध मैं ने ढाई महीने में ही इसी तरह लिखा था। उन दिनों लखनऊ का नवभारत टाइम्स बंद हो गया था और बेरोजगार था। एक दिन देवेंद्र राज अंकुर द्वारा निर्देशित अजीत कौर की आत्मकथा ख़ानाबदोश का मंचन देख कर लौटा । ख़ानाबदोश के तनाव ने लिखने को बैठा दिया। अख़बारी दुनिया का नरक और बेरोजगारी का दंश मेरे कंधे पर बैताल की तरह सवार था । दिन भर सोता था , रात भर लिखता था । लेकिन इस उपन्यास को छपने में ढाई साल लग गए । न्यायपालिका वाला हिस्सा प्रकाशकों की घिघ्घी बांधने के लिए बहुत था। बाद में तो इस उपन्यास की आंच को मद्धिम करने के लिए अश्लीलता का फतवा जारी कर दिया गया। आज भी यह फतवा जारी है । लेकिन मैं और मेरे पाठक इस उपन्यास की आग को , इस की तपन और दाहकता को आज भी जानते हैं । उस की आंच किसी जंगल की आग की तरह फैली हुई है । मेरे ब्लॉग सरोकारनामा पर आज भी सब से ज़्यादा यह उपन्यास पढ़ा जाता है । राजेंद्र यादव ने इस उपन्यास पर हुए मुकदमे के बाबत हंस में चार पन्ने का एक संपादकीय लिखा था , उन दिनों । और बाद के दिनों में अकसर वह मुझ से कहते कि सिर्फ़ न्यायपालिका को ही केंद्र बना कर एक उपन्यास लिखिए । वह हंस का एक अंक निकालने की योजना भी बनाए हुए थे जो सिर्फ़ न्यायपालिका पर आधारित रचनाओं के केंद्र में हो । ऐसी चर्चा वह जब-तब करते रहते थे । लेकिन न वह ऐसा अंक निकाल पाए , न मैं सिर्फ़ न्यायपालिका आधारित उपन्यास अब तक लिख पाया हूं । हमारे एक वकील मित्र आई बी सिंह भी अकसर कहा करते हैं कि बात अब अपने-अपने युद्ध से बहुत आगे निकल गई है दयानंद भाई । कुछ आगे लिखिए । लेकिन क्या कहूं , लिखना ही तो दुश्वार है इन दिनों । लिखना क्या इतना आसान है ? उपन्यास लिखना और रीट पेटिशन लिखना दोनों अलग-अलग बात है ।
बहरहाल आज आप को यह बात भी बता देना चाहता हूं कि अगर उस समय अपने-अपने युद्ध न लिखा होता तो मैं ने तो या तो विक्षिप्त हो गया होता या मृत्यु पा गया होता । उस तनाव तंबू को तोड़ने , उस संघातिक तनाव से उबारने में सेफ्टी वाल्व बन कर इस उपन्यास ने मुझे बचा लिया था तब के दिनों । लिखना दरअसल मेरे लिए सेफ्टी वाल्व ही है । हमेशा । जब अपने-अपने युद्ध छप गया और इस पर हाईकोर्ट में मुझ पर अवमानना का मुकदमा हो गया था , उपन्यास भरपूर चर्चा में आ गया था , उन्हीं दिनों एक रिटायर्ड पुलिस अफ़सर का फोन आया । वह अपने-अपने युद्ध पढ़ कर फ़ोन पर थे । मिलना चाहते थे । मैं ने कहा घर आ जाइए या कहिए मैं आप के घर आ जाता हूं । वह बोले , घर पर नहीं , काफी हाऊस में । हम मिले काफी हाऊस में । उन की यातना यह थी कि वह डिप्टी एस पी नियुक्त हुए थे और डिप्टी एस पी पद से ही रिटायर हुए थे । मुक़दमा लड़ रहे थे । रिटायर होने के बाद भी । कहने लगे , आप के उपन्यास का नायक संजय तो अपनी नायिकाओं में अपने तनाव को डाइल्यूट कर लेता है पर , पर मैं कहां जाऊं ? कहते हुए उन्हों ने मेरा हाथ पकड़ लिया और रोने लगे । बाद में वह मुकदमा जीत गए और दिन मुझे फ़ोन किया कि मैं रिटायर्ड डी आई जी फला बोल रहा हूं। मैं हिचका और कहा कि आप तो डी एस पी रिटायर हुए थे । चहकते हुए वह बोले , पर कोर्ट ने मुझे डी आई जी बना दिया । मैं ने कहा अब क्या फ़ायदा ? वह बोले , फ़ायदा बहुत है । मैं अब आप से अपने को रिटायर्ड डी आई जी कह सकता हूं। सम्मान बरकरार हो गया । वेतन सारा एरियर सहित मिलेगा । पेंशन भी डी आई जी वाली मिलेगी । घर पर नेमप्लेट लगा दी है रिटायर्ड डी आई जी की । आदि-आदि । लेकिन लोग थे कि इस उपन्यास अपने-अपने युद्ध के मनोवैज्ञानिक पहलू को नज़र अंदाज़ कर उसे अश्लील बता रहे थे । रवींद्र कालिया उन दिनों इलाहाबाद में ही रहते थे । अपने-अपने युद्ध के प्रशंसकों में से रहे हैं वह । मुकदमे के समय भी उन्हों ने बहुत मन दिया, कमलेश्वर से बात करने की सलाह दी और साहस बंधाते रहे थे । एक रात उन से फ़ोन पर बात हुई तो वह कहने लगे कि अगर यह स्त्री प्रसंग इतना ज़्यादा न होते तो बहुत पावरफुल उपन्यास था यह । श्रीलाल शुक्ल ने भी तब यही बात कही थी । सतीश जमाली ने भी । बल्कि कालिया जी ने ही उन्हें यह उपन्यास पढ़वाया था । इस उपन्यास के तब तक दो संस्करण हो गए थे । कालिया जी से मैं ने कहा कि चलिए अगर ऐसा है तो अगले संस्करण में इन प्रसंगों को कुछ संपादित कर देता हूं । कालिया जी बोले , अब कोई फ़ायदा नहीं । एक बार छपने के बाद इस तरह संपादित करने की कोई परंपरा नहीं है । फिर छोड़ दिया इस उपन्यास को उस के हाल पर । जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चे को छोड़ देती है उसे अपने आप उड़ने के लिए । अब तो मेरी हर रचना चिड़िया का बच्चा है लिख जाने के बाद । पाठक ही उस के आसमान हैं । अब वह रचना पाठक को मैना लगती है , कोयल लगती है कि कौवा कि तोता कि कबूतर , वह ही जाने । प्रायोजित समीक्षाओं , जुगाडू चर्चाओं , लोकार्पण के तमाम मेलों के बीच चालू आलोचकों के कंधों पर बैठ कर गुल्ली डंडा खेलते , पुरस्कारों के लिए लाबिंग करते , और फिर इन पुरस्कारों की वापसी की नौटंकी करने वाले मठाधीशों को देख कर उन पर बहुत तरस आता है । कोफ़्त होती है । और ऐसे में भी चुपचाप लिखने का जो संतोष है , जो जादू है , वह यह अभागे क्या जानें भला ? मैं जानता हूं ।
अब तो घर में सभी सुविधाएं हैं पर जब मैं ने लिखना शुरू किया था तो जाहिर है विद्यार्थी था। लालटेन की रोशनी में पढ़ाई होती थी । बैठने को चटाई होती थी । तो लिखना भी लालटेन में ही हुआ । एक बार मैं ने एक कहानी सुंदर भ्रम की शुरुआत में लिखा :
कमरे में चुपचाप अकेला उदास बैठा हूं। अंधेरा फैलने लगा है। मन में आया है कि बत्ती जला दूं। सोचता हूं, क्या होगा बत्ती जला कर ? लेकिन बत्ती जला दी है। अचानक हवा से खिड़की पर लगा परदा लहरा उठा है, और एक लड़की साइकिल से जाती हुई दिखी है….और बस तुम्हारी याद-सी आ गई है।
कहानी छप कर आई तो पढ़ कर मेरे एक चचेरे भाई ने तंज भरा सवाल कर दिया कि यह लालटेन की जगह बत्ती कहां से आ गई ? बत्ती मतलब बिजली । मैं ने उन से कहा कि फला जगह कुछ दिन रहा हूं तो वहां तो बिजली थी। वह बोले , हां-हां ! फिर ठीक है । तो आप कुछ लिखिए तो लोग सवाल भी साथ रखते हैं । इस लिए भी कि मेरे ज़्यादातर पात्र एडाप्टेड ही होते हैं , क्रिएटेड नहीं । सो कई रचनाओं को ले कर तरह-तरह के सवालों में निरंतर घिरा रहा हूं। रचनाओं में स्त्री प्रसंगों को ले कर लोग-बाग़ बाकायदा खुर्दबीन और दूरबीन ले कर पीछे पड़ गए हैं । अब लोगों को यह बताना मुश्किल ही होता है कि बिना चांद या अमरीका गए भी आप वहां की जानकारी रख और परोस सकते हैं । लेखक यह अकसर करता है । हां , यह ज़रूर होता है कि जैसे कोई दूधिया दूध में थोड़ा पानी मिलाता है , कोई स्वर्णकार जेवर बनाने के लिए सोने में कुछ मिलावट कर लेता है , ठीक उसी तरह लेखक भी , कवि भी अपने कथ्य में , अपनी कहन में , रचना में , थोड़ा बहुत रचना के स्तर पर करता ही है । मैं भी करता हूं । बिना इस के रचना , रचना नहीं रिपोर्ताज़ या रिपोर्ट हो जाएगी । जैसे गीत को कर्णप्रिय बनाने के लिए स्वर का, संगीत का साथ ज़रूरी होता है । वैसे ही कथा को , कविता को पठनीय बनाने के लिए यह सारे यत्न मैं करता ही हूं । लेकिन दाल में नमक की तरह । तमाम लेखकों की तरह नमक में दाल नहीं । लेकिन संबंधों , रिश्तों आदि को ले कर सवाल खत्म नहीं होते । वैसे भी अपने जीवन में , अपने कथा संसार में , रचना संसार में , छुपाने के लिए मेरे पास कुछ नहीं होता । नहीं है । बुनावट और अंदाज़ देख कर लोग जान ही जानते हैं कि चरित्र कौन है । लोक कवि अब गाते नहीं उपन्यास के मुख्य चरित्र लोक गायक बालेश्वर हैं , यह तथ्य तमाम लोगों के साथ पढ़े-लिखे नहीं होने के बावजूद बालेश्वर भी जान ही गए थे । और कि कुछ दिनों तक हमारी गहरी मित्रता मुश्किल में पड़ गई थी । बाद में उन को लगा कि नहीं लोगों ने इस उपन्यास के बारे में उन्हें गलत ढंग से समझाया था , गलत ब्रीफ़ किया था। मैत्रेयी की मुश्किलें भी लोग जान ही गए कि कौन है । पर बांसगांव की मुनमुन को ले कर भी कोई नाराज हो सकता है , यह सपने में भी नहीं सोचा था । पर असल मुनमुन ही नाराज हो गई। मुनमुन का पूरा परिवार ही नाराज हो गया। ऐसे बहुत से दुःख , ऐसी बहुत सारी यातनाएं , मुकदमे और तनाव भी रचना के ज़रूरी पक्ष हैं मेरे हिस्से में । वह अविष्कार फ़िल्म में कपिल कुमार का लिखा कानू रॉय के संगीत में मन्ना डे का गाया एक गाना है न , हंसने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है / कोई हमदर्द नहीं, दर्द मेरा साया है ! तो मैं कहता हूं , लिखने की चाह ने इतना मुझे रुलाया है ! मीरा के गीतों को जैसे कोई विष सताता था , वैसे ही मुझे यह रचनाएं लिखने के लिए सताती हैं , इन की विवशताएं मुझे सताती हैं , रुलाती हैं , लिखने ख़ातिर। जैसे दबोच लेती हैं मुझे । अवश हो जाता हूं ।
जब अख़बार में रिपोर्टर था तब यह नहीं चलता था कि मूड नहीं है , कल लिखेंगे । बाद में लिखेंगे । तब तो तुरंत लिखना होता था । कैसी भी रिपोर्ट हो , तबीयत ख़राब हो या अच्छी , तय समय सीमा के भीतर लिख कर अख़बार के लिए झोंक देना होता था । कई बार होता था कि किसी प्रिय लेखक , किसी प्रिय अभिनेता , प्रिय अभिनेत्री , प्रिय राजनीतिज्ञ का निधन हो गया है । मन टूट गया है । बिखर गया हूं । अपने को बटोर भी नहीं पा रहा हूं । लेकिन कह दिया गया है कि आप को तुरंत रिपोर्ट लिखनी है । संस्मरण लिखना है । स्मृति-शेष स्वरूप लिखना है । दो घंटे में दे दीजिए । पहले संस्करण से ही जाना है । और लिखना पड़ा है । बार-बार , अनगिन बार। मेरे कथा गुरु और पितामह की तरह मुझे बहुत प्यार करने वाले अमृतलाल नागर का निधन हो गया था । रो रहा था । उन की शव यात्रा से लौट कर रोते-रोते रिपोर्ट लिखना और उस की याद आज तक तोड़ कर रख देती है । इंदिरा गांधी की हत्या जब हुई थी , मैं चौधरी चरण सिंह के चुनाव क्षेत्र बागपत में चुनावी कवरेज में था । बागपत के किसी सुदूर देहात में था जब यह सूचना मिली । एक गांव में दिन दो बजे अफ़वाह जैसी बात सुनी । रेडियो लगाया। पर रेडियो पर ख़बर नहीं थी । आकाशवाणी शांत थी । पर शाम छ बजे आकाशवाणी की ख़बर ने सूचना पुष्ट की । सूचना मिलते ही रो पड़ा । बरबस । तुरंत लौट पड़ा था , दिल्ली के लिए । रास्ते भर जगह-जगह चेकिंग। आधी रात पहुंचा दिल्ली । दिल्ली दूर-दूर तक आग और धुंएं में डूबी मिली। और दूसरे दिन से कत्ले-आम देखना, रिपोर्ट करना आज तक दिल दहलाता रहता है। आज तक उस मंज़र को , उस दुःख और लोगों की दहाड़ भरी रुदन भूल नहीं पाया हूं । न ही किसी रचना में उसे बहुत कोशिश के बावजूद दर्ज कर पाया हूं । हथेली पर जान बचा कर भागते हुए लोग , ज़िंदा जलते हुए लोग , लुटती हुई दुकानें , जलते-उजड़ते घर । आज भी इतने सालों बाद मेरे दिल में जलते हुए उपस्थित मिलते हैं । वह आग ठंडी ही नहीं होती तो लिखूं भी तो कैसे ? ठाट-बाट से रहने वाले लोग शरणार्थी शिविरों में एक बिस्किट के लिए भी नाक रगड़ते और तड़पते मिले । जो लोग इन के घर और दुकान लूटते दिखे थे , वही लोग शरणार्थी शिविरों में उन्हें बिस्किट , डबल रोटी बांट रहे थे । पूरी बेशर्मी से । और रोते-बिलखते वह लोग उन से वह सामान , वह मदद लेने को अभिशप्त थे । स्वतंत्र भारत अख़बार में हमारे संपादक रहे वीरेंद्र सिंह के असमय निधन पर जब लिखने लगा तो सिसक-सिसक कर रोता रहा । लिखता रहा । दफ़्तर में लोग यह देख कर चकित थे । प्रिय फ़िल्म निर्देशक राज कपूर से , पसंदीदा अभिनेत्री नूतन से मैं कभी नहीं मिला हूं । पर जब इन के निधन की सूचना देते हुए मुझे तुरंत लिखने को भी कहा गया तो मैं विचलित हो गया। लेकिन लिखना भी पड़ा। तुरंत। मित्र राजेश शर्मा चौदहवीं मंज़िल से कूद मरे थे । रोते हुए ही उन पर लिखना पड़ा । प्रभाष जोशी के निधन पर लिखना भी बहुत मुश्किल काम लगा । लेकिन लिखना ही था । आलोक तोमर के निधन पर भी होली का दिन था , यशवंत सिंह के इसरार पर लिखना पड़ा । श्रीलाल शुक्ल के निधन पर तो और मुश्किल पेश आई । कहा गया कि उन की अंतिम यात्रा में जाने के पहले उन पर लिख कर जाइए । नहीं लेट हो जाएगा। संपादकीय पृष्ठ पर लगना है। सारे संस्करण में जाना है , जा नहीं पाएगा । आदि-आदि । बालेश्वर के निधन पर भी रोते-रोते ही लिखना पड़ा था , उसी रोज । ऐसे ही तमाम प्रसंग हैं । पुलिस मुठभेड़ में तमाम शव देख कर लौटा हूं । पोस्टमार्टम हाऊस में नंग-धड़ंग लाशों का ढेर देख कर आया हूं । मन भिनभिनाया हुआ है। लेकिन लिखना ही है । हादसे पर हादसे हैं। दंगे फ़साद हैं । एक आम रिपोर्टर के लिए उसे रिपोर्ट करना रूटीन होता है । पर किसी रचनाकार को उसे रिपोर्ट करना , उस यातना में भींग कर रिपोर्ट करना होता है । बहुत मुश्किल काम होता है । मेरे लिए हमेशा रहा है । उस आग से गुज़र कर , उस यातना में भींग कर ही लिखना हुआ है । प्रभाष जोशी मुझे अकसर टोकते और कहते , हमें ख़बर चाहिए , शाश्वत साहित्य नहीं । लेकिन क्या करूं , मेरे साथ तो ऐसे ही था , ऐसे ही है , ऐसे ही रहेगा । एक समय अखबार के लिए नियमित संपादकीय लिखना भी मेरा काम था । दिन के क़रीब एक या दो बजे दिल्ली से विषय दिया जाता था। शाम चार बजे तक हर हाल में दो कालम , बीस सेंटीमीटर में लिख कर , प्रूफ़ फ़ाईनल कर भेज देना होता था । न एक लाइन कम , न एक लाइन ज़्यादा । लेकिन जब तक लिखा , मुझे बहुत मज़ा आया । पूरी मस्ती से लिखता था । गाना-वाना गाते हुए । लिखता भी नहीं था तब , बल्कि बोल कर लिखवाता था । बोल कर लिखवाना मुझे सब से ज़्यादा शूट करता है । बस कोई बढ़िया टाइपिस्ट हो बशर्ते । जो हर शब्द और शब्द की गरिमा और संवेदना को उस की पूरी भंगिमा में समझता हो । बिलकुल राणा प्रताप के चेतक की तरह । अनगिन ख़बरें , लेख आदि मैं ने बोल कर ही लिखवाए हैं ।
मैं ने उपन्यास भी बोल कर लिखवाए हैं । अपने-अपने युद्ध का न्यायपालिका वाला हिस्सा मेरे सहयोगी रहे , छोटे भाई अशोक मिश्र ने हाथ से लिखा । वह रोज घर आते । मैं बोलता रहता , वह लिखते रहते । मेरा एक्सीडेंट हुआ था । आंख ठीक से काम नहीं कर रही थी । रेटीना डैमेज था । दाएं हाथ का प्लास्टर कट चुका था । लेकिन लिखने लायक नहीं था। मैं दुर्घटना के भय से , दुःख और डिप्रेशन से अपने को निकालना चाहता था । वह लिख कर ही संभव था । निकला भी । दिल्ली में जब रहता था तो पैसों के लिए हिंद पाकेट बुक्स के लिए अमिताभ और विकास सीरीज के लिए भी मैं ने कुछ उपन्यास लिखे । बल्कि बोल कर लिखवाए । तब एक टाइपराइटर किराए पर लाया था । एक रुपए प्रति पेज पर एक टाइपिस्ट रखा था । बोलता जाता , वह टाइप करती जाती । हिंद पाकेट बुक्स के दीनानाथ मल्होत्रा तब एक उपन्यास के दो हज़ार रुपए देते थे । पांडुलिपि मिलते ही । सरस्वती प्रकाशन में काम कर रहे एक सज्जन को जब यह पता चला तो वह बोले , आप मेरे लिए लिखिए । मैं एक उपन्यास के तीन हज़ार रुपए दूंगा । मैं उन के लिए लिखने लगा । वह विभिन्न अफसरों के नाम से उपन्यास छापते थे अपने निजी प्रकाशन से । अफसरों को उपकृत करते थे । और उन अफ़सरों से अपना उल्लू सीधा करते थे । दो उपन्यास के पैसे भी उन्हों ने मार लिए । अब तक नहीं दिए । अब लगता है , यह काम नहीं करना चाहिए था । अपराध था यह । मेरी ऊर्जा और रचना दोनों का ह्रास हुआ । लिखने को बहुतेरे लेख , कविताएं , समीक्षाएं आदि भी दूसरों के नाम से लिखी हैं पर अफ़सोस उपन्यास पर ही होता है । यह अस्सी के दशक के शुरु के दिन थे। जिन अफ़सरों के नाम वह उपन्यास छपे , जो उन का नाम बता दूं आज तो हंगामा हो जाए। बहरहाल वह लोग भयभीत न हों । निश्चिंत रहें । मैं किसी का नाम नहीं बताने जा रहा ।
लेकिन बोल कर लिखवाने की तासीर ही अलग है । लगता है जैसे सामने कोई सिनेमा चला रहा हो , मैं देख रहा हूं और बोल रहा हूं । सब कुछ लाइव । मैं ने बहुतेरी ख़बरें भी बातचीत के अंदाज़ में लिखी हैं । कहीं भी किसी को कोई विशेषण नहीं दिया कि यह अला है या फला है । बस बातचीत रख दी । वर्बेटम । बिना कुछ नोट लिए या टेप किए । और अख़बार छपने की सुबह लोग गिरफ़्तार हो गए हैं । सस्पेंड हो गए हैं । अनगिनत बार । लोग समझते थे कि मैं टेप कर लेता हूं अनजान बन कर और लिख देता हूं , टेप सुन कर । जब कि ऐसा नहीं था । पर जब कुछ बहुत आत्मीय लिखना हो , बहुत घना और संवेदनशील लिखना हो तो वह मैं कलम से ही लिखता हूं । कुछ ऐसा होता ही है जो आप बोल कर नहीं लिख सकते । टाइप कर के नहीं लिख सकते । महसूस कर , चुपचाप रह कर , अपने में खो कर ही लिख सकते हैं । निजी छुअन मांगती हैं कुछ चीज़ें। प्रेम की तरह ।
सुनता हूं कि लोग एक रचना के चार ड्राफ़्ट , छ ड्राफ़्ट , जाने कितने ड्राफ़्ट लिखते हैं । मैं ऐसा नहीं करता । बिलकुल नहीं करता । मेरा पहला ड्राफ़्ट ही आख़िरी ड्राफ़्ट होता है । हां यह ज़रूर हो सकता है कि प्रूफ़ पढ़ते समय कुछेक शब्द , कुछेक वाक्य बदल जाते हों । कुछ घट-बढ़ जाते हों । बस । बस इतना ही । कुछ क्या ज़्यादातर कहानियां मेरी एक ही सिटिंग में लिखी गई हैं । हां , लंबी कहानियों में यह सिटिंग स्वाभाविक रूप से एक या दो नहीं हो सकती । लेकिन लिखना तभी बंद होता है जब हाथ , अंगुलियां पूरी तरह जवाब दे जाती हैं । थक कर चूर हो जाती हैं । मन भी शांति चाहता है , लिखने के कोलाहल से । जैसा कि पहले बताया ही कि लिखना कई बार अनायास हो जाता है , कई बार बहुत चाह कर भी नहीं । कुछ घटनाएं , कुछ बातें ऐसी होती हैं जो आप को तुरंत घेर कर बैठा लेती हैं और लिखवा लेती हैं । संगम के शहर की लड़की ऐसी ही कहानी है । जिस दिन उस लड़की को देखा-सुना , उस ने इतना विचलित कर दिया, इतना रुला दिया कि घर लौट कर उसी शाम लिख कर उस की यातना को साझा किया । पर मुक्त आज तक नहीं हुआ । वह आज भी रह-रह कर सामने आ कर खड़ी हो जाती है । बड़की दी का यक्ष प्रश्न के साथ भी यही हुआ । जिस दिन बड़की दी से मिल कर लौटा उसी रात रोते-रोते उस दुःख को लिख कर साझा किया । प्रेम की तासीर में डूबी कई सारी कविताएं भी तुरंत उसी दिन लिखीं । या एक दो दिन में । अगर नहीं लिखी , बात टल गई तो जाने कब तक के लिए टल गई , कि सर्वदा के लिए टल गई , मैं नहीं जानता , नहीं जान पाता । कहानियों के साथ भी यह हुआ है । जाने किन लहरों में अनलिखी रचनाएं बह जाती हैं । कि जैसे पहली ही बार में आई लव यू नहीं बोल दिया , सकुचा गए , तो जैसे ज़िंदगी भर के लिए वह प्रेम भूत काल हो गया । फिसल गया हाथ से , जीवन से निकल गया। किसी रचना के साथ भी यही होता है मेरे साथ । लौट-लौट यादों में तो बसती रहती हैं , बतियाती , गुहराती और पुकारती रहती हैं पर रचना में नहीं उतर पातीं । तो क्या रिसिया जाती हैं रचनाएं भी ? क्या पता ? लेकिन मेरी हालत बच्चन जी के उस गीत की तरह हो जाती है कि ; इसी लिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो ! पर कहां और कौन पुकारे है मुझे ? सब आगे निकल जाती हैं । मैं ताकता रह जाता हूं। खड़ा रह जाता हूं । बेबस ।
एक बार क्या हुआ कि अम्मा गांव से लखनऊ आईं । कुछ दिन रहीं । और जब जाने लगीं तो छोटी बेटी को साथ लेती गईं । बेटी डेढ़-दो साल की रही होगी । हम अम्मा-पिता जी को छोटी बेटी के साथ ले जा कर ट्रेन में बिठा आए। स्टेशन से बाहर आते ही पत्नी रोने लगीं। तब हम चारबाग स्टेशन पर थे। कहने लगीं चलिए जल्दी से बादशाह नगर स्टेशन। मैं ने पूछा क्यों ? किस लिए ? बोलीं , बेटी को वहीं उतार लेंगे। मैं ने कहा कि यह मुझ से नहीं होगा। हम नहीं गए बादशाह नगर। घर आ कर पत्नी ने ज़िद पकड़ ली कि आज ही गोरखपुर चलिए, बेटी को वापस ले आएंगे। मैं ने फिर मना किया और समझाया कि बच्चों की तरह बात मत करो। लेकिन पत्नी ने हफ़्ते भर में ही रो-रो कर बुरा हाल कर लिया। हफ़्ते भर में ही हम गांव पहुंच गए। हमें देखते ही अम्मा मुसकुराई। वह सब समझ गई। छोटी बेटी को देखते ही पत्नी रोने लगीं। पर छोटी बेटी पत्नी के पास आने को तैयार ही नहीं। मैं ने बुलाया तो मेरे पास भी नहीं आई। बड़ी मुश्किल से शाम को हमारे पास आई। पर गोद में आने को फिर भी तैयार नहीं। पता चला कि वह डेढ़-दो साल की बेटी मां बाप दोनों से मनोवैज्ञानिक रुप से नाराज थी। कि हम को अचानक अपने आप से अलग क्यों किया। यह बात बहुत बाद में एक मनोविज्ञानिक मित्र ने बताई। बेटी की वह शिशुवत नाराजगी आज भी कई बार लगता है कि उस के मन में बसी हुई है । गई नहीं है ।
तो क्या रचनाएं भी समय से न लिखने पर नाराज हो जाती हैं ? रिसिया जाती हैं ? गुस्सा हो जाती हैं ? चरित्र खफ़ा हो जाते हैं ? जैसे तब मेरी अबोध बेटी नाराज हो गई थी। आख़िर रचनाएं भी तो संतान ही हैं । ऐसी अजन्मी और नाराज रचनाओं की संख्या भी अनगिन है । कब किस को लिख पाऊंगा , मैं नहीं जानता। कभी लिख भी पाऊंगा कि नहीं यह भी नहीं जानता। नई रचनाएं भी , नए चरित्र भी अकसर दस्तक देते रहते हैं । दे ही रहे हैं । हालां कि न लिखते हुए भी मैं मन ही मन लिखता रहता हूं। लिखना चलता रहता है हरदम। चीजें पकती रहती हैं । सतत प्रक्रिया है यह । जैसे गर्भ में शिशु पलता रहता है । मां के गर्भ में हलचल मचाता रहता है । पेट में लात मारता रहता है । मीठा-मीठा दर्द देते हुए । मां इस दर्द के बावजूद ख़ुश रहती है । आने वाली संतान के प्यार में । मोह में। मोह का यह धागा ही उसे जोड़े रखता है। मेरी रचनाओं के मोह का धागा भी इसी तरह मुझे मां बनाए रखता है । इसी बिना पर कई बार मैं सोचता हूं कि काश मैं स्त्री होता । रचनाओं का जन्म कितना सुख देता है , तो अगर स्त्री भी होता और संतान जन्म देता तो कितना सुख मिलता । सुख से भर जाता । हां, यह ठीक है कि हर रचना का कागज़ पर उतरना हरदम मुमकिन नहीं हो पाता। शिशु जन्म नहीं ले पाता । इस तकलीफ़ की तफ़सील भी बहुत है ।
एक समय था कि कोई कुछ भी लिखने को कहता था , मैं तुरंत लिखने को तैयार हो जाता था । लिख कर पकड़ा देता । कहता नहीं अघाता था कि मुझे जब जो कहिए लिख दूंगा। अब भी लिख देता हूं। पर कई बार अब नहीं भी लिख पाता हूं। बहुत चाह कर भी। जब कि पहले ऐसा नहीं था। जब रिपोर्टर था , तब मैं राजनीति , साहित्य , सिनेमा , थिएटर , संगीत और अपराध आदि सभी बीट पर सहज भाव से लिखता रहता था। धुआंधार लिखता था। इस लिखने को ख़ूब इंज्वाय करता था। इंटरव्यू लेना भी मेरा प्रिय शग़ल है । नौकरियों के लिए भी मैं बच्चों के इंटरव्यू लेता रहा हूं । पर किसी सेलिब्रेटी से इंटरव्यू करना रोमांचक होता है । बहुत लोग अचरज करते थे , कि राजनीति , साहित्य , संस्कृति और सिनेमा के साथ अपराध भी पर भी एक साथ आप कैसे लिख लेते हैं ? पर एक समय मैं राजनीति के साथ-साथ स्टेट क्राईम और होम डिपार्टमेंट भी देखता था। कुख्यात अपराधियों , माफियाओं और खुर्राट आई पी एस अफ़सरों की ख़बर पूरी तबीयत से लेता रहता था । चार सौ बीसों , अपराधियों के अलावा मंत्री रहे कुछ राजनेता भी मेरी ख़बरों पर जेल गए हैं । कई आई ए एस और आई पी एस अफ़सर सस्पेंड हुए हैं । पर यह और ऐसी कहानी फिर कभी ।
पहले कहानी भी एक सिटिंग में लिखता था। अब भी एक से दो सिटिंग में लिखता हूं। लंबी कहानियों की सिटिंग कुछ और बढ़ जाती है। लेकिन कुछ कहानियां हैं जो एक सिटिंग में पूरी नहीं हुईं। दूसरी सिटिंग के लिए बार-बार सोचता हूं , पर जाने क्यों उन कहानियों के लिए बैठ नहीं पा रहा। इस की जड़ में कुछ पारिवारिक मुश्किलें तो उलझाए हुए हैं , वह तो हैं ही । बेटियों की शादी तय करने में निरंतर असफलता हाथ आना भी एक बड़ा फैक्टर है । बहुत पढ़ी-लिखी योग्य और सुंदर बेटियों का विवाह न हो पाना भी तबाह किए रहता है । पारंपरिक शादी आज की तारीख़ में टेढ़ी खीर है । बेटे वालों के नखरे , टोटके और अकड़ तोड़ कर रख देती है । बराबरी से बात करने का सलीक़ा भी यह लोग नहीं जानते । पहाड़ काटना शायद आसान है , बेटी का व्याह करना मुश्किल । दुनिया बदल गई पर विवाह योग्य लड़के , उन के पिता और परिवार नहीं बदले । उन का सामंत नहीं बदला । शायद कभी नहीं बदलेंगे । उन की कलफ़ लगी अकड़ नहीं बदलेगी । कुंडली भी मिलनी चाहिए , स्वप्न सुंदरी भी चाहिए , लाखों कमाने वाली चाहिए , लाखों-करोड़ो रुपए दहेज़ भी । यह भी चाहिए , वह भी चाहिए । सिर्फ़ चाहिए और चाहिए । बड़े-बड़े क़रीबी लोग भी इस हमाम में नंगे मिले हैं । लाचार मिले हैं । तफ़सील बहुत है । कम से तीन उपन्यास की सामग्री इकट्ठी है । उम्र के इस पड़ाव पर नौकरी की समस्याएं भी अचानक आ खड़ी हुई हैं । इन सब से पार पा लूं तो फिर यह मेरा आलस , मेरा सोना भी मुझ पर बहुत भारी है । जैसे यह सब कम पड़ रहा था कि यह ससुरा फ़ेसबुक भी अब मेरे लेखन की सौत बन गया है । लिखने-पढ़ने के हिस्से का ढेर सारा समय और ऊर्जा यही सोख लेता है । इतना कि ये दिल किस को दूं फ़िल्म में क़मर जलालाबादी का लिखा मुबारक़ बेग़म और आशा भोंसले का गाया एक पुराना गीत याद आने लगता है , हमें दम दई के सौतन घर जाना , बैरन घर जाना ! फ़ेसबुक पर ढेर सारा समय और ऊर्जा गंवाते हुए इस गाने की तासीर समझ में आती है । पर हमारे लेखन की सौतन फ़ेसबुक का स्वाद , स्वभाव और नशा ही कुछ ऐसा है कि बहुत चाहने पर भी हाल-फ़िलहाल छूटता ही नहीं । कब छूटेगा , छूटेगा भी कि नहीं , पता नहीं ।
एक समय मुझे छपास की बड़ी बीमारी थी। यह विद्यार्थी दिनों की बात है। हर हफ़्ते किसी न किसी पत्रिका या अख़बार में छपना ज़रूरी था। जिस हफ़्ते कहीं कुछ नहीं छपता था मैं शहर में निकलता नहीं था । किसी से मिलता नहीं था । शर्म आती थी । संकोच होता था । लेकिन छपने पर साइकिल ले कर सीना तान कर निकलता था । इन से , उन से मिलता था । लेकिन क्या हुआ कि बाद में कुछ साल तक कहानी-कविता सब भूल गया । कई सालों तक मैं ने कुछ नहीं लिखा । न कविता , न कहानी। अख़बारी ज़िंदगी लेखन पर भारी पड़ गई थी । कई बार अपने आप से ही मिल पाना दूभर हो गया था । तो क्या कहानी और क्या कविता से मिलता भला ? कहानी तो फिर अचानक शुरू हो गई । पर बहुत सालों से , कोई पैतीस सालों से कविता लिखना छूट गया था । लगता था कि अब कभी कविताएं नहीं लिख पाऊंगा। पर बीते साल सर्दियों में जब अचानक कविताएं लिखनी शुरू कीं तो कोई डेढ़-दो महीने में एक संग्रह भर की कविताएं हो गईं । रजाई में बैठ कर कविता लिखना औचक सुख दे गया । इन कविताओं का संग्रह भी छप गया है इस साल । पुरानी कविताएं लेकिन बहुत खोजने पर भी नहीं मिलीं । बहुत सी कहानियां भी इसी तरह गुम हैं । जो अख़बारों , पत्रिकाओं में तो छपीं पर किसी संग्रह में आने से वंचित रह गई हैं । कविताएं अभी भी एक सिटिंग में लिखता हूं। नोक , पलक भले बाद में ठीक करता हूं । जो कविताएं , दूसरी सिटिंग के लिए छोड़ी , वह आज तक छूटी ही रह गई हैं । जाने कब पूरी होंगी , होंगी भी कि नहीं , मैं नहीं जानता। एक ही साल में एक साथ मेरे दो उपन्यास भी छपे हैं एक साथ । अभी हैं तो कुल सात उपन्यास मेरे खाते में पर ग्यारह साल के भीतर पांच उपन्यास मेरे छपे हैं । पर पिछला उपन्यास बांसगांव की मुनमुन वर्ष 2012 में छपा था । जिसे लिखा था वर्ष 2010 में । पांच साल हो गए । तब से कोई उपन्यास नहीं लिख सका हूं। बहुत चाह कर भी । कई सारे प्लाट मन में पसरे पड़े हैं । लगातार अंकुआते रहते हैं। बेचैन और बेबस करते रहते हैं। झुलसाते रहते हैं अपनी आग और अपनी आंच में । तब भी नहीं लिख पा रहा। तो क्या मेरी कलम ठहर गई है ? बंजर हो गई है मेरे उपन्यास की धरती ? कि किसी ऊसर या दलदल में फंस गया है मेरा उपन्यास लिखना । इस लिए भी कि अब मैं मानने लगा हूं कि लिखना मतलब उपन्यास लिखना ही है । बाक़ी तो सब टाइम पास है । तो क्या अब मैं टाइम पासर हो कर रहा गया हूं ? बांझ बन कर रह गया हूं ? यह और ऐसे कुछ अप्रिय प्रश्न अपने आप से मैं लगातार पूछ रहा हूं इन दिनों। ताड़ना की हद तक । कोई जवाब नहीं मिल रहा है । रमानाथ अवस्थी एक गीत में लिख गए हैं , मेरे पंख कट गए हैं , वरना गगन को गाता ! आज कल इस गीत को मैं अकसर बुदबुदाता हूं।