भगवान विष्णु के आठवें पूर्णावतार और हिन्दू धर्म के पुर्नसंस्थापक लीलाधारी श्री कृष्ण ने यूं तो कई चमत्कार किए थे। जैसे जन्म लेते ही जेल के दरवाजे खुल जाना। यमुना में उफान के बावजूद यमुना द्वारा रास्ता देना। बहुत ही छोटी-सी उम्र में पूतना, कालिया नाग, कंस, चाणूर और मुष्टिक का वध करना। लेकिन हम यहां सिर्फ 7 ऐसे चमत्कारों के बारे में बताना चाहते हैं जो कि सिर्फ कृष्ण ही कर सकते थे।
पहला चमत्कार-
एक समय बाल कृष्ण अपने सखाओं के साथ खेल रहे थे। बलराम ने देखा की उन्होंने मिट्टी खा ली है। उन्होंने बाकी सखाओं के साथ मिलकर मां यशोदा से इसकी शिकायत कर दी। यशोदा मां तुरंत आई और कान पकड़कर पूछने लगी कि क्या तूने मिट्टी खाई है। भगवान श्रीकृष्ण अपना मुंह बंद कर गर्दन हिलाकर बताने लगे की नहीं खाई है।
मां ने कहा मुंह खोल तेरा देखती हूं कि खाई की नहीं। कृष्ण ने मुंह खोलकर कहा, ये सभी मित्र झूठ बोल रहे हैं मां। ऐसा कहकर कृष्ण ने अपना मुंह खोल दिया। माता यशोदा को मिट्टी तो नजर नहीं आई मुंह के अंदर लेकिन इसके स्थान पर कृष्ण के मुंह में उन्हें संपूर्ण ब्रह्मांड के दर्शन हो गए। यह देखकर माता यशोदा घबरा गई थी और अपने लल्ला को गले से लगा लिया।
दूसरा चमत्कार-
भगवान श्रीकृष्ण और बलराम उज्जैन (अवंतिका) में सांदीपनि ऋषि के आश्रम में पढ़ते थे। शिक्षा पुरी होने के बाद जब ऋषि को दक्षिणा देने की बारी आई तो कृष्ण को अद्वितीय मान गुरु दक्षिणा में सांदीपनि ने कृष्ण से मांगा कि उनके पुत्र को प्रभास क्षेत्र के समुद्र में रहने वाला एक शंखासुर नामक राक्षस चुराकर ले गया है यह वह समुद्र में डूब गया है। आप उसे वापस ले आएं।’
गुरु की यह बात सुनकर श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ही प्रभाष क्षेत्र के समुद्र तट पर गए और समुद्रदेव से कहा कि वे गुरु के पुत्र को लौटा दें। समुद्र ने उत्तर दिया कि यहां पर कोई बालक नहीं है। तब समुद्र ने बताया कि पाञ्चजन्य नामक समुद्री दैत्य, जो शंखासुर नाम से भी प्रसिद्ध है। संभवत: वह बालक को खा गया है। कृष्ण बालक की खोज में समुद्र में उतरे वहां उन्होंने पाञ्चजन्य शंख में छिपे दैत्य को देखा। दैत्य का उदर चीरा तो कृष्ण को वहां पर कोई बालक नहीं मिला।
तब शंखासुर के शरीर का शंख लेकर कृष्ण और बलराम यम के पास पहुंचे। यमलोक में पाञ्चजन्य शंख बजाने पर अनेक गण उत्पन्न हो गए। यम ने दोनों भ्राताओं की पूजा करते हुए कहा, ‘हे सर्वव्यापी भगवान, अपनी लीला के कारण आप मानव स्वरूप में हैं। मैं आप दोनों के लिए क्या कर सकता हूं?’..श्री कृष्ण ने कहा, ‘हे महान शासक, मेरे गुरु पुत्र को मुझे सौंप दीजिए, जो अपने कर्मों के कारण यहां लाया गया था।’.. तब श्रीकृष्ण अपने गुरु संदीपनी के पुत्र को लेकर उज्जैन आए और उन्होंने उनके पुत्र को जीवित सौंप दिया।
तीसरा चमत्कार-
भगवान कृष्ण के पहले ‘इंद्रोत्सव’ नामक उत्तर भारत में एक बहुत बड़ा त्योहार होता था। भगवान कृष्ण ने इंद्र की पूजा बंद करवाकर गोपोत्सव, रंगपंचमी और होलीका का आयोजन करना शुरू किया।
श्रीकृष्ण के निवेदन पर स्वर्ग के सभी देवी और देवताओं की पूजा बंद हो गई। धूमधाम से गोवर्धन पूजा शुरू हो गई। जब इंद्र को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने प्रलयकालीन बादलों को आदेश दिया कि ऐसी वर्षा करो कि ब्रजवासी डूब जाएं और मेरे पास क्षमा मांगने पर विवश हो जाएं। जब वर्षा नहीं थमी और ब्रजवासी कराहने लगे तो भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर धारण कर उसके नीचे ब्रजवासियों को बुला लिया। गोवर्धन पर्वत के नीचे आने पर ब्रजवासियों पर वर्षा और गर्जन का कोई असर नहीं हो रहा। इससे इंद्र का अभिमान चूर हो गया। बाद में श्रीकृष्ण का इंद्र से युद्ध भी हुआ और इंद्र हार गए।
चौथा चमत्कार-
महाभारत में द्युतक्रीड़ा के समय युद्धिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगा दिया और दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि ने द्रोपदी को जीत लिया। उस समय दुशासन द्रौपदी को बालों से पकड़कर घसीटते हुए सभा में ले आया। जब वहां द्रौपदी का अपमान हो रहा था तब भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और विदुर जैसे न्यायकर्ता और महान लोग भी बैठे थे लेकिन वहां मौजूद सभी बड़े दिग्गज मुंह झुकाएं बैठे रह गए। इन सभी को उनके मौन रहने का दंड भी मिला।
देखते ही देखते दुर्योधन के आदेश पर दुशासन ने पूरी सभा के सामने ही द्रौपदी की साड़ी उतारना शुरू कर दी। सभी मौन थे, पांडव भी द्रोपदी की लाज बचाने में असमर्थ हो गए। तब द्रोपदी ने आंखें बंद कर वासुदेव श्रीकृष्ण का आव्हान किया। द्रौपदी ने कहा, ”हे गोविंद आज आस्था और अनास्था के बीच जंग है। आज मुझे देखना है कि ईश्वर है कि नहीं”… तब श्रीहरि श्रीकृष्ण ने सभी के समक्ष एक चमत्कार प्रस्तुत किया और द्रौपदी की साड़ी तब तक लंबी होती गई जब तक की दुशासन बेहोश नहीं हो गया और सभी सन्न नहीं रह गए। सभी को समझ में आ गया कि यह चमत्कार है।
पांचवां चमत्कार-
भीम का पौत्र और घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक अत्यंत ही मायावी और शक्तिशाली था। बर्बरीक के लिए तीन बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरवों और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। युद्ध के मैदान में भीम पौत्र बर्बरीक दोनों खेमों के मध्य बिन्दु एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली कि मैं उस पक्ष की तरफ से लडूंगा जो हार रहा होगा। बर्बरीक की इस घोषणा से कृष्ण चिंतित हो गए।
तब भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण का भेष बनाकर सुबह बर्बरीक के शिविर के द्वार पर पहुंच गए और दान मांगने लगे। बर्बरीक ने कहा- मांगो ब्राह्मण! क्या चाहिए? ब्राह्मणरूपी कृष्ण ने कहा कि तुम दे न सकोगे। लेकिन बर्बरीक कृष्ण के जाल में फंस गए और कृष्ण ने उससे उसका शीश मांग लिया।
बर्बरीक द्वारा अपने पितामह पांडवों की विजय हेतु स्वेच्छा के साथ शीशदान देने से पहले कहा, प्रभु में यह युद्ध देखना चाहता हूं। तब श्रीकृष्ण ने उसका शीश एक ऊंचे स्थान पर रखवा दिया और आश्चर्य की कटे शीश ने बर्बरीक महाभारत का युद्ध देख रहा था। जब बाद में उससे पूछा गया कि तुमने महाभारत के युद्ध देखा तो कैसा लगा। उसने जवाब दिया कि मुझे तो दोनों ओर से श्रीकृष्णी ही लड़ते हुए दिखाई दे रहे थे।…बर्बरीक के इस बलिदान को देखकर दान के पश्चात श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को कलियुग में स्वयं के नाम से पूजित होने का वर दिया। आज बर्बरीक को खाटू श्याम के नाम से पूजा जाता है।
छठा चमत्कार-
महाभारत के युद्ध के दौरान अभिमन्यु का क्रूरतापूर्वक वध करने के बाद अर्जुन ने शपथ ली थी कि कल सूर्योस्त से पूर्व यदि में जयद्रथ का वध नहीं कर पाया तो आत्मदाह कर लूंगा। इस शपथ के बाद कौरव पक्ष ने जयद्रथ को छिपा दिया था। जब सूर्योस्त होने वाला था तो अर्जुन ने अपनी शपथ अनुसार अपनी चिता सजाना शुरू कर दी।
तभी श्रीकृष्ण ने एक चमत्कार किया और सूर्य को वक्त के पहले ही अस्त कर दिया। यह देख कौरव पक्ष में हर्ष व्याप्त हो गया। इस बीच जिज्ञासा वश छुपा हुआ जयद्रथ भी हंसते हुए यह नराजा देखने के लिए यह सोचकर बाहर निकल आया कि अब तो सूर्यास्त हो ही गया है। जब श्रीकृष्ण ने जयद्रथ को देखा तो उन्होने अर्जुन को इशारा किया और तभी सभी ने देखा कि सूरज निकल आया है अभी तो सूर्यास्त हुआ ही नहीं है। यह देखकर जयद्रथ घबराकर भागने लगा लेकिन अर्जुन ने उसे भागने का मौका दिए बगैर उसकी गर्दन उतार दी।
सातवां चमत्कार-
अश्वत्थामा ने पांडव पक्ष को कुल का नाश करने हेतु जहां पांडवों के सभी पुत्रों को मार दिया था वहीं उसने अभिमन्यु के पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे शिशु पर भी एक विशेष अस्त्र से प्रहार कर उसके गर्भ में स्थित शिशु को लगभग मार ही दिया था। यह देखकर कृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा- ‘उत्तरा को परीक्षित नामक बालक के जन्म का वर प्राप्त है। उसका पुत्र तो होगा ही। यदि तेरे शस्त्र-प्रयोग के कारण मृत हुआ तो भी मैं उसे जीवित कर दूंगा। वह भूमि का सम्राट होगा और तू? नीच अश्वत्थामा! तू इतने वधों का पाप ढोता हुआ 3,000 वर्ष तक निर्जन स्थानों में भटकेगा। तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध नि:सृत होती रहेगी। तू अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा।’ वेद व्यास ने श्रीकृष्ण के वचनों का अनुमोदन किया।