शाश्वत तिवारी।8 अप्रैल 1929 की वह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ थी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने न केवल अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी, बल्कि समूचे देश को यह संदेश भी दिया कि युवाओं का संघर्ष अब विचारों की क्रांति बन चुका है।
“बहरों को सुनाने के लिए धमाका ज़रूरी था” ये सिर्फ एक पंक्ति नहीं, बल्कि उस दौर के क्रांतिकारियों की मानसिकता और प्रतिबद्धता का प्रतीक है।
8 अप्रैल 1929:
जब बहरों को सुनाने के लिए गूंजा था एक बम,
जिसने दी एक चेतावनी, इंकलाब अभी ज़िंदा है।
सेंट्रल असेम्बली मै गूंजते भाषणों और शांत बहसों के बीच, दो नौजवानों ने वक़्त की गर्द झाड़ दी, भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त। उन्होंने कोई जान नहीं ली,
लेकिन एक सोच को ज़रूर ज़िंदा कर दिया।
एक बम फेंका गया, न्याय के नाम पर, एक पर्चा फेंका गया, सत्ता को आइना दिखाने के लिए।
“बहरों को सुनाने के लिए धमाके की ज़रूरत होती है”
— यह महज़ एक लाइन नहीं,
बल्कि उस दौर की चुप्पियों को तोड़ने की सबसे गूंजती आवाज़ थी।
ये विरोध ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ के खिलाफ था, पर असल लड़ाई थी उस सोच से, जो आज़ादी को खतरा समझती थी। भारत की धरती पर जब विचार क्रांति का रूप लेने लगे, जब नौजवानों की कलम और बंदूक एक ही सपना देखने लगे, “पूर्ण स्वराज” का सपना। आज 96 साल बाद, उन दोनों को याद करना प्रेरणादायक है।