अमेरिका के चार शहरों बोस्टन, शिकागो, कैलिफोर्निया व न्यूयार्क में सभाओं को संबोधित करने वाली उत्तरकाशी जिले के छमरोटा गांव की आशा कार्यकर्ता सावित्री सेमवाल अब एक सेलिब्रिटी बन चुकी हैं। यह सभाएं सावित्री ने 15 मार्च से 30 मार्च के मध्य संबोधित की। ठेठ गंवई अंदाज वाली हिंदी में सावित्री ने जब अपने संघर्षों की गाथा सुनानी शुरू की तो अनुवादक की मदद से सुनने वाले श्रोता हतप्रभ रह गए। हर सभा में करीब 15 मिनट के संबोधन में सावित्री ने अपनी 10 साल से लेकर 38 साल तक की गाथा इस अंदाज में बयां की कि उपस्थित सैकड़ों विदेशियों ने तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उनका अभिवादन किया। शिकागो में तो मंच से उतरते ही उन्हें विदेशी मीडिया ने घेर लिया। तब मीडिया से ही उन्हें मालूम पड़ा कि स्वामी विवेकानंद की शिकागो यात्रा की 125वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इसी मंच से भाषण दिया था।
सभाओं को संबोधित करते हुए सावित्री ने दोटूक कहा कि भारत की महिलाओं में स्वास्थ्य जागरुकता की कमी है। इसके चलते आज भी सुदूरवर्ती क्षेत्रों में प्रसव के दौरान जच्चा-बच्चा दम तोड़ देते हैं। इस तरह के विकट हालात के बीच से उभरकर वह आशा कार्यकर्ता के रूप में जच्चा-बच्चा की जीवन रक्षा का काम कर रही हैं और यही उनके जीवन का एकमात्र ध्येय भी है। प्रसव से पहले स्वास्थ्य की जांच करना, अस्पताल में प्रसव करवाना, नवजात को कुपोषण से बचाना और परिवार नियोजन करवाना उनकी प्राथमिकताओं में शामिल है। सावित्री ने बताया कि उन्होंने खुद बाल विवाह कि त्रासदी झेली है।
देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर के ग्राम थंता में उनका जन्म हुआ। वर्ष 1991 में दस वर्ष की उम्र में उनका उत्तरकाशी जिले के नौगांव ब्लॉक स्थित छमरोटा गांव में रामप्रसाद सेमवाल के साथ विवाह हो गया। तब वह पांचवीं में पढ़ रही थीं। यह तो खुशनसीबी रही कि पति व ससुरालियों का उसे भरपूर प्यार मिला। साथ ही उसकी पढ़ाई का भी पूरा ख्याल रखा। जिससे वह 10वीं पास कर सकी। संयोग से दसवीं पास करने वाली वह गांव की इकलौती बेटी थी।
प्रसव पीड़िता की मौत ने बदला नजरिया
सावित्री बताती हैं, ‘वर्ष 1998 के दौरान गांव में मेरे सामने ही एक प्रसव पीड़िता की मौत हो गई। तब मैं स्वयं भी गर्भवती थी। बस! मैंने ठान लिया कि अस्पताल में अपने स्वास्थ्य की जांच कराऊंगी। मैं सिर्फ दो ही बच्चे चाहती थी, लेकिन परिवार की जिद पर तीसरे बच्चे को जन्म देना पड़ा, लेकिन इसके बाद मैंने जिद करके परिवार नियोजन करवा दिया।
शहरों के नाम पर सिर्फ देहरादून देखा था
गांव में पढ़ी-लिखी और स्वास्थ्य के प्रति जागरूक होने के कारण वर्ष 2007 में सावित्री का चयन आशा कार्यकर्ता में रूप में हुआ। बताती हैं, काम के दौरान मेरा संपर्क अमेरिकन-इंडियन फाउंडेशन और आंचल चेरिटेबल ट्रस्ट के सहयोग से संचालित मेटरनल एंड न्यू बोर्न सर्वाइवल इनीशिएटिव (मानसी) से हुआ। अमेरिकन-इंडियन फाउंडेशन के मेरे काम को परखने के बाद मुझे अमेरिका बुलाया गया। तब शहरों के नाम पर मैंने सिर्फ देहरादून को ही देखा था।
90 फीसद डिलीवरी अस्पताल में
सावित्री बताती हैं कि क्षेत्र में वर्ष 2007 से लेकर 2018 तक जन्मे 90 फीसद बच्चे पूरी तरह प्रतिरक्षित हैं। इसमें ऐसे मामले शामिल नहीं हैं, जिनमें अचानक दर्द होने के बाद डिलीवरी हो जाती है। उनके कार्यक्षेत्र में 90 फीसद डिलीवरी अस्पतालों में होती है।
रोगों का पता लगाने में माहिर
काम के साथ-साथ सावित्री का अनुभव भी बढ़ा है। वह गर्भवती महिलाओं और बच्चों को देखकर ही बता देती हैं कि उन्हें किस तरह की दिक्कत है। सावित्री एचबीएनबीसी (होम बेस्ड न्यू बोर्न केयर) का प्रशिक्षण भी ले चुकी हैं।
काम के प्रति समर्पण
सावित्री का नाम गांव की हर महिला की जुबान पर तो रहता ही है, आशा कार्यकर्ताओं के बीच भी उनकी खासी लोकप्रियता है। इसकी वजह है उनका अपने काम के प्रति समर्पण। किसी महिला को कोई भी तकलीफ होने पर वह तुरंत दौड़ पड़ती हैं।