सूर्योपासना के लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार के कई लाभ
बेगूसराय (बिहार) : सूर्य उपासना सनातन काल से प्रचलित रही है। वेदों में ओजस्, तेजस् एवं ब्रह्मवर्चस् की प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना करने का विधान है। यजुर्वेद में कहा गया है कि उनसे हमारा कोई भी कार्य व्यवहार छिपा नहीं रह सकता। सूर्य की दृश्य व अदृश्य किरणें समस्त बाधाओं को बेधती हुईं सृष्टि के कण-कण की सूचनाएं एकत्रित करती रहती हैं। ऋग्वेद में भी सूर्योपासना के कई प्रसंग हैं जिनमें सूर्य से पाप मुक्ति, रोग नाश, दीर्घायु, सुख प्राप्ति, शत्रु नाश, दरिद्रता निवारण आदि के लिए प्रार्थना की गयी है। वेदों के अनुसार मन्त्रों में सर्वश्रेष्ठ गायत्री महामन्त्र में भी सविता अर्थात सूर्य है। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है सविता वा देवानां प्रसविता। सूर्य का विस्तार अनन्त है। यह ब्रह्माण्ड कितने ही सूर्यों से जगमगा रहा है और ये सभी सूर्य शास्त्रानुसार उस अज्ञात महासूर्य की ही उपज हैं। प्राणदायिनी ऊर्जा एवं प्रकाश का एक मात्र स्रोत होने से सूर्य का नवग्रहों में भी सर्वोपरि स्थान है। भारतीय संस्कृति ने सूर्य के इस सर्वलोकोपकारी स्वरूप को पहले ही जान लिया था। इसीलिए भारतीय संस्कृति में सूर्य की उपासना पर बल दिया गया है।
यह बातें सिमरिया कल्पवास मेला में ज्ञान मंच से सोमवार की सुबह प्रवचन के दौरान स्वामी चिदात्मन जी महाराज ने कहीं। उन्होंने कहा कि सूर्योपासना के लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के अनेक लाभ हैं। निष्काम भाव से दिन -रात निरंतर अपने कार्य में रत सूर्य, असीमित त्याग की प्रतिमूर्ति हैं। सूर्य ग्रीष्म काल में पृथ्वी के जिस रस को खींचते हैं उससे ही चातुर्मास में हजारों गुणा करके पृथ्वी को सिंचित कर देते हैं। ऐसे सूर्यदेव सबको इतना ही समर्थ बनाएं, यही सूर्योपासना का मूल तत्त्व है। भारतीय संस्कृति इसी भावना से ओत- प्रोत रही है। इस आधार पर आदि सविता तो परब्रह्म को ही कहा जा सकता है लेकिन, प्रत्यक्ष सूर्य को सविता अर्थात परब्रह्म का सर्वोत्त्म प्रतीक कहा गया है। सूर्य केवल स्थूल प्रकाश का संचार ही नहीं करते, वह सूक्ष्म अदृश्य चेतनाओं का भी संचार करते हैं। सूर्योदय के साथ वनस्पति से लेकर जीवों तक में चेतनात्मक हलचल बढ़ जाती है। इसलिये वेद में उसे विश्व की आत्मा ‘सूर्यो आत्मा जगतस्य’ कहा गया है। अथर्ववेद में है ‘संध्यानो देवःसविता साविशद् अमृतानि।’ अर्थात् यह सविता देव अमृत तत्त्वों से परिपूर्ण है। और ‘तेजोमयो मृतमयः पुरुषः।’ अर्थात यह परम पुरुष सविता तेज का भण्डार और अमृतमय है।
गीता में सूर्य को सनातन ज्ञान का आदि विस्तारक बताते हुए चौथे अध्याय में भगवान कहते हैं कि यह योग प्रारम्भ में मैंने सूर्य को बताया। फिर सूर्य से मनु को तथा मनु से इक्ष्वाकु को प्राप्त हुआ। जब राम का राज्याभिषेक हुआ तो माता सीता के साथ राम ने सूर्य षष्ठी के दिन तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिये सूर्य उपासना की थी। कर्ण सूर्य भगवान के परम भक्त थे तथा प्रतिदिन घण्टों पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। आज छठ में अर्घ्य दान की यही पद्धति प्रचलित है। स्वामी चिदात्मन जी ने कहा कि सूर्यदेव आध्यात्मिक शक्तियों के साथ ही आरोग्य देने वाले भी हैं। भगवान् कृष्ण तथा जामवंती के पुत्र साम्ब का कुष्ठ रोग सूर्य उपासना से ही ठीक हुआ था। स्कन्द पुराण की उक्ति ‘किं न सविता ददात् सम्यंगु पासितः। आयुरारोग्यवैश्वर्यं स्व चापवर्गकम्॥’ अर्थात उपासना करने पर आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य, स्वर्ग, अपवर्ग सहज ही प्राप्त हो जाते हैं। वैज्ञानिकों ने सूर्यदेव के भौतिक रूप से प्रकाश, ऊर्जा और यत्किंचित् काल ज्ञान प्राप्त किया है। लेकिन, दैविक पक्ष कहीं अधिक सशक्त और रहस्यमय है। इसकी उपासना से पवित्रता, प्रखरता, वर्चस्, तेजस जैसी सिद्धियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। ब्रह्माण्ड के रहस्य जाने जा सकते हैं। लोक लोकान्तर के रहस्यों को प्रत्यक्ष किया जा सकता है। तभी तो विश्व के सारे वैज्ञानिक आज ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत सूर्य को ही मानते हैं और हम सब भी उगते सूर्य ही नहीं डूबते सूर्य को भी पूजते हैं।