विजय गर्ग
इन दिनों एक धारणा जोर पकड़ रही है कि ‘ग्लोबल विलेज’ या वसुधैव कुटुंबकम् यानी धरती का हर कोना अपना है और हर मनुष्य का धरती के हर कोने में रहने का अधिकार है। पर इस बदलती हुई दुनिया की चकाचौंध ने आधुनिक मनुष्य को घर परिवार से तोड़ कर इस तरह से एक नया रोबोट और कंप्यूटर इंसान बना दिया है, जिसकी शायद पहले कभी कल्पना भी नहीं की गई थी । पिछले कुछ समय से ‘डीप फेक’ और ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ यानी कृत्रिम मेधा ने इसमें और इजाफा कर दिया है। दरअसल, अब इस नई दुनिया का नया इंसान एक दशक पहले तक के इंसान से बिल्कुल अलग है। आज लोगों की आदतें आचार, पसंद, उनका व्यवहार, पहनावा और खाना तक बदल रहा है। आने वाले दिनों में यह बदलाव की आंधी आज के मनुष्य को कहां लेकर जा रही है, वह अकल्पनीय और भयावह लगने लगा है।
आजकल एक तरफ भौतिकवाद की सुविधाओं से लैस नए उपभोक्ता – बाजार में भीड़ के बीच खो रहा सामाजिक ताना-बाना है और एक तरफ नितांत अकेले मनुष्य की त्रासदी का इस आभासी दुनिया में खुलता हुआ एक नया अध्याय है, जिसको हम आंखें मूंद कर अपना रहे हैं। भारत के विभिन्न प्रांतों में जिस तरह की स्थिति आज बनी हुई है, उसमें प्रवास का चलन इस पीढ़ी के लिए कोई नई बात नहीं है। सभी तरह की सीमाएं टूट रही हैं और घरों की परिभाषा भी अब बदल गई है। महानगरीय जिंदगी में गांव से पलायन ने रोजगार की इस ऊंची उड़ान के साथ-साथ सपनों के नए संसार का भविष्य बनाने के लिए इंसान को अकेला कर दिया है और नई पीढ़ी इसका शिकार और लुभावनेपन में अंतर नहीं कर पा रही है। अब लोगों ने पश्चिमी देशों के साथ-साथ सुदूर आस्ट्रेलिया – न्यूजीलैंड से लेकर मध्य पूर्व और फिलिपींस जैसे देशों में भी जाना शुरू कर दिया है, हालांकि यह भी सही है कि रोजगार के लिए आदमी कहां-कहां चला जाता है । आज केरल से लेकर पंजाब तक गांवों में पलायन से जिस तरह घर खाली हो रहे हैं, उसमें यह साफ दिखने लगा है कि अब घरों की मुंडेरों पर कौवे – कांव-कांव नहीं बोलते।
संत कबीर ने काफी पहले यह कहा था कि मन-मस्तिष्क में जब सूनापन आ जाए तो फिर प्रभु ही उस पर कृपा करता है। मगर आज यह किसकी कृपा है ? आज बदलते हुए हालात और चकाचौंध से भरी दुनिया में आगे बढ़ने और नए सपनों को साकार करने की यह एक ऐसी दौड़ है, जिसमें हमने अपना समाज, परिवार, घर, रिश्ते-नाते, दोस्ती और जल, जंगल, जमीन से ही कन्नी काट ली है। हम टूटे वीरान घरों की बात करते हैं, जहां अब दरवाजे पर ताले लटक रहे हैं। कोई डाकिया ऐसे घरों और सुनसान उदास कर देने वाली गलियों में बांटने नहीं आता। ऐसे तमाम घर हैं, जिनमें बचे हुए वृद्ध मां- बाप खाली गलियों में और चौखट पर खड़े होकर मोबाइल की रोशनी में कभी-कभी वीडियो काल पर अपने बेटे-बेटियों और उनके बच्चों से बात करते हैं । वैराग्य और उदासी का यह आलम आंखों के आंसुओं को सोख रहा है और मानवीय त्रासदी के नए अध्याय को भी दुनिया के सामने खोल रहा है कि यह कैसी जिंदगी हमने इस सूनेपन की अवस्था में जीना शुरू कर दिया है। यह किस समाज की निशानी है ?
हमारे अपने देश की धरती, जिसमें भारतीयता की संस्कृति में एक अपनेपन की लय है, मन में प्रेम की गंगा बहती है, वहां से लोग रोजगार के लिए अन्य जगहों पर जाने के लिए मजबूर होते हैं, पर इस होड़ में पलायन कर गए युवा क्या कभी अपने घर लौट पाएंगे ? समंदर के किनारों से आने वाली ठंडी हवा और पांच नदियों से पंजाब का पानी उस विरह और उदासी को और गहरा कर चुका है जो शायद ही कभी खत्म होगी। यह भी सच है कि आने वाले दो दशकों में पूरे भारत का सामाजिक ताना- बाना जिस तरह से बदल जाएगा, उस तरह से धरती के भूभाग एक अलग पहचान के होंगे, जहां हमारी भाषा, बोलचाल और हमारा चेहरा- मोहरा बदल जाएगा, क्योंकि सदियों की विरासत से मिली-जुली संस्कृति अब खत्म होती लग रही है। राजनीतिक पार्टियां अपनी जिम्मेदारी से भाग नहीं सकतीं कि इस राजनीतिक शून्य को किस तरह नापा जाएगा और किस तरह से हम आने वाले दिनों में ‘डीपफेक’ और कृत्रिम बुद्धिमता की अनिवार्यता से बच पाएंगे।
समय का सच और समय की नब्ज टटोलते हुए कहा जा सकता है कि इन दिनों जिंदगी उस मोड़ पर पहुंच गई है, जहां धूप बेगानी है, पानी भी बेगाना है, रूह परदेसी हो गई है और आंखों में पानी सूख गया है, मुंडेरे सूनी हैं, हमारे खेत सूने हो रहे हैं और खाली पड़े आंगन में उगती हुई घास और मृत्यु का सामान दिखता माहौल किस खुशहाल देश की कामना करता है? यह समाज जिस मोड़ पर पहुंच गया है, वहां घर, मकान, आंगन- सब सूने और मन भी सूना है। धरती, घर और मां को छोड़ना कितना मुश्किल है, यह उनसे पूछा जा सकता है, जो रहते तो विदेश में है, पर आंखों में हर समय भारत धड़कता है और दिल में घर का आंगन हर वक्त कुछ कहता है। दिल की बात भारतीयता की बात है। अभी भी बहुत कुछ नहीं गया है।