सीएम योगी के नेतृत्वराजेंद्र बाबू : राजनैतिक ऋषि ! में मातृत्व सुरक्षा को मिल रहा बढ़ावा

के. विक्रम राव X ID (Twitter ) : @kvikramrao1

प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की गत सप्ताह पुण्यतिथि (28 फरवरी 1963) थी। इस संदर्भ में प्रथम राष्ट्रपति और प्रथम प्रधानमंत्री के बीच चला सत्ता संघर्ष का विश्लेषण छः दशक हुये अभी तक सम्यक नहीं हुआ है।
राष्ट्रपति बनाम प्रधानमंत्री के विवाद के संदर्भ को बेहतर समझने के लिए भारतीय गणतंत्र की शैशवास्था के प्रसंगों पर गौर करें ताकि वे त्रुटियां फिर आज के संवैधानिक स्थितियों को न ग्रसें। यह वाकया है नवस्वाधीन भारतीय गणतंत्र के प्रारंभिक वर्षों का। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के आपसी रिश्ते तथा व्यवहार के नियम तब निर्धारित नहीं हुए थे। उसी दौर में राष्ट्रीय विधि संस्था (सर्वोच्च न्यायालय के सामने वाले भवन में) राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को भाषण होने वाला था। विषय था : “राष्ट्रपति बनाम प्रधानमंत्री की शक्तियां।” संपादक दुर्गादास की आत्मकथा के अनुसार नेहरु खुद सुबह ही सभा स्थल पहुंच गये तथा राष्ट्रपति के भाषण की सारी प्रतियां जला दीं। राष्ट्रपति के निजी सचिव बाल्मीकि बाबू बमुश्किल केवल एक प्रति ही बचा पाये। ऐसा माजरा था आजाद हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री के व्यवहार का ! अमेरिकी राष्ट्रपति जनरल आइजनहोवर ने राजेन बाबू को ”ईश्वर का नेक आदमी” बताया था। उन्हें अमेरिका आमंत्रित भी किया था। विदेश मंत्रालय ने आमंत्रण को निरस्त करवा दिया। विदेश मंत्री ने कारण बताया कि अवसर अभी उपयुक्त नहीं है। (दुर्गादास : ”इंडिया फ्रॉम कर्जन टू नेहरू एण्ड आफ्टर” : पृष्ठ—331.339, अनुच्छेद 13, शीर्षक राष्ट्रपति बनाम प्रधानमंत्री)।

जब सरदार पटेल ने सौराष्ट्र में पुनर्निर्मित सोमनाथ मंदिर के उद्घाटन समारोह पर 1949 में राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को आमंत्रित किया था तो नेहरु ने कहा : ”सेक्युलर राष्ट्र के प्रथम नागरिक के नाते आपको धर्म से दूर रहना चाहिये।” पर राजेन बाबू गुजरात गये। सरदार पटेल ने राजेन बाबू को तर्क दिया था कि “जब—जब भारत मुक्त हुआ है, तब—तब सोमनाथ मंदिर का दोबारा निर्माण हुआ है। यह राष्ट्र के गौरव और विजय का प्रतीक है।” अब एक दृश्य इस प्रथम राष्ट्रपति की सादगी का। ”राजेन बाबू”, इसी नाम से पुकारे जाते थे वे। तब वकील राजेन्द्र प्रसाद अपना गमछा तक नहीं धोते थे। सफर पर नौकर लेकर चलते थे। चम्पारण सत्याग्रह पर बापू का संग मिला तो दोनों लतें बदल गयी। धोती खुद धोने लगे (राष्ट्रपति भवन में भी)। घुटने तक पहनी धोती उनका प्रतीक बन गयी। आजकल तो रिटायर राष्ट्रपति को आलीशान विशाल बंगला मिलता है। मगर राजेन बाबू सीलन में सदाकत आश्रम (कांग्रेस आफिस, पटना) में रहे। दमे की बीमारी थी। मृत्यु भी श्वास के रोग से हुयी। जब उनका निधन हुआ (28 फरवरी 1963) तो उनके अंतिम संस्कार में जवाहरलाल नहीं गये। बल्कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन से आग्रह किया था कि वे भी न जायें। डा. राधाकृष्णन ने जवाब में लिखा (पत्र उपलब्ध है) कि : ”मैं तो जा ही रहा हूं। तुम्हें भी शामिल होना चाहिये।” नेहरु नहीं गये। बल्कि अल्प सूचना पर अपना जयपुर का दौरा लगवा लिया। वहां सम्पूर्णानन्द (यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री) राज्यपाल थे। राजेन बाबू के साथी और सहधर्मी रहे। वे भी नहीं जा पाये। उन्होंने प्रधानमंत्री से दौरा टालने की प्रार्थना की थी। पर नेहरु जयपुर गये। राज्यपाल को एयरपोर्ट पर अगवानी की ड्यूटी बजानी पड़ी। खुद जीते जी अपने को भारत रत्न प्रधानमंत्री नेहरु ने दे डाला। प्रथम राष्ट्रपति को पद से हटने के बाद दिया गया। क्या यह सही था ?

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सभा के अध्यक्ष थे। यह वही छात्र थे जिसके लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय के कानून विषय के (मास्टर ऑफ़ लॉ) परीक्षक ने लिखा कि, “परीक्षार्थी परीक्षक से भी अधिक जानकार है|” फिर वे राष्ट्रपति बने थे।
अब संविधान निर्मात्री समिति के अध्यक्ष डॉ. अम्बेडकर तथा शेष सदस्यों को भी जान लें। डॉ. अम्बेडकर दलित और वंचित परिवार के थे जिन्होंने बड़ौदा महाराज के वजीफे पर लन्दन जाकर बैरिस्टरी पढ़ी। युगों से शोषित हुए हरिजनों को स्वतंत्र भारत में न्याय दिलाने हेतु प्रायश्चित के तौर पर (राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के अनुरोध पर) उन्हें संविधान निर्मात्री समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। परिवारवाद की नींव : तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष उच्छरंगराय धेबर के स्थान पर पुत्री इंदिरा गांधी के नामित होने के पूर्व एक महत्वपूर्ण घटना हुई थी। इंदौर के लक्ष्मीनाथ नगर में 5 जनवरी 1957 को हुए कांग्रेस प्रतिनिधियों की बैठक में केन्द्रीय रक्षा उत्पाद मंत्री महावीर त्यागी (देहरादून सांसद) और पार्टी मुखिया धेबर में तीव्र वाद-विवाद हुआ था। त्यागीजी ने कहा था कि आगामी (द्वितीय) लोकसभा निर्वाचन में नेहरू की निजी लोकप्रियता के कारण कांग्रेस विजयी होगी। धेबर ने जवाब दिया कि कांग्रेस की जड़ें काफी गहरी हैं। पार्टी अपने बूते जीतेगी।” (दैनिक हिन्दू : 6 जनवरी 1957)।

बेटी ही रही मन में : स्वर्गीय वामपंथी संपादक कुलदीप नायर जो गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के सूचना अधिकारी थे, ने लिखा (19 मार्च 2011) कि शास्त्री जी ने यह उन्हें बताया था कि “पंडित जी के दिल में बस उनकी पुत्री ही है।” नायर का प्रश्न था कि नेहरू के बाद प्रधानमंत्री क्या शास्त्रीजी बनेंगे? अकेले पड़ गये थे : नेहरू के पक्ष में राष्ट्रीय अद्ध्यक्ष पद हेतु किसी भी प्रदेश कांग्रेस समिति ने (1946 में) कोई नामांकन नहीं दायर किया था। सरदार पटेल के पक्ष में बहुमत था पर उन्होंने गांधी जी के कहने पर अपना नाम नेहरू के पक्ष में वापस ले लिया। कारण था कि बापू को आशंका थी कि सोशलिस्टों के साथ मिलकर नेहरू कांग्रेस पार्टी को तोड़ देंगे। (दि ट्रिब्यून, 14 नवम्बर 2001: वी. एन. दत्त)। ऐसा ही कदम इंदिरा गांधी 1967 में, फिर दो बार आगे भी, उठा चुकी थीं।

K Vikram Rao
Mobile -9415000909
E-mail –k.vikramrao@gmail.com

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com