शाश्वत तिवारी।जब-जब जगत को दुःख, अधर्म और अराजकता ने घेरा, तब-तब राम ने अवतार लिया। तुलसीदास ने जब ‘रामचरितमानस’ की रचना की, तब भारत सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक रूप से गहरे संकट में था। उन्होंने अपने राम को केवल युद्धों में विजयी एक योद्धा के रूप में नहीं, बल्कि एक करुणामय, न्यायप्रिय, और लोककल्याणकारी शासक के रूप में प्रस्तुत किया।
तुलसीदास के राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं — जो हर परिस्थिति में धर्म के मार्ग पर चलते हैं, चाहे वह कितना ही कठिन क्यों न हो। वे अपने राज्य में न्याय और करुणा का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिसे ‘रामराज्य’ के रूप में आज भी आदर्श माना जाता है।
रामराज्य वह राज्य है जहाँ कोई भूखा नहीं रहता, कोई दुखी नहीं होता। जहाँ राजा स्वयं को जनसेवक मानता है। तुलसीदास ने लिखा:
“सकल लोक प्रिय राम सियाही। धर्म निसर्ग ममता मनमाही।”
इस रामराज्य में धर्म, नीति और करुणा की त्रिवेणी बहती है। वहाँ सत्ता का उद्देश्य केवल शासन नहीं, बल्कि सेवा है।
तुलसीदास के राम एक सामाजिक संदेश भी देते हैं – वे शबरी के झूठे बेर खाते हैं, केवट से प्रेम करते हैं, निषादराज को गले लगाते हैं। वे बताते हैं कि जाति, वर्ग, लिंग या जन्म किसी की भक्ति, योग्यता और सम्मान में बाधा नहीं बन सकते। इस संदेश की आज के समाज में बहुत बड़ी प्रासंगिकता है, जहाँ बराबरी, समावेश और करुणा की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।
आज जब हम राम मंदिर के पुनर्निर्माण के गौरवपूर्ण क्षण का साक्षी बन रहे हैं, तो हमें राम के वास्तविक स्वरूप को भी याद रखना चाहिए — वह राम जो सबके हैं, जो प्रेम और सेवा का प्रतीक हैं। हमें तुलसीदास जी के राम से प्रेरणा लेकर अपने जीवन में भी रामराज्य के मूल्यों को उतारना होगा — चाहे वह पारिवारिक जीवन हो, समाज हो या राष्ट्र।
तुलसीदास ने जो राम दिए, वे केवल मंदिरों में पूजे जाने के लिए नहीं हैं — वे तो मन, कर्म और व्यवहार में बसने वाले राम हैं। ऐसे राम जो हम सबके भीतर हैं, बस ज़रूरत है उन्हें पहचानने और अपनाने की।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)