संसद के प्रत्येक सत्र की शुरुआत हल्ले-हंगामे से होना अब उसकी नियति सी बन गई है। एक परंपरा के तहत संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही दिवंगत सदस्यों को श्रद्धांजलि देने के बाद स्थगित कर दी गई, लेकिन दूसरे दिन दोनों सदनों में जो कुछ हुआ वह भी एक अलिखित परंपरा की तरह से हुआ। यह परंपरा है हंगामा और नारेबाजी करके सदन को न चलने देने की। हाल के समय में संसद सत्र के ऐसे शुरुआती दिनों का स्मरण करना कठिन है जब वहां हंगामे और नारेबाजी के बजाय कोई सार्थक बहस हुई हो अथवा तय विधायी कामकाज अपेक्षित गरिमा के साथ हुआ हो। चूंकि संसद सत्रों की शुरुआत हंगामे से ही होने लगी है इसलिए विधानसभाओं में भी ऐसा ही होता है। किसी-किसी विधानसभा में तो शुरुआती दिन अनिवार्य तौर पर पोस्टर-बैनर के साथ नारेबाजी होती है।
दुर्भाग्य यह है कि ऐसे ही नजारे अब संसद में भी दिखने लगे हैैं। कई संसद सदस्य बहस के लिए तैयारी करने से अधिक ध्यान किस्म-किस्म के नारे लिखी तख्तियां बनाने पर देने लगे हैैं। यह संसदीय कार्यवाही के क्षरण का स्पष्ट प्रमाण है। विडंबना यह है कि राजनीतिक दल एक ओर संसद को लोकतंत्र का मंदिर बताते हैैं और दूसरी ओर वहां उसकी गरिमा गिराने वाला आचरण भी करते हैैं। इससे बड़ी त्रासदी यह है कि संसदीय कार्यवाही के स्तर में गिरावट को रोकने के लिए कहीं कोई पहल होती नहीं दिखती। उलटे ऐसे तर्क दिए जाते हैैं कि संसद में हंगामा करके और कामकाज बाधित करके राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रणनीति का परिचय देते हैैं। यह तर्क नहीं कुतर्क और साथ ही संसदीय व्यवस्था का घोर निरादर है।
राजनीति हंगामे, नारेबाजी और व्यवधान का पर्याय नहीं हो सकती। जब संसद में कामकाज नहीं होता तो राजनीति देश को दिशा देने के अपने मूल दायित्व से किनारा करने के साथ ही समाज और देश की अनदेखी भी कर रही होती है। आवश्यक विधेयकों को पारित कराने में बाधा डालना जानबूझकर देश की राह रोकना है। क्या यह आवश्यक और अपेक्षित नहीं कि जब संसद के इस सत्र को अंतिम पूर्णकालिक सत्र माना जा रहा है तब पक्ष-विपक्ष अपने आचरण से संसदीय कार्यवाही की कोई उजली तस्वीर दिखाएं? हैरानी है कि ऐसी कोई कोशिश उस राज्यसभा में भी होती नहीं दिखती जिसे वरिष्ठ जनों का सदन कहा जाता है और जिसके बारे में यह धारणा बनाई गई है कि वहां अधिक धीर-गंभीर चर्चा होती है। आखिर इससे दयनीय और क्या हो सकता है कि जिस उच्च सदन को दलगत राजनीतिक हितों से परे दिखना चाहिए वह उसी में आकंठ डूबा दिखता है।
यह सही है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद विपक्ष उत्साहित है, लेकिन क्या चुनावी सफलता का उत्साह संसद में नारेबाजी करने की अनुमति भी देता है? आखिर संसद में उन सब मसलों को उछालने का क्या मतलब जिन्हें पांच राज्यों के चुनाव प्रचार में बार-बार दोहराया गया? अगर इन मसलों को उछालना आवश्यक ही है तो फिर उन पर गंभीरता के साथ बहस की कोशिश किया जाना उचित है या फिर संसद के भीतर-बाहर नारेबाजी करना?