गोरखपुर : देश की लोकतांत्रिक मान्यताओं का महापर्व होता है चुनाव, चाहे वो लोकसभा के हों या विधानसभा के या पंचायतों के। पांच वर्ष के बाद एक ऐसा समय आता है, जब देश की जनता थोड़े ही समय के लिए अपने को देश का कर्णधार मानने लगती है, और कल तक उस पर हुक्म और दबंगई की चाबुक चलाने वाला नेता, किसी घरेलू नौकर से भी अधिक दीनहीन, याचक के रूप में खडा नजर आता है। 2019 की लोकसभा का यही महापर्व चल रहा है। जबतक यह रिपोर्ट आपके हाथ में होगी, तब तक देश के नीति नियामकों को चुनने के 6 दौर समाप्त हो चुके होंगे, और अंतिम सातवें दौर को जीतने के लिए राजनैतिक दलों की सरगर्मी अपने शबाब पर होगी।
सातवें चरण के इस दौर की निर्णायक लड़ाई के बीच हम आपको उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा में तेजी से ऊपर की सीढ़ी चढ़ रहे, प्रखर हिन्दुवादी नेता और उग्र हिन्दुत्व के प्रचंड ध्वजवाहक योगी आदित्यनाथ के गढ़ गोरखपुर मंडल में ले चल रहे हैं, जहां की पांच लोक सभा सीटों पर 19 मई को मतदान होना है, और जहां 2017 के उपचुनाव में योगी को मिली पराजय के बाद योगी को भी अपनी प्रतिष्ठा को बचाने की जद्दो जहद करनी पड़ रही है।
विगत 6 चरणों में आरोप प्रत्यारोप, गाली और स्तरहीन भाषा की मारा मारी के बीच देश के विकास और आम आदमी से जुड़े तमाम मुद्दे पता नही किस अंतरिक्ष में गुम हो गए हैं। गोरखपुर भी इससे अलग नही है, और अब यहां भी चुनाव मुद्दों के स्थान पर योगी – मोदी – अखिलेश – राहुल – मायावती के नाम और जातियों के बीच उलझ गया है। कंही कंही नाराज गन्ना किसान मुंह उठा रहे हैं, तो कंही केन्द्र द्वारा दी गई उज्जवला योजना, शौचालय, आवास योजना मोदी फैक्टर के रूप में अपना रंग दिखा रही हैं।
गोरखपुर की पहचान हिन्दु धार्मिक ग्रंन्थ छापने वाली गीता प्रेस से होती है, तो नेपाल और बिहार की सीमाओं से सटे होने के कारण इसकी एक अलग अंतरराष्ट्रीय स्तर की भी पहचान है। इसके साथ ही नाथ संम्प्रदाय के विश्वख्यात गोरक्षनाथ मंदिर ने भी इसे पहचान दी है, जहां के योगी आदित्यनाथ महंथ हैं।
अतीत के आइने में देखा जाए तो 1989 से 2014 तक गोरखपुर संसदीय सीट पर गोरक्षनाथ मंदिर का कब्जा रहा है। 1989 में योगी के गुरू ब्रह्मलीन महंथ अवेद्यनाथ ने हिन्दुमहासभा से जीत दर्ज की। 1991 और 1996 में अवेद्यनाथ ने भाजपा के लिए यहां से विजयश्री का वरण किया। 1998 में युवा उत्तराधिकारी योगी को उन्होने चुनाव लड़ाया, जहां से योगी ने देश की सबसे बड़ी संसद में सबसे कम उम्र के सांसद के रूप में कदम रखा, फिर योगी ने यहां से 1999, 2004, 2009 और 2014 में लगातार जीत दर्ज के अपनी पकड़ का लोहा मनवाया। पर 2014 में 3 लाख से भी अधिक मतों जीत दर्ज करने वाले योगी 2017 में प्रदेश के मुख्यमंत्री होने के बाद यहां हुए उपचुनाव में खांटी के ब्राह्मण नेता उपेन्द्र शुक्ला को विजय श्री नही दिला पाए। और एक लंबे अंतराल के बाद जहां पहली बार गोरखपुर की जनता ने योगी को प्रकारांतर हार का स्वाद चखाया, जिसने राजनैतिक क्षेत्र में खासा बवंडर खड़ा किया। यहां से सपा के नौसिखिये इं. प्रवीण निशाद ने यह सीट सपा के लिए जीती।
चोट खाए योगी ने निशाद बाहुल्य इस क्षेत्र में 2019 का चुनाव आते ही प्रवीण को उसके पिता निशाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निशाद सहित भाजपा में शामिल कर सपा को झटका देना चाहा, तो सपा ने तत्काल निशाद जाति के कद्दावर नेता रामभुआल निशाद को प्रत्याशी बना कर डैमेज रिपेयर कर दिया। 2014 की सफलता के भ्रम में भाजपा ने उपेन्द्र शुक्ला सहित गोरखपुर के तमाम नेताओं को नजरअंदाज कर भोजपुरी सिनेमास्टार रविकिशन शुक्ला को टिकट देकर लगभग आत्मघाती कदम उठा लिया।
उधर हिन्दू युवा वाहिना से भाजपा के बिगड़े रिश्ते ने भी तमाम वरिष्ठ भाजपाइयों को लगभग साइलेन्ट मोड में डाल दिया है। उपेन्द्र शुक्ला को फिर से टिकट ना मिलने से बौखलाया ब्राह्मण वर्ग अभी भी रविकिशन को पचा नही पा रहा। योगी प्रण प्रांण से प्रचार में लगे हैं, पर कहा जा सकता है, कि राह कठिन है, मोदी फैक्टर का ही सहारा है।
गोरखपुर के दक्षिणांचल स्थित बांसगांव (सु0) संसदीय सीट से भाजपा ने एक बार फिर अपने निवर्तमान सांसद कमलेश पासवान को हैट्रिक बनाने का अवसर दिया तो जरूर है,पर लगातार दो चुनाव जीतने और इसी संसदीय क्षेत्र की बांसगांव विधानसभा से अपने छोटे भाई विमलेश पासवान को विधायक बना लेने के बाद भी विकास के कार्य दिखा पाने में असमर्थ पासवान के सामने चुनौती थोड़ी कठिन है। इसके साथ ही ठाकुर बाहुल्य क्षेत्र में पासवान की दबंग छवि भी आड़े आ रही है।
पासवान की हैटिक के राह में गठबंधन के प्रत्याशी और बसपा के ट्रम्पकार्ड के रूप में पूर्व घोषित प्रत्याशी दूधनाथ को बदल कर लाए गए सदल प्रसाद (प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री ) भी एक रोड़े के रूप में खड़े नजर आ रहे हैं। उन्हे इस संसदीय क्षेत्र की गोरखपुर में पड़ने वाली तीन विधान सभाओं के साथ देवरिया जनपद में पड़ने वाली बरहज और रूद्रपुर विधान सभा क्षेत्रों में भी अपने सरल स्वभाव का लाभ मिलता नजर आ रहा है। विकास का मुद्दा भी एक बड़ा फैक्टर बनेगा। अब मोदी फैक्टर कितना गुल खिलाएगा, यह तो समय ही बताएगा।
ब्राह्मण सांसद और ठाकुर भाजपा विधायक में संतकबीर नगर की जिला योजना की बैठक में सरेआम चले जूते की गूंज आज भी भाजपा का देवरिया में पीछा कर रही है। शरद त्रिपाठी का संतकबीर नगर से टिकट काटने के बाद नाराज ब्राह्मणों को मनाने के क्रम में योगी ने शरद त्रिपाठी के स्थान पर उनके पिता और भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डा. रमापतिराम त्रिपाठी को स्थान बदल कर देवरिया से प्रत्याशी बनाया। पर भाजपा का यह दांव भी थोड़ा कमजोर ही दिख रहा है, जहां देवरिया के ब्राह्मणों को लगाता दूसरी बार बाहर के प्रत्याशी को झेलना पड़ रहा है, वंही अपने पिता के प्रचार में शरद के घूमने से यहां का ठाकुर मतदाता अपमानित और आक्रोषित नजर आ रहा है।
उधर भीतरखाने से मिल रही जानकारी के अनुसार प्रदेश सरकार में मंत्री और भूमिहार वर्ग के कद्दावर नेता सूर्यप्रताप शाही का नाम चलने के बाद टिकट नही मिलने से वे भी अंदरूनी नाराज ही हैं, वंही भाजपा के एक और भूमिहार नेता रामाशीष राय द्वारा विद्रोह के बिगुल ने भी समस्या पैदा कर दी है। ऐसे में अपने परंपरागत मतों के साथ मुस्लिम मतों के सहारे गठबंधन के प्रत्याशी विनोद कुमार जायसवाल की पकड़ मजबूत दिख रही है।
बिहार से सटे मंडल की कुशीनगर संसदीय क्षेत्र की लड़ाई गन्ना किसानो के आक्रोष और मोदी फैक्टर के मध्य लड़ी जाती दिख रही है। यहां 2009 में कांग्रेस से जीते राज परिवार के कुवर आर.पी.एन.सिंह 2014 में मोदी लहर में भाजपा के राजेश पांडेय से हार गए थे। क्षेत्र की जनता जहां 2009 के बाद के विकास को देखती थी, तो वंही 2014 में जीते राजेश पांडेय की विकास के प्रति बेरूखी ने भी उन्हे काफी रूलाया। अंततः भाजपा ने पूर्व में कुंवर के आशीर्वाद से कांग्रेसी विधायक बने विजय दूबे को ही एक बार फिर भाजपा प्रत्याशी के रूप में उतार कर चेले से गुरू को ही चुनौती दिलवा दी। वैसे तो यहां राजपरिवार की काफी इज्जत है, दूसरे राज परिवार समय समय पर लोगों के लिए खड़ा भी होता रहा है, क्षेत्र में उनकी सैठवार बिरादरी के मत भी काफी हैं पर योगी ने विजय की जीत को अपने सम्मान से जोड़ कर अपना पूरा दम लगा दिया है। पर उन्हे 2014 में मोदी द्वारा पड़रौना में गन्ना किसानों से किये गए वायदों के बाद पालन ना करने से गन्ना किसानो की नाराजगी का भी डर सता रहा है। वैसे कहा जा सकता है कि यहां तुला बराबर पर अंटकी है।
अगर भाजपा के नाराज ब्राह्मणों को पार्टी मना नही पाई, तो भाजपा के लिए यह काफी दिक्कतों का सफर हो सकता है। भाजपा को योगी के आशिर्वाद के साथ ही मोदी फैक्टर का भी सहारा है।
इसी क्रम में नेपाल से सटे महराजगंज लोकसभा सीट ही एकमात्र ऐसी सीट नजर आ रही है, जहां कहा जा सकता है कि यहां से भाजपा प्रत्याशी पंकज चैधरी संभवतः अपनी छठी जीत का जश्न मना सके। हालांकि उसका आधार उनका कार्य या लोकप्रियता नही है, वरन विकल्प के अभाव में यहां की जनता उन्हे वोट कर सकती है। यहां से कांग्रेस ने पूर्व सांसद और जुझारू स्वभाव के नेता स्व. हर्शवर्धन की पुत्री और पेशे से पत्रकार सुप्रिया श्रीनेत्र को अपना प्रत्याशी बनाया है, जिन्हे अपने पिता के नाम का ही सहारा है।
उधर गठबंधन ने सपा के पूर्व सांसद कुंवर अखिलेश सिंह को चुनाव मैदान में उतारा है। सपा प्रत्याशी की आम जन से दूरी और अपने खो चुके जनाधार के कारण वो भाजपा को कड़ी टक्कर दे पाने में शायद समर्थ नजर नही आ रहे। लोगों का मानना है कि अगर गठबंधन ने क्षेत्र के पूर्व मंत्री और दबंग नेता अमर मणि त्रिपाठी की पुत्री को प्रत्याशी बनाया होता, तो शायद भाजपा को कड़ी टक्कर मिलती।