अनुपम खेर के निर्देशन में बनी ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मीनिस्टर’ (The Accidental Prime Minister) फिल्म की पटकथा भले ही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) के इर्द गिर्द घूमती हो, लेकिन इस बहाने इस फिल्म ने राजनीतिक व्यवस्था से जुड़े कई यक्ष सवाल खड़े कर दिए हैं। इस फिल्म को लेकर राजनीति भी तेज हो गई है।
दरअसल, भारतीय संसदीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री सत्ता और शक्ति का केंद्र बिंदु होता है। यानी संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था उसके इर्दगिर्द घूमती है। अमूमन प्रधानमंत्री अपने दल का सर्वमान्य नेता होता है। दूसरे, उस दल का लोकसभा में पूर्ण बहुमत हाेता है। लेकिन कई बार इस पद पर संयोग से लोग पहुंचे हैं। अगर हम देश के संसदीय इतिहास में झांके तो मनमोहन सिंह अकेले एक्सीडेंटल या संयोग से बनने वाले देश के एकलौते प्रधानमंत्री नहीं थे।
प्रधानमंत्री पद के इतिहास में कई नेता संयोग से ही इस पद पर अासीन हुए। इनमें गांधी परिवार एक बड़े नेता का नाम भी शामिल है। गांधी परिवार के इतर भी कई नाम है, जो संयोग से प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने में कामयाब रहे। पहले बात करते हैं मनमोहन सिंह की। आखिर किस हालात में कांग्रेस को मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद पर बैठाना पड़ा।
1- नंबर वन या नंबर टू की रेस में नहीं थे मनमोहन सिंह, बने पीएम
दरअसल, 14वीं लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की करारी हार हुई। भाजपा सत्ता से बेदखल हुई। देश की जनता ने कांग्रेस पार्टी पर अपना भरोसा जताया। कांग्रेस अपने गठबंधन के साथ सबसे बड़े दल के रूप में आई। इस चुनाव में एक और नया अध्याय जुड़ा वामपंथी सांसद भारी संख्या में जीतकर आए। कांग्रेस ने केंद्र में सरकार बनाने का दावा पेश किया, लेकिन पार्टी के बाहर सोनिया गांधी के विदेशी मूल के विवाद में एक नई जंग छिड़ गई। अंतत: कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया।
आनन-फानन में प्रधानमंत्री पद पर मनमोहन सिंह को बैठा दिया गया। मनमोहन सिंह कांग्रेस पार्टी में नंबर वन या नंबर टू नेता की रेस में भी शामिल नहीं थे, लेकिन वह सोनिया गांधी के भरोसेमंद थे। अपनी इस क्षमता के कारण वह एक नहीं बल्कि दो बार देश के प्रधानमंत्री बने। यहां एक खास बात और थी, जब प्रधानमंत्री पद पर मनमोहन सिंह का नाम चला तो वह राज्यसभा के सदस्य थे। अमूमन भारत के संसदीय इतिहास में लोकसभा का सदस्य ही प्रधानमंत्री बनने की परंपरा रही है। लेकिन मनमोहन देश के ऐसे पहले प्रधानमंत्री थे जो लोकसभा के सदस्य नहीं होते हुए पूरे दो कार्यकाल तक पीएम रहे।
2- संयोग से पीएम बने चौधरी चरण सिंह
देश में आपातकाल के बाद आम चुनाव हुए। छठी लोकसभा के लिए मार्च 1977 में आयोजित आम चुनाव में जनता पार्टी की जबर्दस्त जीत में मोरार जी देसाई की महत्वपूर्ण भूमिका थी। देसाई गुजरात के सूरत निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गए थे। बाद में उन्हें सर्वसम्मति से संसद में जनता पार्टी के नेता के रूप में चुना गया एवं 24 मार्च 1977 को उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। इस चुनाव में इंदिरा कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी संसदीय दल ने नेता चुनने का अधिकार जेपी और आचार्य जेबी कृपलानी को सौंप दिया था। दोनों बुजुर्ग नेताओं ने प्रधानमंत्री पद के लिए मोरारजी के नाम पर मुहर लगाई। मोरार जी सरकार में चौधरी चरण सिंह उप प्रधानमंत्री बने। लेकिन जल्द ही जनता पार्टी में कलह उत्पन्न हो गई। 1979 में जनता पार्टी के दो और वरिष्ठ सदस्य राज नारायण और चरण सिंह ने देसाई सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, जिसके बाद देसाई को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा।
राजनीति के लिए यह अस्थिरता का दौर था। कांग्रेस और सीपीआई के समर्थन से जनता (एस) के नेता चरण सिंह 28 जुलाई, 1979 को प्रधानमंत्री बने। राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने निर्देश दिया था कि चरण सिंह 20 अगस्त तक लोकसभा में अपना बहुमत साबित करें। लेकिन इस बीच इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त को ही यह घोषणा कर दी कि वह चरण सिंह सरकार को संसद में बहुमत साबित करने में साथ नहीं देगी। नतीजतन चरण सिंह ने लोकसभा का सामना किए बिना ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
3- संयोग से राजीव गांधी बन गए प्रधानमंत्री
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बड़े पुत्र राजीव गांधी भारी बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बने थे। इंदिरा की हत्या के बाद अचानक देश में नेतृत्व का संकट खड़ा हो गया। ऐसे में इंदिरा के बड़े बेटे राजीव गांधी को बुलाकर देश की कमान की सौंप दी गई। वह देश के सातवें और भारतीय इतिहास में सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी राजनीति में नहीं आना चाहते थे, लेकिन हालात ऐसे बने कि वो राजनीति में आए और देश के सबसे युवा पीएम के रूप में उनका नाम दर्ज हो गया। राजीव की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी और वो एक एयरलाइन पाइलट की नौकरी करते थे। आपातकाल के उपरान्त जब इंदिरा गांधी को सत्ता छोड़नी पड़ी थी, तब कुछ समय के लिए राजीव परिवार के साथ विदेश में रहने चले गए थे।
परंतु 1980 में अपने छोटे भाई संजय गांधी की एक हवाई जहाज़ दुर्घटना में असामयिक मृत्यु के बाद माता इंदिरा को सहयोग देने के लिए सन् 1982 में राजीव गांधी ने राजनीति में प्रवेश लिया। वो अमेठी से लोकसभा का चुनाव जीत कर सांसद बने और 31 अक्टूबर 1984 को सिख आतंकवादियों द्वारा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या किए जाने के बाद भारत के प्रधानमंत्री बने और अगले आम चुनावों में सबसे अधिक बहुमत पाकर प्रधानमंत्री बने रहे। उनके प्रधानमंत्रित्व काल में भारतीय सेना द्वारा बोफ़ोर्स तोप की खरीदारी में लिए गए कमीशन का मुद्दा उछला। अगले चुनाव में कांग्रेस की हार हुई और राजीव को प्रधानमंत्री पद से हटना पड़ा। इस बीच 21 मई, 1991 को को तमिल आतंकवादियों ने राजीव की एक बम विस्फ़ोट में हत्या कर दी।
4- मात्र 64 सांसदों के साथ देश के प्रधानमंत्री बने चंद्र शेखर
भाजपा के सहयोग से बनी केंद्र की विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिरने के बाद देश में एक बार फिर राजनीतिक अस्थिरता का माहौल उत्पन्न हो गया था। इसके बाद वर्ष 1990 में समाजवादी जनता पार्टी के नेता चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार भाजपा का समर्थन वापस लेने के चलते अल्पमत में आ गई थी। चंद्र शेखर के नेतृत्व में जनता दल में टूट हुई।
एक 64 सांसदों का धड़ा अलग हुआ और उसने सरकार बनाने का दावा ठोंक दिया। उस वक्त राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने उन्हें समर्थन दिया। हालांकि, प्रधानमंत्री बनने के बाद चंद्र शेखर ने कांग्रेस के हिसाब से चलने से इंकार कर दिया। हालांकि, वह सिर्फ छह महीने इस पद पर रहे। राजीव गांधी ने अपना समर्थन वापस ले लिया। लेकिन यह समर्थन सिर्फ छह महीने चला और 21 जून 1991 को चंद्र शेखर को इस्तीफा देना पड़ा।
इस चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत नहीं प्राप्त हुआ, लेकिन वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। कांग्रेस ने 232 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। फिर नरसिम्हा राव को कांग्रेस संसदीय दल का नेतृत्व प्रदान किया गया। ऐसे में उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश किया। सरकार अल्पमत में थी, लेकिन कांग्रेस ने बहुमत साबित करने के लायक़ सांसद जुटा लिए और कांग्रेस सरकार ने पाँच वर्ष का अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूर्ण किया।
6- देवगौड़ा बनें अप्रत्याशित पीएम
1996 के आम चुनावों में पीवी नरसिम्हा राव की अध्यक्षता वाली कांग्रेस पार्टी की हार हुई। लेकिन कोई अन्य पार्टी सरकार बनाने के लिए पर्याप्त सीटें नहीं जुटा पाई। जब संयुक्त मोर्चा (गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों का एक समूह) ने कांग्रेस के समर्थन से केंद्र में सरकार बनाने का फैसला किया, तब देवगौड़ा को अप्रत्याशित रूप से सरकार का नेतृत्व करने के लिए चुना गया। वह भारत के 11वें प्रधान मंत्री बने। 1 जून, 1996 को भारत के प्रधानमंत्री के रूप में पदभार ग्रहण किया और 11 अप्रैल 1997 तक वह इस पद पर रहे।
संजय बारू की किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ पर आधारित ये फिल्म
यह फिल्म मनमोहन सिंह के पीएम रहने के दौरान उनके मीडिया एडवाइजर रहे संजय बारू की किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ पर आधारित है। बारू को मई 2004 में प्रधानमंत्री का मीडिया सलाहकार बनाया गया और वो अगस्त 2008 तक इस पोजिशन पर काम करते रहे. इस दौरान उनकी नजर पीएमओ के कामकाज पर रही। वह केवल मीडिया सलाहकार ही नहीं वो तब पीएम के मुख्य प्रवक्ता भी थे।