बाजार वाद के शोक के मायने : प्रद्युम्न तिवारी

लखनऊ : किसके प्रति बात करें। आमजन की या नामधारियों की। इनमें सभी तो शामिल हैं। राजा से रंक तक। पर, देश के लिए बलिदान कौन देता है? वह नवयुवक जो किसी परिवार का बेटा, भाई और पति होता है। पर उसके उत्सर्ग पर होता है क्या? नेता और मीडिया कंठफोड़ विलाप। मन व्यथित हुआ तो कलम उठा ली। हम खुद खबर के संवाहक हैं। यही कारण है कि आतंकी हमले के बाद के घटनाक्रम को देखते और उस पर सोचते हैं तो मन में अकुलाहट होती है, दिमाग की रक्तशिराएं तन जाती हैं। मन भर जाता है, दिल छलनी छलनी हो जाता है। ऐसा इसलिए कि देश में शोक भी बाजारवाद की भेंट चढ़ गया। यह बात 14 फरवरी की आतंकी घटना के बाद किसी एक माध्यम के लिए नहीं की जा रही है। यह बात जुड़ी है देश के दुख के साथ। इस दुख पर पूरी मीडिया (प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक) ने सकारात्मक रुख अपनाते हुए अपनी टीआरपी को नजरअंदाज न करते हुए जो जिम्मेदारी निभाई, वह काबिलेतारीफ है।
शब्दों के मायावीजाल ने प्रशंसा भी बटोरी। सिरे से बात जोड़ने में चूक हो सकती है लेकिन भाव समझने की चेष्टा करेंगे तो स्थिति साफ हो जाएगी।   मेरा मकसद किसी की आलोचना नहीं, लेकिन पीड़ा जाहिर करना जरूर है। पहले तो उस चौथे स्तंभ (मीडिया) की बात करना चाहूंगा, जिससे जुड़ने का सौभाग्य मुझे भी मिला। जाहिर है कि जब इससे जुड़ा हूं तो बीते क्षण याद आएंगे ही। स्मरण हो आता है वर्ष 1984। श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी। उस समय व्हाट्सएप और फेसबुक जैसे सोशल मीडिया वाले साधनों का वक्त नहीं था। मैंने उसी साल लखनऊ से प्रकाशित अमृत प्रभात अखबार में प्रवेश लिया था। श्रीमती गांधी की हत्या के बाद अखबार का शाम का विशेष संस्करण निकाला गया। संस्थान का हर सदस्य कार्य में जुट गया। उसी समय विग्यापन विभाग ने प्रस्ताव दिया कि बहुत से लोग विग्यापन देना चाहते हैं। उस समय संपादकीय विभाग ने प्रबंध तंत्र को साफ कह दिया कि शोक के समय व्यापार किनारे रहेगा यानि बाजारवाद की ऐसी की तैसी। हां, आज अहसास हुआ कि समय बदल गया है। पर, क्या इतना कि संवेदनाएं काठ हो गई हैं?
आज लिखने का जी इसलिये हुआ कि दिल दहल गया। हुआ यह कि 14 फरवरी को जब हमले की खबर मिलने के बाद घर पहुंचकर टीवी चैनलों को खोला तो सब पर यही खबर थी। होनी भी चाहिए। पर तनाव और गम की खबर के बीच जब एकाएक उछलते-कूदते, ठठाते विग्यापन आने लगे तो मन कसैला हो गया। जरा सोचिए। कहां क्षोभ और दुख, कहां वे नाटकीय विग्यापन। झुंझलाहट होना स्वाभाविक है। एक के बाद एक चैनल बदले लेकिन हर पल के बाद सभी पर वही फूहड़ता दिखी। करोड़ों-अरबों में खेलने वाले ये तथाकथित बड़े चैनल क्या विग्यापन न देकर शहीदों को श्रद्धांजलि व्यक्त नहीं कर सकते थे? अब बात करते हैं कपिल शर्मा के शो की। भाजपा के गुणगान करते और कांग्रेस के नेताओं को कोसते हुए फिर कांग्रेस नेताओं की जूती चाटने वाले पंजाब के उप मुख्यमंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने इस आतंकी हमले के बाद जिस तरह से पाकिस्तान का बचाव किया, वह निंदनीय है।
सोशल मीडिया पर सिद्धू के इस आचरण का विरोध करते हुए उसे शो से बाहर करने की मांग हुई। खबर आई कि सिद्धू को शो से बाहर कर दिया गया, लेकिन 16 फरवरी को चेक करने के लिए जब चैनल लगाया तो सिद्धू को अट्टहास करते पाया। हमने तुरंत चैनल बंद कर दिया। माना कि शूटिंग पहले हो जाती है लेकिन क्या एक-दो शो रद्द नहीं किए जा सकते थे? पर, नहीं। यही तो है बाजारवाद। थू का पात्र है। मुझे याद है वह समय भी जब एक दिन का शोक हो या सात दिन का, दूरदर्शन अथवा आकाशवाणी पर शोक ही ध्वनित होता था। पर अब जबकि न्यूज चैनलों पर इस भीषण दुख के क्षणों में भी अपने को सर्वश्रेष्ठ होने का प्रमाणपत्र मिलने की सहर्ष सूचना देने में भी झिझक न हो, तो मन में अकुलाहट होना स्वाभाविक है।

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