अनुभव की स्मृति

विजय गर्ग

विगतगत कुछ दशकों में भारतीय संस्कृति की विशिष्टताओं- सत्य अहिंसा अपरिग्रह साधना ध्यान आदि मूल्यों को एक झटका सा लगा है। चीजें पश्चिमी प्रभाव से लिपट रही हैं। आधुनिक होने के इतने तरीके अपनाए या आजमाए जा रहे कि हम भूल गए हैं कि हमारा मूल क्या है ! निष्कर्ष यह कि जिस गंगा में कभी कीड़े भी नहीं पड़ते थे, उसी की सफाई और सुरक्षा पर करोड़ों रुपए खर्च हो रहे हैं। कानपुर और बनारस जैसे शहरों में आधुनिक उद्योग काला जहरीला तेजाब गंगा में बहा रहे। इंसान इतना भी आधुनिक न हो जाए कि मनुष्य को मनुष्य की जरूरत ही न पड़े। कर्ज की संस्कृति प्रगाढ़ हुई… ‘ऋणम् कृत्वा घृतम पिबेत्’ की धारणा आम लोगों में प्रबल होती गई । लगता है, जैसे बाजार हमारे घरों में ही नहीं, हमारे भीतर मन में प्रवेश कर रहा है। बाजारवाद के नियामक हर चीज को बाजारवादी नजरिए से देखने के हामी होते गए। शस्त्रों की खपत खर्च पूरे विश्व में बढ़ी है। सांप्रदायिकता जैसे विश्व की मनोग्रंथि में बसने लगी है।

वहीं कुछ लोग अक्सर अपने वर्तमान पर अतिक्रमण करते हैं, कुछ जो अपनी दूसरी दुनिया विन्यस्त करते रहे। कुछ हद तक अतीत में अतिक्रमित असहमति और विरोधों के ताप में तपकर चमकते रहते हैं, उनकी संख्या बहुत कम है, लेकिन संख्या है तो जरूर ! हो सकता है नीयत में खोट रखने वाला उसे अपने वाद या विचारधारा का अनुगामी बता दे। मगर उनके जीवन में कोई उपसर्ग नहीं जुड़ते। कोई आधुनिकता या वाद उन पर अपना अतिरेक नहीं छोड़ती, लेकिन आत्म प्रत्यय सदा जुड़ते चले जाते हैं। ऐसे लोग उपेक्षित अवस्था में पड़े किसी भवन, भाषा और भूषा, तीनों के बारे में चिंतित दिखाई दे जाएंगे। उनकी गहरी स्मृति से अनुप्रेरित किस्से समाज से जुड़ते चले जाते हैं। ऐसे लोग अक्सर अपनी पीड़ा दूसरों पर नहीं थोपते । भले से सादगी भरे लिबास में अपने गुणों का बिना बखान किए गहरी चुप्पी में वे असाधारण शब्दों को अपने भीतर संजोए रहते हैं। ऐसा नहीं कि वे किसी दुख से कभी न गुजरे, लेकिन पता नहीं जमीन की कौन-सी गहराई से उनके भाव ऊपर आते हैं, यातना की कितनी परतों को फोड़कर उनकी मुस्कराहट में बिखर जाता है और इसे जानने का मौका कभी किसी को नहीं मिलता। परिवार, अपनों को भी नहीं । वे आधुनिक भले ही न हों, लेकिन भीतर से इंसान जरूर बने रहते हैं। हमारे यहां सरलता – तरलता के नाम पर संबंधों के औपचारिक निर्वहन की परंपरा-सी बन गई है। कोई किसी की जरूरत का हिस्सा नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे सरलता, तरलता के नाम चलताऊ हिंदी प्रचलन में आ रही चलताऊ भाषा हो या जीवन-व्यवहार बीमार बना रहता है।

ग्रामीण जीवन की यही खासियत लोगों को एक दूसरे से जोड़े रखती है। वहां के लोग छोटी-छोटी जरूरतों के लिए एक दूसरे पर निर्भर रहना पसंद करते हैं। बल्कि वह उनके व्यवहार का एक हिस्सा होता है। शिक्षा से अधिक खर्च शस्त्र और सैन्य बल पर है। आखिर इन वैश्वीकरण के चमकदार नारों के पीछे का मानवीय सत्य क्या है ? क्या इनके जरिए सचमुच दुनिया की बदहाली दूर हो सकेगी ? भूमंडलीकरण की दिशा में क्रय और विक्रय की क्षमता के भरोसे विश्वव्यापी आयोजनों का महिमामंडन कायम है। शहर और कस्बाई लोगों का रुझान बहुप्रचारित ब्रांडेड उत्पादों की ओर ज्यादा नजर आता है। बस इसी तरह हम फिजूलखर्ची को ‘स्टेटस सिंबल’ या रसूख का प्रतीक मानने लगे। हमारे जीवन में कैसे विलासिता का सामान हमारी जरूरतों में शामिल हो रहा, हम समझना ही नहीं चाहते ।

इन दिनों सब अपनी अपनी दुनिया में व्यस्त दिखते हैं, सबके अपने निजी दुख हो गए खुशी के मापदंड भी अलग-अलग। ऐसे में बड़ी सादगी से कुछ लोग हर स्थिति में रचे-बसे सामान्य नजर आ जाते हैं तो बहुत असामान्य-सा लगता है, क्योंकि हम प्रतिक्रियावादी समाज का हिस्सा हैं। किसी विवाद या मत पर साधारण प्रतिक्रिया तो गणना में उतरती ही नहीं, जब तक कि वह कोई मुद्दा न बन जाए। शायद इसलिए जीवन में तात्कालिकता से गुजरते हुए हमें अनुभवों की स्मृतियों के प्रति बहुत सचेत रहने की जरूरत है। कौन-सा अनुभव कौन-सी शक्ल लेने जा रहा है, यह महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि कुछ लोगों के लिए वह एक उदाहरण हो सकता है और कुछ के लिए एक सबक। मनुष्य को मानवीय आत्मीयता के बिना आगे नहीं बढ़ाया जा सकता । भारतीयों ने यह बात सबसे अधिक और सबसे पहले सोची। आज जबकि नई तकनीक और नए उपभोक्तावादी बाजारवाद का जमाना गरम है, तब भोगवादी संस्कृति को समझना होगा।

जीवन विज्ञान का ही नहीं, मनोसंधान का संतुलित चिंतन है। मनुष्य को मनुष्य की जरूरत बनी रहे, कम से कम इतना अभाव तो सदा बने रहना जरूरी है । बहस से सत्य कमाने का जरिया अब बचा नहीं । तो ऐसे में भूमंडलीय पूंजीवाद क्या अपने इसी रूप-रंग में विश्व मानवता का प्रारूप बन सकता है ? भारतीय अर्थतंत्र साम्राज्यवादी भूमंडलीकरण के चक्र में फंसा हुआ है। भारत का इतिहास एक अखंड प्रवाह में है। एक अंतर्यात्रा के रूप में चला है। हमसे पहले की पीढ़ी और हमारे पूर्वज अनंत कालों के अनुभव के साझेदार हैं। ऐसे में हमारे अनुभवों की दिशा क्या होगी, भावी इतिहास उसे किस रूप में स्मरण करेगा, इस पर चिंतन जरूरी है। हमें इतिहास को खंगालते हुए कुछ मानवीय सूत्र जरूर फिर अन्वेषित करने चाहिए, जिनके बिना मनुष्य होने की कल्पना संभव नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे जल के बिना कोई संकल्प, आचमन नहीं हो सकता । मनुष्य ही मनुष्य का विकल्प हो सकता है। यांत्रिक सभ्यता को जीवन में संतुलन साधने की जरूरत है, अन्यथा अनुभवों की स्मृति में केवल यंत्र होंगे, मनुष्य नहीं ।

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