इस अवसर पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने संबोधन में कहा कि दुनिया की किसी भी सभ्यता को हमारे देश जितना अत्यधिक तनाव, विकृत मिथक, अपमानजनक झूठ और असत्य का सामना नहीं करना पड़ा है। यह अकल्पनीय अनुपात की त्रासदी और उपहास है।
उपराष्ट्रपति ने कहा कि दुनिया में कोई भी देश दूसरों द्वारा लिखित इतिहास और परंपरा का अध्ययन और व्याख्या करके आगे नहीं बढ़ा है। मुझे यह स्वीकार करने में गहरा दुख होता है कि हमारे इतिहास का पहला मसौदा उन उपनिवेशवादियों ने लिखा था जिनके पास भारत के ग्रंथों और परंपराओं को देखने का एक नजरिया था। उनका एक ही मकसद था कि हमारे उन प्रसिद्ध लोगों को ऐतिहासिक उल्लेख से दूर रखा जाए, जिन्होंने उनके वंश का नेतृत्व किया और सर्वोच्च बलिदान दिया। औपनिवेशिक शासन ने हमारी शिक्षा प्रणाली पर एक बाहरी ढांचा थोप दिया और इतना ही नहीं, उन्होंने तिरस्कारपूर्वक स्वदेशी परंपराओं को अवैज्ञानिक और अप्रासंगिक बताकर खारिज कर दिया।
उन्होंने कहा कि अदूरदर्शी सोच के कारण, वे हमारी प्रक्रिया में ज्ञान और विज्ञान तथा तर्कसंगतता की गहराई की सराहना नहीं कर सके। हमारी सभ्यता को खुद को समझने के लिए स्वदेशी दृष्टिकोण की जरूरत है। जितना एक बच्चे को मां के दूध की जरूरत होती है। हमें इतिहास को आउटसोर्स करने के मूल पाप से मुक्ति पाने की आवश्यकता है। यह केंद्र इसी तरह का एक कदम है।
उन्होंने आगे कहा कि सही मायने में उपनिवेशवाद से मुक्ति तब शुरू होती है, जब हम दूसरों की कहानियों में फुटनोट बनना बंद कर देते हैं और अपने पुनर्जागरण के लेखक बन जाते हैं।