साल 1960 में प्रख्यात फिल्म निर्माता बिमल रॉय ने ‘परख’ बनाई थी. सलिल चौधरी की लिखी यह फिल्म नेहरू युग के भारतीय राजनीति पर करारा व्यंग्य है. इस फिल्म की कहानी एक पोस्टमास्टर के ईदगिर्द है जिसे 5 लाख रुपये का चेक मिलता है. उसे यह चेक गांव के किसी ऐसे सबसे उपयुक्त व्यक्ति को देनी है जो इससे लोगों का कल्याण कर सके. पोस्टमास्टर (नासिर हुसैन) इसके लिए चुनाव करने का निर्णय लेता है. यह चुनाव असल में इस बात का एक क्लासिक केस स्टडी है कि राजनीति में लोग कितने नीचे तक गिर जाते हैं. इसके 58 साल के बाद भी आज देखें तो भारतीय राजनीति में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है. बिमल रॉय की यह फिल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है.
गांवों के हालात में ज्यादा बदलाव नहीं
यह साल 2018 है. हम नई सदी में पहुंच चुके हैं और आज डाकखानों का इस्तेमाल लोग बहुत कम करते हैं, लेकिन गांवों के हालात में अब भी बहुत कम बदलाव आया है, जहां गरीबी, जातिगत विभाजन और बुनियादी सुविधाओं का अभाव जैसी समस्याएं बनी हुई हैं. सभी तरह के राजनीतिज्ञ अब भी निर्दोष ग्रामीणों में धार्मिक भावनाओं को हवा देकर सत्ता की लड़ाई में उन्हें अपना प्यादा बनाए रख सकते हैं.
पिछले कई दशकों में जोश से भरे और जुबानी हमलों वाले चुनाव प्रचार अभियानों ने राज्य और समाज को विभाजित किया है. आज की चुनावी राजनीति में वार और प्रति-वार दिन-ब-दिन शातिर किस्म के होते जा रहे हैं. हम शायद ही राजनीतिज्ञों को विकास से जुड़े मसलों पर बहस करते देखते हैं. कर्नाटक विधानसभा चुनाव भी इससे कुछ अलग नहीं है.
पटरी पर लौटेगा समाज
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जैसे शीर्ष नेताओं के बीच जुबानी जंग राजनीतिक मसलों तक ही सीमित नहीं है. पीएम मोदी और राहुल गांधी, दोनों ने कर्नाटक चुनाव में अपने नंबर बढ़ाने के लिए एक-दूसरे पर निजी हमलों से परहेज नहीं किया है. लगता है कि हमारे नेता यह भूल गए हैं कि जब चुनाव खत्म होंगे तो समाज फिर से उसी तरह से सौहार्दपूर्ण रास्ते पर आ जाएगा.
ज्यादातर लोगों को कुछ नहीं मिलने वाला
15 मई को जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों की घोषणा होगी, साफ हो जाएगा कि कर्नाटक का ताज किसके सिर पर सजेगा. लेकिन जैसा कि देश के ज्यादातर चुनावों में होता है, एक बड़े हिस्से को इस चुनाव से कुछ नहीं मिलने वाला. जिस पार्टी को 40 फीसदी के आसपास वोट मिल जाएंगे, वह विजेता हो सकता है, लेकिन बाकी हिस्से के लोग पराजित महसूस करेंगे.
राजनीति से ऊपर उठकर काम करने वाले नेता नहीं
चिंता बढ़ाने वाली बात यह नहीं है कि चुनाव अभियानों कितनी गर्मा-गर्मी आ गई है, बल्कि यह कि अब ऐसे नेताओं का अकाल हो गया है जो चुनाव अभियानों के दौरान होने वाली राजनीति से समाज में आने वाले विभाजन को दूर कर सकें. यह सिर्फ कर्नाटक की ही नहीं बल्कि पूरे देश की चिंता है. अब वे नेता कहा हैं जो राजनीति से ऊपर उठकर समाज के भले के लिए काम कर सकें.
हर चुनाव हमारे समाज को और विभाजित कर देता है. जुनून चरम पर होता है, खासकर सोशल मीडिया में, लोग राजनीतिक मतभेदों की वजह से एक-दूसरे को ब्लॉक या अनफ्रेंड कर देते हैं, इससे विभाजन और गहरा हो जाता है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का यह कथन सबसे प्रख्यात रहा है-‘राजनीति में मतभेद रखिए, मनभेद नहीं.’ हम अक्सर मतभेदों पर पर्दा डाल देते हैं. अब समय आ गया है कि एक देश के रूप में हम उठें और समाज के ताने-बाने को नवसृजित करने के लिए स्मार्ट रवैया अपनाएं और उस भरोसे को फिर से कायम करें, जिसे कि आज राजनीतिक सोच में गिरावट की वजह से नुकसान पहुंचा है. समाज में आज जो ध्रुवीकरण है उसके लिए सिर्फ राजनीतिज्ञों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. अक्सर मीडिया भी प्रतीकात्मक टकरावों को ज्यादा तवज्जो देती है, बजाय लोगों के दैनिक जीवन पर असर डालने वाले मसलों पर ध्यान देने के.
क्या हम मिलजुल कर काम करने के लिए तैयार हैं
इससे एक सवाल उठता है. क्या हम चुनाव खत्म होने के बाद मिलजुलकर काम करने के लिए तैयार हैं, जिससे शिक्षा, बिजली की पहुंच, स्वास्थ्य, विकास परियोजनाओं, पर्यावरण चिंताओं, बुजुर्गों की उपेक्षा, शराब की बुरी लत, प्राकृतिक संसाधनों का अतिशय दोहन, किसानों की आत्महत्या, भूख और आवास जैसे मसलों को हल किया जा सके? क्या सरकार के गठन के बाद पीएम मोदी और राहुल गांधी राज्य की समस्याओं के समाधन के लिए एक साथ आएंगे?
बिमल रॉय की पारख में गांव का पोस्टमास्टर वित्तीय मुश्किलों में फंस जाता है-सिर पर कर्ज, अत्यंत बीमार पत्नी और एक बेटी जिसकी वह किसी ऐसे व्यक्ति से शादी करना चाहता है जो उसे प्यार और सम्मान दे. यह सब उसे सीमित सामाजिक मदद और संसाधनों के साथ करना है. दुखद यह है कि नेहरू से मोदी तक लेकर भारतीय गांवों की दशा में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है.
पिछले सात दशकों में भारत की प्रगति की जो सुस्त गति रही है उसे अक्सर सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली की सबसे बड़ी कमी मानी जाती है. लेकिन दुनिया के कई देशों में जो अधिनायकवादी शासन का विकल्प है उसे लोकतंत्र का बेहतर विकल्प नहीं माना जा सकता. ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘किसी लोकतंत्र के खिलाफ सबसे बड़ा तर्क बस एक आम वोटर से पांच मिनट की बातचीत कर लेना है.’ भारतीय राजनीति और समाज को ऐसे नेताओं की जरूरत है, जो विविधता को विभाजन में बांटने के प्रलोभन का प्रतिकार करें और अपने निहित मतभेदों के बावजूद समाज के विभिन्न वर्गों को एकीकृत करें.