भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों के लिए परदे के पीछे रहकर रणनीति तैयार करने वाले प्रशांत किशोर अब खुद राजनेता बन गए हैं। जनता दल (यू) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में वह अपनी नई पारी की शुरुआत भी कर चुके हैं। रणनीतिकार से सक्रिय राजनीति में आने की वजहों और भावी योजनाओं को लेकर हिन्दुस्तान के ब्यूरो चीफ मदन जैड़ा ने उनसे विस्तृत बातचीत की, पेश हैं प्रमुख अंश
अभी तक आप परदे के पीछे रहकर दूसरों को चुनाव में जिताने की रणनीति बनाते थे, लेकिन अब खुद मैदान में उतरने की जरूरत क्यों पड़ी?
परदे के पीछे रहकर रणनीति बनाने जैसी कोई बात नहीं थी और वही काम जिंदगी भर करता रहूंगा, ऐसी भी कोई मंशा नहीं थी। काम तो कोई दूसरा करने आया था। समय और संयोग ऐसा हुआ कि राजनीतिक अभियान का हिस्सा बन गया। किसी ने पॉलिटिकल एड कहा, तो किसी ने रणनीतिकार, तो किसी ने कैंपेनर। मैं तो वही काम कर रहा था, जो मुझे मिला। पहले गुजरात में मोदीजी के लिए किया। फिर लोकसभा चुनाव में किया। इसके बाद इन्हीं बिंदुओं पर जब आगे बढ़ने की बात हुई, तो बिहार गया। यह एक ऐसा राज्य है, जिसे मैं थोड़ा-बहुत समझता हूं। नीतीश जी से बात हुई। चला गया। मेरी कोई ऐसी योजना नहीं थी कि जिंदगी भर यही काम करता रहूं। हां, समाज के लिए कुछ करने की इच्छा थी। कैंपेनर के रूप में हम रणनीति बना सकते हैं। अगली सरकार के प्रोग्राम बना सकते हैं। लेकिन जब सत्ता में आने पर सरकार कुछ न करे, तो हमारी स्थिति भी मतदाताओं जैसी होती है। कुछ नेता वादों को पूरा करने में गंभीरता दिखाते हैं, कुछ नहीं दिखाते। इसलिए सोचा कि खुद ही करके देखें और सक्रिय राजनीति में आ गया। .
‘सक्रिय राजनीति में आए हैं, तो चुनाव भी लड़ेंगे?
मैंने तय किया है कि बिहार से बाहर नहीं जाऊंगा। आने वाले 10-12 वर्षों में लोकसभा और राज्यसभा में जाने की मंशा भी नहीं है। अगर जरूरत पड़ी, तो बिहार में चुनाव लड़ सकता हूं। हालांकि उसकी संभावना भी बहुत कम है। बिहार में संगठन को मजबूत करने तथा जद (यू) को पूरी ताकत से खड़ा करने पर ही अभी मेरा ध्यान रहेगा।
आपकी चुनावी रणनीति उत्तर प्रदेश छोड़कर सभी जगह सफल रही है, यूपी में नब्ज क्यों नहीं पकड़ पाए?
पहली बात, चुनावी जीत के लिए अकेले मुझे श्रेय नहीं दिया जा सकता है। चुनाव में जीत के कई कारण होते हैं। उसमें मेरी भी थोड़ी भूमिका हो सकती है। जहां तक उत्तर प्रदेश का प्रश्न है, तो यह नब्ज भांपने या न भांपने जैसी बात नहीं है। हमने नब्ज सही पकड़ी थी और उसके हिसाब से अभियान भी तैयार किया था, पर उसका क्रियान्वयन नहीं हो सका। जैसे, हमने नारा दिया कि 27 साल यूपी बेहाल। इस नारे में ही यह समाहित था कि पिछली सरकारों ने कुछ नहीं किया और अब कांग्रेस आकर ही नया प्रोग्राम दे सकती है। लेकिन इस नारे के कुछ समय बाद इन्हीं में से एक दल के साथ कांग्रेस ने गठबंधन कर लिया। कांग्रेस ने शुरू में अकेले आगे बढ़ने के लिए काम किया। उसी के अनुरूप तैयारियां भी की गईं। इससे कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनना भी शुरू हुआ। मगर कांग्रेस में एक वर्ग को लगा कि अब गठबंधन कर लेना चाहिए। उसे 110 सीटें मिलीं। इतनी सीटें इसीलिए मिलीं कि जमीन पर उसके हक में सुगबुगाहट शुरू हो गई थी, लेकिन कांग्रेस ने इस सुगबुगाहट को गठबंधन बनाने के लिए भुना लिया। फिर गठबंधन करने में भी देरी की गई। जिससे यानी सपा से गठबंधन किया गया, वह खुद राजनीतिक रूप से अस्थिर हो चुकी थी।
क्या कांग्रेस अकेले लड़ती, तो फायदे में रहती?
अब यह काल्पनिक प्रश्न है। पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि जो योजना कांग्रेस नेतृत्व को मार्च 2016 में बताई गई और जिसे उसने मंजूर किया था, उसके बारे में कांग्रेस ने माना था कि इससे वह उत्तर प्रदेश में पुनर्जीवित हो सकती है। खुद सोनिया गांधी ने वाराणसी से रोड शो का शुभारंभ किया। राहुल गांधी ने किसानों की कर्जमाफी को लेकर यात्रा शुरू की। मैं यही कहूंगा कि नब्ज को सही पहचाना गया था। किसानों की कर्जमाफी का मामला आज हर तरफ से उठ रहा है। इसकी शुरुआत यूपी से हुई थी। सत्ता में आने के बाद योगी सरकार ने पहला फैसला कर्जमाफी का लिया। मोटे तौर पर यूपी में इसलिए फेल हुए, क्योंकि जो रणनीति बनाई, वह लागू नहीं हुई और बीच में ही रास्ता बदल दिया।.
चुनाव जीतने के लिए रणनीति बनाना कितना अहम है?
देखिए, मेरे आने से चुनाव लड़ने की प्रक्रिया नहीं बदली है। जब भी कोई चुनाव लड़ता है, तो ऐसे लोगों को अपने आस-पास रखता है, जो चुनाव प्रक्रिया को व्यवस्थित कर सकें। पहले यह व्यवस्था मित्रों-दोस्तों में सिमटी रहती थी। हमने उसे बड़े स्तर पर किया तथा उसमें पेशेवरों का इस्तेमाल किया। आप इसे चुनावी योजना कह सकते हैं, कुछ लोग इसे आईटी का इस्तेमाल कहते हैं। मैं इतना जरूर कहूंगा कि पेशेवर लोग राजनीति को ज्यादा समझें या कम, पर वे काम को व्यवस्थित तरीके से करने में सफल रहते हैं। चुनाव कार्य को भी। बाकी चुनाव प्रक्रिया में कोई फर्क नहीं आया है।
चाय पर चर्चा, थ्री डी रैली, मैराथन और सोशल मीडिया से चुनावों पर कितना प्रभाव पड़ता है?
देखिए, चुनाव जीतने में बहुत सारे फैक्टर्स होते हैं। कैंपेन उनमें से एक है। चाय पर चर्चा, थ्री डी रैली आदि मॉड्यूल हैं। लेकिन चाय पर चर्चा से कोई चुनाव नहीं जीत सकता या मैराथन करके भी चुनाव नहीं जीते जाते। जिस तरह, एक बढ़िया भोजन में पचासों तरह के पदार्थ, जैसे सब्जी, मसाले, तेल आदि लगते हैं, फिर अच्छा रसोइया भी चाहिए और किचन भी। लेकिन किसी एक वस्तु की हिस्सेदारी कितनी है, कहना मुश्किल है। सबकी भूमिका है।
आपका भाजपा, कांग्रेस से भी अच्छे संपर्क हैं, तो फिर जद (यू) में ही शामिल होने का निर्णय क्यों लिया?
मैंने पहला निर्णय यह लिया कि मुझे बिहार में काम करना है। इसके बाद मेरे पास विकल्प सीमित हो गए या यू कहें कि निर्णय लेना आसान हो गया। बिहार में सबसे प्रेरक राजनेता नीतीश कुमार हैं। पिछले 15 वर्षों में वह बिहार में काफी बदलाव लेकर आए। मुझे बिहार में काम करना था, इसीलिए उनके साथ जुड़ा। उनकी विचारधारा ‘न्याय के संग विकास’ मुझे पसंद है और इस पर भरोसा भी। उनमें पूरे समाज को साथ लेकर चलने की क्षमता है।.
पर बिहार के विकास संकेतक तो अभी भी कमजोर हैं?
यह ठीक है कि बिहार में पिछले 15 वर्षों में काफी तरक्की हुई है। इसके बावजूद विकास के कई मानकों पर वह पिछडे़ पांच राज्यों में है। बिहार की स्थिति को गहराई से समझना होगा। यदि जीडीपी ग्रोथ देखें, तो नीतीश जी के कार्यकाल में राज्य की जीडीपी देश की जीडीपी से दो प्रतिशत ज्यादा ही बढ़ी है। गरीबी में कमी लाने वाले राज्यों में बिहार पहले नंबर पर है। शिक्षा, स्वास्थ्य तथा बिजली के क्षेत्र में भी बिहार की स्थिति सुधर रही है। मगर जो राज्य पिछले 35-40 वर्षों से लगातार पिछड़ रहा हो, और मैं सिर्फ लालू जी की बात नहीं कह रहा, दूसरे राज्यों से बिहार का पिछड़ना 1967-68 से ही शुरू हो गया था, तो अब बहुत तेजी से बढ़ने के बावजूद वह गैप खत्म नहीं हो पा रहा। गैप बहुत बड़ा था। दूसरे बाकी राज्य कोई रुके तो हैं नहीं, वे भी बढ़ रहे हैं। अब बिहार को एजेंडा यह तय करना है कि अगले10 साल में यह देश के अग्रणी 10 राज्यों में शामिल हो जाए।
राज्य का अपेक्षित आर्थिक विकास तो नहीं हो रहा है?
देखिए, आर्थिक विकास के पैरामीटर सिर्फ बडे़ उद्योग नहीं हैं। बड़े उद्योगों के आने में दिक्कतें हैं। भूमि का मसला है। बिहार के बारे में सोच का भी एक मुद्दा है, जो नीतीश जी के प्रयासों के बावजूद पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। छोटे उद्योग आए हैं। पलायन कम हुआ है। निस्संदेह, आज भी लोगों को बिहार से बाहर जाना पड़ता है। मगर रोजगार की उपलब्धता बेहतर होने से ‘डिस्ट्रेस माइग्रेशन’ कम हुआ है। हजारों की संख्या में जो लोग पंजाब-हरियाणा फसल काटने जाते थे, उनकी संख्या में भारी कमी आई है।
पटना यूनिवर्सिटी चुनाव के बहाने क्या पार्टी युवाओं को जोड़ने का अभियान शुरू करने जा रही है?
पटना यूनिवर्सिटी का चुनाव छात्र जनता दल ने लड़ा। हमने तो बस मदद की थी। अगले दो साल मैं इस बात पर लगाना चाहता हूं कि बिहार के एक लाख युवा राजनीति में आएं। संभव हुआ, तो उन्हें अपनी पार्टी में भी शामिल कराना चाहूंगा। पर यह सिर्फ सदस्य बनाने के लिए नहीं, उन्हें राजनीति में लाने के लिए होगा। इनमें से 10-15 हजार युवाओं को चुनाव लड़ाना चाहूंगा। इन्हीं में से नया नेतृत्व उभरेगा। अगला पंचायत चुनाव हमारी पार्टी दलीय स्तर पर लड़ेगी। उसमें बड़ी संख्या में युवाओं को लड़ाएंगे, ताकि क्षेत्र, गांव, जिला, वार्ड के स्तर पर नया नेतृत्व उभरे। अच्छे लोगों के आने से पार्टी मजूबत होगी।
क्या छात्र राजनीति अब मुख्य धारा की सियासत से दूर हो रही है?
उत्तर भारत के कई राज्यों में क्षेत्रीय दलों के उभार के बाद से छात्र राजनीति का सीधा प्रभाव राज्य या राष्ट्रीय राजनीति में कम हुआ है। दूसरे, यूनिवर्सिटी की राजनीति में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव नहीं दिखता। दिल्ली का ही उदाहरण लें। आम आदमी पार्टी 67-3 के अंतर से जीती। पर यूनिवर्सिटी चुनाव नहीं जीत पा रही। राष्ट्रीय पार्टियों को यूनिवर्सिटी के चुनाव में एडवांटेज है। वे पहले से स्थापित हैं।
राजीव प्रताप रूढ़ी से आपकी हालिया मुलाकात की काफी चर्चाएं हो रही हैं?
हम एनडीए के घटक हैं। इसलिए जद (यू) और भाजपा नेताओं से मिलना सामान्य बात है। रूढ़ीजी से मुलाकात छपरा की एक सड़क को लेकर हुई थी। उसके बनने से पटना से बाल्मिकीनगर का सफर डेढ़ घंटा कम हो जाएगा।
लोकसभा चुनाव को लेकर बिहार में क्या चुनौतियां हैं, रालोसपा के अलग होने को किस नजरिये से देख रहे हैं?
अगले लोकसभा चुनाव में यदि एनडीए को सबसे अच्छी बढ़त कहीं मिलेगी, तो वह बिहार होगा। राज्य में एनडीए को अब तक के सबसे बेहतरीन नतीजे मिलेंगे। भाजपा, जद (यू) और लोजपा के गठबंधन से बिहार में एनडीए मजबूत है। राजद की उपस्थिति कुछ ही सीटों तक है, जिससे हमें कोई चुनौती नहीं है। रालोसपा के एनडीए से अलग होने से हमारी रणनीति पर कोई असर नहीं पडे़गा।
चुनावों के लिए स्टेट फंडिंग पर आप क्या सोचते हैं?
मैं स्टेट फंडिंग का बहुत बड़ा समर्थक नहीं हूं। स्टेट फंडिंग के बाद भी इस बात की गारंटी नहीं कि धनी उम्मीदवार अपने पैसे का इस्तेमाल नहीं करेगा या जिन लोगों के पास ज्यादा पैसा है, वे इसका फायदा नहीं उठाएंगे। ऐसे लोगों के लिए स्टेट फंडिंग धन का एक अतिरिक्त स्रोत बन जाएगा। इसलिए उम्मीदवार के खर्च और पार्टियों के खर्च पर रोक लगनी चाहिए।
राजनीति का अपराधीकरण कैसे दूर हो सकता है?
तीन तरीके हैं। एक, जिन पर आपराधिक मुकदमे हैं, उनका एक तय समय के भीतर निपटारा हो, ताकि जिस पर आरोप साबित हो जाएं, वह चुनाव लड़ने से वंचित हो जाए। दूसरा, राजनीतिक दल ऐसे लोगों को टिकट ही न दें। तीसरा, जनता ऐसे उम्मीदवारों को वोट नहीं दे।
चुनावी हार-जीत में जातिवाद कब तक हावी रहेगा?
यह बात पूरी तरह सही नहीं। मैं तो कहूंगा कि अतिशयोक्ति है। जातियों की हिस्सेदारी समाज में तय है। एक ही व्यक्ति किसी जाति समूह के समर्थन से चुनाव जीतता है, लेकिन पांच साल बाद वह हार क्यों जाता है? दो चुनावों के बीच जातियों की संख्या में इतनी घटत-बढ़त तो हो नहीं जाती? मेरे विचार से दो वजहें हैं। एक जिन जाति समूहों ने समर्थन किया, उनमें बाद में समर्थन घट जाता है, क्योंकि वादे पूरे नहीं हुए। दूसरी, उन जाति समूहों के खिलाफ सारे अन्य जाति समूह एक हो जाएं। पर ऐसा तभी होगा, जब उम्मीदवार के कामकाज से लोग खुश नहीं होंगे।