विजय गर्ग
शादी के बाद विभा जब इस शहर और इस नई कॉलोनी में आई थी, तो बेहद ख़ुश हुई थी. अच्छे, नए बने क्वार्टर्स, पानी, बिजली, सड़कें, पार्क और निकट ही ज़रूरी चीज़ों का एक छोटा सा बाज़ार. शहर की दौड़-भाग से दूर और शोर-शराब से मुक्त, प्रदूषणरहित इस कॉलोनी में उसके क्वार्टर्स के सामने ही एक बहुत बड़ी झील थी. झील में चांदनी रात में कुमुदनी के फूल खिलते तो उसे बालकनी से निहारते लगता, आसमान से सितारे टूट कर झील में आ गिरे हैं.
“जानती हो विभा, मैंने यह कॉलोनी क्यों चुनी..?” रोहित ने एक दिन हंसकर कहा था, “इसलिए कि यहां बेशुमार पेड-पौधे हैं. चारों तरफ़ हरियाली, न गंदगी, न धूल और धुआं. सामने ही यह विशाल झील और उसमें किलोल करते तमाम जलपक्षी. बीचोंबीच एक बड़ा पार्क, जिसमें बच्चों के लिए खेलने के अनेक उपकरण…”
बच्चे के नाम से ही शरमा गई थी विभा. लजाई पलकें रोहित के सामने नहीं उठीं, तो उसने ठुड्डी पकड़कर उसका चेहरा ऊपर उठा लिया था, “ए विभू! क्या हुआ तुझे? क्या हमारे बच्चे नहीं होंगे..? और क्या उन्हें खेलने के लिए ऐसे किसी पार्क की ज़रूरत नहीं पड़ेगी?”
“बालकनी में ये सब मत करिए आसपास सबको दिखता है. विभा कुछ परे हटी, तो रोहित हंस दिया, “देखने दो! भगाकर नहीं लाया, बाकायदा बैंड-बाजे लेकर गया था, बारात के साथ ब्याह कर लाया हूं.” अच्छा लगता था विभा को रोहित का वह पहला-पहला प्यार और जीवन में पहली बार उसे एहसास हुआ था कि भले ही अपनी छोटी बहन तृषा से बह बारंबार हारी हो, पर शादी के मामले में तो वही जीती है.
तृषा थी तो छोटी बहन, पर जीतती हमेशा वही रही उससे. हर मामले में विभा उससे हारी, पीछे रही और पराजित अपमानित हुई. ईश्वर ने तृषा को शक्ल-सूरत अच्छी दी, रंग भी दूध सा मिला. लेकिन विभा पिता की तरह सांवली थी. बुद्धि में तृषा पिता की तरह तेज और मेधावी निकली, जबकि विभा मां की ता फिसड्डी और बुद्धू थी. जैसे-तैसे बी.ए. कर पाई, फिर एम.ए. में. प्रवेश ज़रूर लिया, पर पहले साल ही हिम्मत हार कर परीक्षा देने से मुकर गई, जबकि तृषा ने विज्ञान, गणित जैसे विषय चुने और प्रदेश में स्थान पाया. इजीनियरिंग में चुनी गई और कंप्यूटर इंजीनियर बनकर बहुत अच्छी कंपनी में बीसियों हज़ार महीने की नौकरी पा गई. विभा को अपने शहर में नौकरियों के लाले ही पड़े रहे. छोटे-मोटे स्कूलों में इंटरव्यू देने की जैसे-तैसे हिम्मत जुटाती, तो वहां पूछा जाता कॉन्वेंट से पढ़ी हो? बच्चों को अच्छी अंग्रेज़ी सिखा सकती हो? पांच मिनट अंग्रेज़ी में किसी विषय पर बोल कर दिखाओ… और वह चुप रह जाती.
घर पर जो भी अच्छे और स्मार्ट लड़के भाई के कारण आते, वे तृषा से तो ख़ूब हंसकर मिलते, बतियाते, पर उससे कोई न बोलता. बहुत होता तो ‘दीदी’ का संबोधन कर नमस्ते कर लेते और तृषा की तरफ़ मुड़ जाते.
शादी के लिए लड़केवाले आते तो उसके मुंह पर ही कह देते, “हमें आपकी छोटी लड़की पसंद है. अगर उसका रिश्ता करें, तो हम तैयार हैं.” अपने आपको बुरी तरह अपमानित महसूस करती वह. मन होता आत्माहत्या कर ले. कहीं डूब मरे, क्या करेगी ऐसे जीकर. जहां उसका कोई चाहनेवाला न हो, जहां उसकी कोई मांग न हो. मां भी उससे अक्सर कुढ़ी रहतीं, उस पर झल्लाली रहतीं, उसकी कमियां गिनाती रहतीं. केवल घर में पिता थे, जो कभी-कभार उसे ढांढ़स-दिलासा बंधाते रहते.
रोहित ने पता नहीं कैसे विभा को पसंद कर लिया, तो माता- पिता ने विभा से यह पूछना तक ज़रूरी नहीं समझा कि रोहित उसे पसंद है या नहीं. बस शादी के लिए ‘हां’ कर दी और तैयारियां शुरू हो गईं. समझ लिया कि विभा का क्या! वह तो किसी से भी शादी के लिए राज़ी हो जाएगी. उससे क्या पूछना! जबकि तृषा… वह रोज घोषणा करती, उसे ऐसा-वैसा लड़का नहीं चलेगा जैसा चाहेगी, वैसा ही लड़का चाहिए.
शादी के कुछ दिनों बाद ही पूछ पाई विभा रोहित से, “एक बात बताएंगे आप..?”
“मुझे ख़ुशी है कि तुमने अपनी तरफ़ से कुछ पूछना तो चाहा. पूछो, अगर मुझे पता होगा तो ज़रूर बताऊंगा और सच-सच बताऊंगा.”
“आपने मुझे क्यों चुना..? जबकि आप मेरी तुलना में कहीं ज़्यादा सुंदर हैं… कहीं ज़्यादा पढ़े-लिखे, अच्छी नौकरी, पद-प्रतिष्ठा वाले व्यक्ति हैं… आपके लिए तो लड़कियों की कोई कमी न होती.”
रोहित ठहाका लगा कर हंसा, “जानती हो विभा, मैंने तुम्हें क्यों चुना? मेरे बड़े भाई की ट्रेजेडी शायद तुम्हें नहीं पता… बहुत ख़ूबसूरत और स्मार्ट लड़की से शादी की थी उन्होंने. बड़े घर की इकलौती लड़की थी. दहेज में भी बहुत कुछ मिला था, पर वह साल भर भी हमारे परिवार में नहीं रही. किसी के साथ उसका शादी से पहले ही चक्कर चल रहा था. एक दिन अपने सभी गहने-पैसे लेकर उसके साथ गायब हो गई. न उसके परिवारवाले कुछ कर पाए, न हम लोग उसे वापस ला पाए… उसने साफ़ कह दिया, वह मेरे भाई के साथ किसी क़ीमत पर नहीं रहेगी. अगर ज़ोर-ज़बरदस्ती की गई, तो वह आत्महत्या कर लेगी, बजाय वापस उस बेकार आदमी की पत्नी बनने के, जिसे वह पसंद नहीं करती..!”
“जब यह बात थी तो उसने शादी क्यों की आपके भाई साहब से?” चकित विभा पूछ बैठी.
“घरवालों के दबाव और बदनामी के कारण. बाद में पता चला, एबॉर्शन भी कराया गया था उसका.”
“बाप रे!” आंखें फटी की फटी रह गईं उसकी.
“तब से मेरे मन में एक गांठ बन गई है कि सुंदर लड़कियां वफ़ादार नहीं हो सकती. साधारण रूप-रंग की लड़कियां अपने पति को बहुत प्यार करती हैं. अच्छी तरह घर-परिवार चलाती हैं. और रही व्यक्तित्व निखारने की बात… तो विभा जब तुम मेरे साथ मेरे तमाम दोस्तों के घर आओगी-जाओगी, पार्टियों में शामिल होगी, सबसे मिलोगी-जुलोगी तो सब सीख-समझ जाओगी…. और सबसे बड़ी बात विभा कोई तुम्हें कभी भगा नहीं ले जाएगा और न तुम्हारा पहले से कहीं कोई चक्कर होगा… मैं आराम से अपनी नौकती कर सकूंगा… तुम्हारी तरफ़ से बेफिक्र रह कर.” हंसते रहे रोहित.
सुन कर कहीं गहरी चोट लगी थी विभा को… तो वह अपने किन्हीं अन्य गुणों के कारण पसंद नहीं की गई. उसकी पसंदगी वह डर, वह कुंठा है, जो बड़े भाई के असफल विवाह का कारण है.
वह कभी किसी और को नहीं जंचेगी, कोई और कभी उस पर न डोरे डालेगा, न उस पर आंख गड़ाएगा, इसलिए… इसलिए पसंद की गई कि उसका कोई पहले से चक्कर नहीं होगा, क्योंकि किसी ने कभी उसे पसंद नहीं किया होगा.
नापसंदगी ही पसंदगी का कारण बनी! अपने आप पर रोना आया उसे. ख़ुशी नहीं हुई ये सब जानकर. वह तो समझ रही थी कि अपनी पुष्ट देहयष्टि के कारण… अपने भरे गुदाज बदन के मदमाते यौवन के कारण उसे रोहित ने पंसद किया होगा. पर नहीं… वह कारण नहीं था… न उसका शऊर-सलीका चुनाव का कारण था, न उसकी शिक्षा-दीक्षा… न घर को कुशलता से चलाने का हुनर… उसके ये गुण बेकार थे… कारण कुछ और था… कारण था, रोहित अपनी कंपनी के काम से बेफ़िक्र होकर कहीं भी आ-जा सकता था. महीने में बीस-पच्चीस दिन यात्रा पर रह सकता था. निश्चिंत रह सकता था कि जब भी घर वापस लौटेगा, विभा उसके इंतजार में घर पर ही मिलेगी… वही हमेशा दरवाज़ा खोलेगी… क्योंकि कोई और उसे कही फुसला नहीं ले जाएगा. कैसी घटिया वजह है उनकी शादी की!
मन गिर गया था उस दिन से उसका. उमंग-उत्साह जैसे
चुक गया हो. घर में अपने आपको पत्नी कम, एक नौकरानी ज़्यादा महसूस करने लगी थी विभा. हालांकि रोहित की चाहत में कहीं कोई कमी नहीं प्रतीत होती थी, पर अक्सर पार्टियों में वह देखती, रोहित सुंदर लड़कियों और दोस्तों की सुंदर पत्नियों की तरफ़ तृष्णा भरी निगाहों से ताकने लगते थे… और यह देखकर मन ही मन लहूलुहान हो उठती थी वह, मानो नागफनियों पर से घसीट कर ले जाया जा रहा हो उसे… और उनके पैने-नुकीले कांटे उसके पोर-पोर में चुभते जा रहे हों.
जीत उसे तब महसूस हुई, जब तृषा के बारे में उसे पता चला कि वह अपनी कंपनी के शादीशुदा बॉस से इश्क़ कर बैठी है और वह मोटा-थुलथुला प्रेमी पैसे वाला ज़रूर है, पर उतना सुंदर और स्मार्ट नहीं, जितना कि रोहित, तो उसे बेहद ख़ुशी हुई. ज़िंदनी में पहली बार जीतने की ख़ुशी… कहीं गहरे संतोष, गहरी शांति और तृप्ति का एहसास हुआ उसे. आख़िर एक बार हरा ही दिया उसने तृषा को!
“बड़ी बेवकूफ़ निकली तुम्हारी बहन तुषा!” रोहित ने एक बार बाहर की यात्रा से वापस आकर बताया उसे. “अपनी कंपनी के बॉस को दिल दे बैठी और सरेआम उससे शादी कर ली… बेचारी पहली बीवी अपने बच्चों के साथ मायके चली गई और उम्र का फ़ासला देखो… बॉस पैंतालीस पार का व्यक्ति और वह पच्चीस की. अपने किए पर बाद में पछताएगी देखना.
रोहित के स्वर में व्याप्त तृषा के प्रति यह सहानुभूति
विभा को बेहद खली, पर प्रकटत: वह चुप ही रही. कुछ देर सोचने के बाद किसी तरह बोली, “कहां तो कहा करती थी कि वह ऐसे-वैसे से शादी नहीं करेगी और कहां उसने ढलती उम्र के प्रौढ़ पति को चुना… और वह भी शादीशुदा, बाल-बच्चोंवाला.”
बात हंसी में ही कही थी रोहित ने, पर विभा एकदम भीतर तक सुलग गई सुन कर, “अगर उसे अपनी जवानी ऐसे ही लुटानी थी, तो मेरे संग रहने लगती! मैं क्या बुरा था! अच्छा-खासा कमा लेता हूं. उसकी तुलना में कम उम्र और जवान भी हूं.”
कितना मुश्किल होता है कभी-कभी रोहित को सहना! विभा जैसे किसी पैने हथियार की धार से कतर दी गई हो. मन तो हुआ, कटती नज़रों में रोहित को देखे और कोई तीखी बात कह डाले, पर कह नहीं सकी. हां, एक रहस्य ज़रूर उस दिन उसके हाथ लग गया कि पुरुष को रूप की प्यास हमेशा रहती है. वह सौंदर्य प्रेमी होता ही है. किसी वजह से वह साधारण स्त्री से विवाह भले कर ले, पर मन में किसी रूपवती स्त्री को प्यार करने, पाने की भूख हमेशा बनी रहती है. पर यह भूख तो औरत में भी रहती होगी… पर उसके भीतर नहीं है, क्योंकि रोहित उसकी तुलना में कहीं ज़्यादा सुंदर है.
अगर वह तृषा की भांति रूपवती होती और रोहित काले-कलूटे, मोटे-भद्दे तो वह भी अपने आपको असुविधाजनक स्थिति में महसूस करती. सुंदर युवक के प्रति अपने भीतर भी एक सतत प्यास, एक सतत आकर्षण अनुभव करती, पर…
कई तरह समझाया अपने मन को, पर समझा नहीं सकी. तृषा के प्रति रोहित की सहानुभूति उसे अखर गई थी.
बमुश्किल दो साल गुज़रे होंगे. तृषा एक बच्चे की मां बन गई. बहुत बड़ा आयोजन किया तृषा के पति महेन्द्र ने. रोहित और विभा को भी आग्रह करके बुलाया, तो वे लोग भी गए. उसका वैभव देखकर चकित रह गई विभा. वाकई बाॉस बहुत बड़े व्यक्ति थे. वह जितना बुरा और भद्दा समझ रही थी, उतने बुरे और भददे भी नहीं थे.
विभा और रोहित का बहुत आदर-सत्कार किया उन लोगों ने, बल्कि महेन्द्र ने रोहित को अपनी कंपनी में काम करने का ऑफर तक दे दिया. कह दिया, मार्केटिंग की नौकरी रोहित जब चाहें, उनके यहां स्वीकार ले. उन्हें ख़ुशी होगी.
वे लोग वापस अपने घर पहुंचे ही थे कि तृषा का फोन आया, “विभा रोहित को तुरंत भेजो. महेन्द्र को हार्ट अटैक हुआ है. कोमा में हैं. मैं एकदम नर्वस हो रही हूं. समझ नहीं पा रही, क्या और कैसे करूं?”
सुनकर विभा भी हड़बड़ाई पर उसे कहीं सुकून सा भी महसूस हुआ. बहुत इठला रही थी इतने बड़े और प्रतिष्ठित व्यक्ति की बीवी बन कर! अब रोओ अपने करमों को!
रोहित कहीं टूर पर निकलने की योजना बना रहे थे. सुनकर तुरंत गंभीर हो गए, “हमें चलना चाहिए.”
“तुम अकेले ही जाओ. वहां तुम्हारी ज़रूरत होगी. ऐसे कठिन समय पर ही अपना व्यक्ति याद आता है.” विभा ने कहा, “वैसे भी यहां क्वार्टर को बहुत दिन अकेला छोड़ना सुरक्षित नहीं है.” कहीं कोई ऐंठ सी थी विभा के मन में जिस कारण का आना टाल गई.
रोहित का वहां से तीन दिन बाद फोन आया, “महेन्द्रजी की हालत अभी तक वैसी ही है. कोमा में हैं. होश नहीं आया है, इसलिए अभी और रुकना पड़ेगा.”
विभा यूं तो अकेली रहने की आदी थी. अक्सर रोहित टूर पर रहते थे. पर पता नहीं क्यों, इस बार उसे अकेलापन बेहद अखरा. भीतर हमेशा एक बेचैनी सी अनुभव होती रहती उसे.
अख़बार अक्सर वह कम ही देखती थी, पर इधर वह एक-एक ख़बर गौर से पढ़ कर अपना खाली वक़्त गुज़ारती. अपने शहर और अपनी कॉलोनी की इस झील पर एक लंबी-चौड़ी ख़बर पढ़कर वह चकित हो गई. ख़बर का शीर्षक था- ‘शहर की मरती हुई झील!’ गौर से पढ़ा उसने और चौंकी. बालकनी में आकर खड़ी हुई. वाकई उसने इस बात पर यहां आने के बाद ध्यान ही नहीं दिया. वह जब यहां आई थी, तो इसमें कुमुद खिलते थे. बाद में इसमें कुछ लोग सिंघाड़े की बेल फैलाकर सिंघाड़े उगाने लगे थे. रोज़ शहर का कचरा दूसरे किनारे पर ट्रेक्टर की ट्रालियों में भर-भर कर लाया जाता और उसम उड़ेला जाता. वह कचरा सड़ता तो उधर से आने वाली हवा में एक अजीब दुर्गंध हुआ करती. फिर न जाने क्यों, उस झील में खर-पतवार और जलकुंभी भर गई. पानी दिखना बंद हो गया. बाद में बिल्डरों की नज़रें उस झील पर पड़ गई और वहां एक नई कॉलोनी बनाने की योजना बनने लगी.
सुन्दर झील विभा की पहली बार बेहद उजड़ी हुई, बर्बाद और बेनूर लगी. जैसे अपने दुर्दिनों पर आंसू बहा रही हो एक औरत की तरह, जिसका सब कुछ उजड़ जाता है. रात को ग्यारह बजे रोहित का फोन जाया, “बुरी ख़बर है विभा महेन्द्र की मृत्यु हो गई.”
गहरा धक्का लगा विभा को. वह तृषा से नफ़रत तो करती थी, पर उसका इतना बुरा नहीं चाहती थी. अब क्या होगा? सोचती हुई सिसकती रही देर तक,
दूसरे दिन रात को फिर फोन आया, “तैयार रहना, यहां आना पडे़गा तुम्हें. तृषा एकदम अकली पड़ गई है. उसका घर महेन्द्र के परिवारवालों, पूर्व पत्नी व उनके बच्चों से भर गया है. सब उसे तरह-तरह से ताने दे रहे हैं. सब कुछ संभालता कठिन हो रहा है. तृषा को तुम आकर संभालो कुछ दिन. मैं क़ानूनी पहलू देखने में उलझा हूं.
विभा मम्मी-पापा के साथ ही पहुंच गई तृषा के घर. वह बुरी तरह टूट गई थी. एकदम गुमसुम हो गई थी. उसे न अपना होश था, न बच्चे का. ऊपर में महेन्द्र की कंपनी और उनके बैंक की जमा-पूंजी पर कब्ज़ा करने की उनकी पूर्व पत्नी व उसके परिवारवालों की कोशिशें .
घर जैसे कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया हो.
हर वक़्त षड्यंत्र और संघर्ष की स्थिति. रोहित के साथ विभा के पिता भी भागदौड़ करने लगे. तृषा की ज़िंदगी का सवाल था. महेन्द्र उसके नाम कुछ भी नहीं कर गए थे. न कोई पावर ऑफ अटॉर्नी उसे दे पाए थे. बस, तृषा चार डायरेक्टरों में से एक थी, इसलिए अकेले कोई निर्णय लेने की स्थिति में भी नहीं थी. बैंक के कुछ खाते तृषा ज़रूर अपने दस्तख़तों से चलाती थी, पर उनमें भी कोई ख़ास पूंजी नहीं थी. जिन खातों में अधिक धन था, उन्हें स्वयं महेंद्र चलाते थे. उनमें तृषा को नामित भी नहीं कर रखा था. नामित थी उनकी पूर्व पत्नी और इस बात पर शायद महेन्द्र ने जीते जी कभी ध्यान नहीं दिया था.
रोहित ने विभा से कहा, “तृषा को यहां से ले चलना पड़ेगा. यहां उसका कुछ ख़ास रह नहीं गया है. पत्नी और उसके घरवाले महेन्द्र की कंपनी और उसके बैंक के खातों पर क़ानूनी हक़ जमा लेंगे और तृषा देखती रह जाएगी. न उसे कुछ मिलेगा, न उसके बच्चे को.”
तृषा का दुख विभा को भी उस वक़्त बेहद दग्ध कर रहा था, पर वह कर ही क्या सकती थी. क़ानूनी दांवपेचों से यह वाक़िफ नहीं थी.
दो डायरेक्टरों ने तृषा का साथ दिया और एक अलग कंपनी खोलने का प्रस्ताव रखा. तृषा ने सिर्फ़ सिर हिला कर अपनी स्वीकृति दी. रोहित उसमें कुछ धन लगाने को राज़ी हो गए. उत्पादों की मार्केटिंग की ज़िम्मेदारी रोहित ने अपने हाथ में ले ली. विभा वापस लौट आई.
विभा लौट ज़रूर आई, पर जिस तरह रोहित तृषा की सहायता कर रहे थे. उसका और उसके बच्चे का जिस तरह ख़्याल रख रहे थे, जिस तरह उनके लिए चिंतित थे, उससे विभा का माथा ठनक गया था. कहीं वह स्वयं ही इस झील की तरह न उजड़ जाए. कहीं उसके सर्वस्व पर तृषा ही कब्ज़ा न कर ले.
कहीं रोहित ने तृषा के व्यवसाय में इसलिए तो धन नहीं लगाया कि तृषा को हासिल कर सके. तृषा विभा के मन में फांस की तरह गड़ने लगी. रोहित उसके पास आते-जाते रहेंगे. काम का बहाना रहेगा. पैसा उसकी कंपनी में लगा दिया है, इसलिए वह इनकार भी नहीं कर सकती. अगर कहीं तृषा ने ही रोहित को पाने की कोशिश की तो? सहानुभूति कहीं प्रेमानुभूति में बदल गई तो? महेंद्र को हार्ट अटैक हुआ तो तृषा ने किसी और को मदद के लिए नहीं बुलाया, रोहित को ही क्यों बुलाया? क्योंकि वह रोहित पर भरोसा कर सकती थी, क्योंकि रोहित उसे अपने लगे थे! अपने लिए सच्ची सहानुभूति रखने वाले, अपने सुख-दुख में सच्चा साथ देनेवाले सहयोगी… साथी..! कहीं यह सहयोग, साथ स्थाई न हो जाए… और वह इस झील की बेनूर और कचरे की खत्ती बन कर न यह जाए, जिसमे जलकुंभी और खर-पतवार भर जाएं.
जितना सोचती, उतनी ही परेशान होती जाती विभा. विभा को लगा, वह फिर कहीं पराजित हो रही है तृषा से. फिर पहले की तरह हार रही है और तृषा हार कर भी फिर उससे जीतने जा रही है. क्या करे विभा?
बेचैन, हड़बड़ाई परेशान विक्षिप्त सी विभा बार-बार कमरे में आती और कमरे से बाहर निकल बालकनी में आ खड़ी होती… लेकिन सामने की उजड़ी, मरती झील देखकर सहम जाती और घबराकर फिर भीतर कमरे में लौट जाती… वह करे तो क्या करे? कुछ समझ ही न पाती!