हर साल किसी न किसी रूप में अपना प्रभाव जरूर छोड़ जाता है। कुछ मीठा, यादगार और सीख लेने वाला, तो कुछ कड़वा और भुला देने वाला भी। इस लिहाज से देखें तो यह वर्ष भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहा। सबसे बड़ी खबर और प्रभाव दिसंबर महीने में ही दिखा, जब तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में भाजपा को पछाड़ कांग्रेस को सरकार बनाने में कामयाबी मिली। बेशक मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ताविरोधी लहर और राजस्थान में स्थानीय नेतृत्व के खिलाफ जनअसंतोष को बड़ा कारण माना गया लेकिन इसके लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के तीखे तेवर और उनकी सक्रियता को भी कम नहीं माना जा रहा।
जहां तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात है, तो उक्त तीन राज्यों में नजदीकी मुकाबले को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि देश को आगे ले जाने की अपनी अच्छी व पारदर्शी नीयत के चलते अभी भी उनकी लोकप्रियता बरकरार है। अपनी अगुआई में भाजपा के विजय रथ को आगे बढ़ा रहे अमित शाह ने निश्चित रूप से तीन राज्यों के परिणाम से सबक लेते हुए अपनी रणनीति बदलने पर ध्यान दिया होगा। ऐसे में कांग्रेस और अलग-अलग गठबंधन की कोशिशों में लगे बिखरे विपक्ष की राह 2019 में बहुत आसान नहीं रहने वाली। विपक्षी दल बेशक राफेल, किसान-कर्जमाफी, जीएसटी के मुद्दे पर सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे, पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने जहां राफेल मुद्दे की हवा निकाल दी, वहीं वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तमाम वस्तुओं पर जीएसटी की दरें घटाकर सरकार की छवि को बेहतर बनाने का प्रयास किया।
अपने फैसलों की धमक से प्रभावित करने वाले सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता व सबरीमाला मंदिर पर ऐतिहासिक निर्णय दिए, पर पूरे साल शीर्ष न्यायालय अलग-अलग कारणों से खुद भी विवादों के घेरे में रहा। लगातार सवालों के घेरे में रहने वाली देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआइ की साख इस साल अपने निदेशक व विशेष निदेशक के आरोप-प्रत्यारोप के कारण रसातल में जाती नजर आई। यौन उत्पीड़न को लेकर विदेश से उठी मीटू की आंच इस साल देश में बॉलीवुड से लहर की तरह उठी, जिसकी चपेट में कई बड़े नाम आते दिखे। इसकी वजह से मीडिया की चर्चित हस्ती एमजे अकबर को केंद्रीय मंत्री के पद से इस्तीफा तक देना पड़ा।
गोमाता की रक्षा के नाम पर इस साल जिस तरह देश के अलगअलग स्थानों पर उत्पात मचाया गया, वह चिंतित करने वाला रहा। साल समाप्त होते-होते राम मंदिर को लेकर भाजपा के भीतर और विपक्ष में बेचैनी बढ़ती देखी गई। मोबाइल का सस्ता डेटा इस साल हर किसी की जिंदगी का हिस्सा बनता नजर आया।
गुजरात में नर्मदा के तट पर लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल की 182 मीटर ऊंची ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ स्थापित होना गौरवपूर्ण अध्याय बन गया। इस साल अपने सौवें उपग्रह को अंतरिक्ष में स्थापित करके और यूरोपीय देशों के साथ-साथ अमेरिका के भी उपग्रह प्रक्षेपित कर इसरो ने कामयाबी का अपना सफर जारी रखा। नाम, प्रभाव और घटनाएं और भी हैं, जिनमें 25 का चयन किया है।
नरेंद्र मोदी बाजी पलटने की क्षमता
समापन की ओर बढ़ते 2018 में उभरा यह सवाल 2019 में और अधिक सिर उठाने वाला है कि केंद्र में अगली सरकार किसकी? किसी के पास इस सवाल का चाहे जैसा जवाब हो उसके केंद्र में नरेंद्र मोदी ही रहने वाले हैं। जाने-अनजाने, सदैव चर्चा के केंद्र में बने रहने की यही खासियत नरेंद्र मोदी को औरों से अलग करती है। अगर अपने समर्थकों के बीच वे सबसे बड़ा सहारा और भरोसा हैं तो उनके कट्टर विरोधियों के लिए वही सबसे बड़ी अड़चन और चिंता का विषय हैं। हाल के विधानसभा चुनावों में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में भाजपा के हाथों से सत्ता फिसल जाने के बाद भी विरोधी दलों और साथ ही मोदी सरकार के आलोचकों को यह भरोसा नहीं कि नरेंद्र मोदी के विजय रथ को आसानी से रोका जा सकता है, क्योंकि न तो यह पता है कि उनके पास कितने अस्त्र-शस्त्र हैं और न ही यह कि उनकी जनकल्याणकारी योजनाओं ने जमीन पर जो असर दिखाया है वह चुनाव के वक्त क्या गुल खिलाएगा?
हाल के समय के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री की छवि जहां नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का सबसे बड़ा स्रोत है वहीं उनके विरोध की बड़ी वजह भी। स्थिति यह है कि जो एक-दूसरे के साथ खड़े होना पसंद नहीं करते वे भी मोदी विरोध के बहाने एकजुट होने को तैयार हो जाते हैं। यह उदाहरण तो विरला ही है कि उद्धव ठाकरे जैसे नेता जो राजग में हैं वे भी इस उम्मीद में हैं कि मोदी का विरोध करके उन्हें कुछ हासिल हो सकता है। हालिया चुनावी विफलता के बाद भी मोदी इस क्षमता से लैस हैं कि अपने बलबूते हालात बदल सकते हैं और कभी भी किसी की भी बाजी पलट सकते हैं। अगले साल जब इस क्षमता की परख होगी तब इसके प्रति सुनिश्चित हुआ जा सकता है कि हमेशा से चुनौतियों से जूझते रहे मोदी जितनी कड़ी परीक्षा का सामना करेंगे उससे ज्यादा कड़ी चुनौती अपने विरोधियों के समक्ष पेश करेंगे।
राहुल गांधी-कांग्रेस अहमियत संग बढ़ा कद
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में हिंदी पट्टी के तीन राज्यों को भाजपा से छीनने के बाद कांग्रेस वापसी की राह पर आ गई और इसका श्रेय स्वाभाविक तौर पर राहुल गांधी के खाते में गया, जिन्होंने बीते कुछ समय में और खासकर पार्टी की कमान संभालने के बाद से अपनी रीति-नीति में काफी बदलाव किए। इस बदलाव के कारण उन पर तमाम सवाल भी उठे लेकिन वे अपने रुख पर कायम रहे- वह चाहे मंदिर-मंदिर जाना हो या फिर सीधे प्रधानमंत्री पर निशाना साधना। छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस को एक ऐसे समय जीत हासिल हुई जब राहुल गांधी बतौर पार्टी अध्यक्ष अपना एक साल का कार्यकाल पूरा करने वाले थे।
जाहिर है कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ राहुल गांधी को ये दोहरी खुशी मिली। इसी के साथ राहुल गांधी का कद भी बढ़ता दिखा और उनका आत्मविश्वास भी। तीन राज्यों की जीत ने विपक्षी दलों के बीच कांग्रेस और उसके अध्यक्ष, दोनों की राजनीतिक अहमियत बढ़ा दी है। यह वक्त बताएगा कि जीत की ऊर्जा से लैस राहुल गांधी भाजपा के खिलाफ विपक्षी दलों को गोलबंद करके महागठबंधन का निर्माण करके उसका नेतृत्व करते हुए दिखेंगे या नहीं लेकिन इतना तय है कि वह राजनीतिक तौर पर कहीं अधिक मुखर रूप में नजर आएंगे।
अमित शाह चौंकाने का हुनर
बचपन से शतरंज के खिलाड़ी, थोड़े बड़े होने पर चाणक्य की कूटनीति के मुरीद और अवसर मिलने पर चुनाव प्रबंधन के शाह के रूप में स्थापित भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के लिए फिलहाल थोड़ी चुनौती का वक्त है लेकिन लड़खड़ाकर साहस के साथ खड़े होने का जज्बा, एक के बाद एक बड़ी जीत और गुत्थियों को सुलझाने की रणनीति उन्हें उस लीग में खड़ा करती है जहां सामने खड़ी विपक्षी टीम उत्साहित होने का दिखावा तो कर सकती है लेकिन जमीन पर पड़े पैर आत्मविश्वास नहीं दर्शाते हैं। आखिर यह भी तो इतिहास है कि बिहार और दिल्ली के चुनाव के बाद भी उनके कौशल पर सवाल उठा था लेकिन फिर जो अश्वमेध का घोड़ा दौड़ा तो किसी की पकड़ में न आया। यही कारण है कि हाल के चुनावी नतीजों के बाद भी जब वे 2014 के मुकाबले बड़ी जीत का दावा करते हैं तो उसे खारिज करना किसी के लिए भी मुश्किल होता है। सच्चाई तो यह है कि शाह ने इन राज्यों में भी बता दिया कि वे बाजी को नियंत्रित रखने की क्षमता रखते हैं।
राजस्थान में इसका खुलकर इजहार हुआ जहां भाजपा दो-तीन महीनो में ही बुरी हार की स्थिति से सम्मानजनक लड़ाई तक पहुंच गई। खैर, बड़ा सवाल यह है विपक्षी खेमे में हो रहे जमावड़े से सामना करने के लिए शाह के पास आखिर क्या है? गठबंधन राजनीति फिलहाल देश की हकीकत है और वर्तमान स्थिति में भाजपा को भी यह गांठ बांध लेनी चाहिए। इससे शायद ही कोई इंकार करेगा कि उन्होंने ऊपर से नीचे तक कार्यकर्ताओं का विशाल ढांचा खड़ा किया है जो कभी बहुत उत्साहित होता था। फिलहाल उस ढांचे में सक्रियता की कमी है। यह सबकुछ शायद खुद शाह की नजरों में भी है और यह सबकुछ दुरुस्त हो तो मानकर चला जा सकता है कि शाह खासकर उन क्षेत्रों में सबको चौंका सकते हैं जो अब तक भाजपा की पहुंच से बाहर रहे हैं।
सर्वोच्च न्यायालय सवालों का साल
आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को ऐतिहासिक कहने का रिवाज है लेकिन इस साल उसने सचमुच कई ऐसे फैसले दिए जो दूरगामी असर वाले रहे। ऐसे फैसलों की गिनती भी लंबी है। उसने समलैंगिकता को अपराध मानने वाली धारा खत्म की तो सबरीमाला मंदिर में रजस्वला महिलाओं को प्रवेश से रोकने वाली परंपरा को भी अनुचित ठहरा दिया। उसने आधार कानून को सहारा देने के साथ राफेल सौदे को क्लीन चिट भी दी। राजनीति के साथ समाज पर गहरे असर डालने वाले अपने फैसलों से अधिक सुप्रीम कोर्ट अपने चार न्यायाधीशों की उस प्रेस कांफ्रेंस के कारण चर्चा में रहा जिसके बारे में यह अभी भी ठीक-ठीक पता नहीं कि आखिर वह किस इरादे से की गई थी?
इसी तरह यह भी पता नहीं चल पाया कि कांग्रेस और कुछ अन्य राजनीतिक दल तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग क्यों लाना चाहते थे? यह प्रश्न भी अनुत्तरित रहा कि आखिर अयोध्या विवाद की बहुप्रतीक्षित सुनवाई क्यों टाली गई? ऐसा कालखंड याद करना कठिन है जब सुप्रीम कोर्ट विभिन्न सवालों का समाधान करने के साथ ही अपनी ओर उठे सवालों के लिए भी चर्चा में रहा हो। उसकी सामथ्र्य किसी से छिपी नहीं लेकिन देश ने देखा कि सबरीमाला मंदिर संबंधी उसके फैसले पर अमल नहीं हो पा रहा है।