इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के दिल कुछ उसी तरह बाग-बाग हो रहे होंगे, जैसे खराब फॉर्म में चल रहे कैप्टन के किसी अहम मैच में फॉर्म में लौटने पर कोच और टीम मैनेजर के होते हैं।
सियासत कई बार क्रिकेट मैच जैसी लगने लगती है। उत्तर प्रदेश की सियासत के तीन-चार महीने पीछे के फ्लैशबैक में चलिए। तब योगी जी की सारी गोट उल्टी पड़ रही थीं। पशुवध पर अंकुश लगाया तो छुट्टा पशुओं ने किसानों को तबाह कर दिया। अपनी पसंद का डीजीपी लाए तो दुर्भाग्यवश कानून व्यवस्था पटरी से उतर गई। इस बीच विपक्ष उन्हें राजनीतिक दृष्टि से अपरिपक्व और मुख्यमंत्री पद के लिए अनुपयुक्त ठहराकर हमलावर होने लगा। उधर बुआ-भतीजे की जुगलबंदी से भी भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व से लेकर कार्यकर्ताओं तक की धुकधुकी तेज हो गई। निराशा हर दिन बढ़ती जा रही थी। कोच और टीम मैनेजर मायूस हो रहे थे।
तभी कैप्टन की फॉर्म वापस आ गई। ताबड़तोड़ समीक्षाएं शुरू हुईं। सुस्त अफसरों के पेच कसे गए तो माहौल बदलने लगा। अपराधी ढेर होने लगे तो क्राइम का ग्राफ गिरने लगा। छुट्टा पशु घेर-घारकर गोशालाओं और आश्रय गृहों में भेजे गए तो किसानों ने खेतों में बीज बोने शुरू कर दिए। योगी आदित्यनाथ के हेलिकॉप्टर की गूंज अफसरों को आगाह करने लगी कि सुधर जाओ। सुधार दिखने भी लगा। अयोध्या का दीपोत्सव आम-ओ-खास के दिल को छू गया। जो लोग राम मंदिर की बातों को सियासत का एजेंडा मानते हैं, उन्हें भी दीपोत्सव आनंदित कर गया।
इसके बाद इलाहाबाद को प्रयागराज और फैजाबाद को अयोध्या नाम देकर योगी ने विपक्ष को दिन में तारे दिखा दिए। मैच यानी मिशन 2019 में अभी तीन-चार महीने बाकी हैं, पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नेट पर जमकर हाथ दिखा रहे हैं। अब कुंभ आ रहा है जिसे भव्यतम बनाने की कवायद चल रही है। अनुमान लगाया जा रहा है कि योगी के तरकश में अभी कई अकाट्य तीर सुरक्षित हैं।
उधर बुआ- भतीजे के बीच खटपट शुरू हो गई है। इससे भी भाजपाइयों के हौसले बुलंद हैं। इसके बावजूद सबकी निगाहें राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के चुनाव पर टिकी हैं। चूंकि इन राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा इनके नतीजों की छाया लोकसभा चुनाव पर पडऩे के आसार हैं। यह तय है कि इन राज्यों के नतीजे आने के बाद सभी पार्टियां मिशन 2019 के लिए नए सिरे से रणनीतिक गोटें बिछाएंगी, पर फिलहाल योगी जी चौके-छक्के लगा रहे हैं और सियासी मैदान में गेंदों का पीछा करते-करते विपक्ष पस्त दिख रहा है।
समाजवादी पार्टी में इनडोर गेम
भाजपा और योगी आदित्यनाथ के बाद अब उस पार्टी का हालचाल, जो 19 महीने पहले पूरे ठसके के साथ सूबे की सत्ता पर काबिज थी। जी हां, समाजवादी पार्टी की ही बात हो रही है। चाचा यानी शिवपाल यादव ने जब से नई पार्टी बनाई है, कभी-कभी दिख भी जाते हैं, पर भतीजा जी कहां हैं, किसी को भनक नहीं। कार्यकर्ता मायूस हैं और गैर-सपाई हतप्रभ कि अखिलेश बाबू क्या कर रहे हैं। कुछ महीने पहले बसपा के साथ मिठास इतनी बढ़ी कि उसमें जल्द ही चीटे पड़ गए। इसके बाद कैंप में सन्नाटा छा गया है। न कोई मीटिंग, न सरकार के खिलाफ आंदोलन और न लोकसभा चुनाव की तैयारी।
मुलायम सिंह यादव के जीवन की उपलब्धि उनकी आंखों के सामने ठिकाने लग रही है और पुत्र-भाई के मोह की दुविधा में उनकी स्थिति विचित्र हो गई है। 2012 में प्रचंड जन-समर्थन के बाद सत्ता पाने वाली पार्टी आज जिस हश्र को प्राप्त हुई, वह उन सभी राजनीतिक दलों के लिए नसीहत है जो विचारधारा के बजाय परिवार, जाति और धर्म की राजनीति करती हैं।
अखिलेश यादव के विरोधी भी उनके कुछ कामों की सराहना करते हैं, पर यूपी का राजनीतिक इतिहास इस बात पर अफसोस करेगा कि एक नौजवान और संभावनापूर्ण नेता जो मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा, खुद को अपने सियासी परिवेश की विसंगतियों से उबार नहीं सका। अखिलेश यादव के लिए अपने मुख्य- मंत्रित्वकाल और पिछले 19 महीनों के सियासी कालखंड पर आत्मचिंतन करने का वक्त है। उनके जैसा खाली मैदान बिरलों को मिलता है, पर उन्होंने अपनी जमीन बहुत जल्द खो दी। उन्हें गहराई से विचार करना चाहिए, क्योंकि मिशन 2019 उनकी राजनीतिक परिपक्वता, दूरदृष्टि, धैर्य और जनाधार का कड़ा इम्तिहान लेने आ रहा है। वह उचित समझें तो यह नसीहत याद रखें कि राजनीति इनडोर गेम नहीं है। यह खेल खुले मैदान में खेलना पड़ता है।
खतरनाक खेल
सियासत में वोटबैंक पुख्ता करने के लिए थोड़ी बहुत ऊंच-नीच नई बात नहीं, पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर जो कर रहे, उसकी नजीर मिलना कठिन है। जिस वक्त नक्सल अतिवादी पाकिस्तान-पोषित आतंकियों की तरह देश के सुरक्षाकर्मियों और नागरिकों को क्षति पहुंचा रहे हैं, ठीक उसी वक्त राज बब्बर बार-बार और घुमा-फिराकर उन्हें क्रांतिकारी बता रहे हैं। राज बब्बर लंबे समय से राजनीति में हैं। आश्चर्य है कि वह इस देश के आम आदमी का मानस नहीं समझ पाए। राजनीति की अपनी मजबूरियां होंगी, पर इस देश के नागरिक कभी भी आतंकवाद या अराजकता के साथ खड़े नहीं हो सकते। यदि कोई नेता इस गलतफहमी में है कि नक्सलियों का महिमामंडन करके उनकी पार्टी को किसी खास वर्ग की सहानुभूति हासिल हो जाएगी तो सबको थोड़ा इंतजार करना चाहिए। देश के कम पढ़े-लिखे मतदाता जल्द ही बता देंगे कि राष्ट्रदोहियों का गुणगान करने का क्या हश्र होता है।