विजय गर्ग
अब शायद शुद्ध भोजन की गारंटी भी नहीं रह गई है। जब बाजार में बिकने वाली खाद्य सामग्री मिलावटी हो सकती है तो फिर घर में पहुंचाए जाने वाले बने-बनाए भोजन की शुद्धता की गारंटी का भरोसा भला कैसे किया जा सकता है ! आजकल, सोशल मीडिया पर इस संबंध में सचेत करने वीडियो और दावे प्रसारित होते रहते हैं। मगर कमोबेश पूरे देश में लुभावनी वस्तुओं के प्रति क्या बच्चे, क्या बड़े, क्या बूढ़े सभी आकर्षि हो जाते हैं। ऐसी चीजें उत्सवों, सैर-सपाटे की जगहों, मेलों आदि में खूब लोकप्रिय होती हैं। लगता है कि घर से लेकर आम दावतों, पार्टियों, चौपाटियों या चाट-पकौड़े, आईसक्रीम या ठंडाई के नाम पर बिना किसी स्वीकृति के कुछ भी उपयोग की इजाजत हमारे देश में मिली हुई है। हद तो तब होती है जब कहीं भी कोई अपनी मर्जी से स्वाद या आकर्षण बढ़ाने के लिए किसी प्रतिबंधित और घातक सामग्री, मसालों, रसायनों आदि का गलत अनुपात में खाने-पीने की चीजों में उपयोग करता दिखता है ।
यों तो खाद्य अपमिश्रण रोकने के लिए देश और हर प्रदेश में कड़े कानून हैं। इसके लिए अच्छा-खासा अमला भी तैनात है, जिसकी जिम्मेदारी मिलावटी और प्रतिबंधित खाद्य सामग्री की नियमित जांच करने की है। मगर कहां, कितनी और कब-कब जांच हुई, शायद ही किसी को याद हो ? इन अधिकारियों-कर्मचारियों की सरकारी फाइलें इतनी चुस्त-दुरुस्त होती हैं कि अगर कोई पढ़ ले तो उसे लगे कि इससे सटीक व्यवस्था हो ही नहीं सकती। इस भ्रम में पड़ जाए कि ऐसे नियमों के चलते गलत खाद्य सामग्री बाजार में आ ही नहीं सकती। मगर होता ठीक इसके उलट है ।
अब तो घरों में मसाला तैयार करना लगभग बंद-सा हो गया है। सभी की निर्भरता बाजार पर हो गई है। पूरे देश में, चाहे गांव, कस्बा, महानगर हो, हर कहीं बाजार में तैयार भोजन या डिब्बाबंद मसालों का चलन बहुत तेजी से बढ़ा है। वहीं छोटे-बड़े शहरों, कस्बों और गांवों तक में रेस्तरां, होटल और ढाबों में शौकिया खाने जाना भी एक तरह से शान की बात हो गई है। बाहर खाने के चलन ने ‘आनलाइन फूड’ को एक बड़े कारोबार का रूप दे दिया है। मगर यह सवाल अपनी जगह है कि आखिर बाजार में बिकने वाला तैयार खाना या खाद्य सामग्री, स्वास्थ्य के लिहाज कितनी सुरक्षित है? क्या इनको तैयार करने वालों और बेचने वालों तक पहुंचने से पहले गुणवत्ता की पूरी जांच हो पाती है ? इसका जवाब ज्यादातर नहीं है। ऐसे में गुणवत्ता से समझौते या स्तरहीनता को परखने का तंत्र और प्रणाली किस काम की ? यह क्यों जरूरी नहीं कि बाजार में आने वाली हर खाद्य सामग्री जांच से गुजरे। इसी का फायदा निर्माता से लेकर खुदरा बिक्रेता और घर-घर पहुंचाने वालों की पूरी श्रृंखला उठाती है।
निश्चित रूप से खाद्य अपमिश्रण को लेकर भारत में जब-तब मामले और सवाल भी उठते हैं। चाहे सड़क के किनारे, बजबजाती नालियों पर लगे ठेले या रेहड़ी वाले हों या दूर-दराज स्थित ढाबे या फिर बीच शहर के होटल या ‘स्ट्रीट फूड’ की जगहें। शायद ही कभी वहां नियमित जांच होती हो, जबकि इनकी निगरानी की जिम्मेदारी जिला प्रशासन या स्थानीय प्रशासन की होती है। मिलावट के खेल में मिलावट रोकने वालों की, बेचने वालों से मिलीभगत के चलते ही नियमित रूप से मिलावट की जांच नहीं हो पाती है। दरअसल, इसके लिए अब एक आनलाइन सार्वजनिक डेटाबेस होना चाहिए। चाहे घर से चलने वाली ‘टिफिन कैटरिंग’ हो या बाजार में बनाकर बेचने या पैक करने का धंधा हो, सब जगह खाने की गुणवत्ता को लेकर सख्ती होनी चाहिए। इतना ही नहीं, परोस कर बेचे जाने वाले हर उस जगह की रसोई कैमरों की निगरानी में हो, जहां बाहर चमकती कुर्सी टेबल पर बैठकर खाने वालों को भी दिखे कि खाना कैसे बनाया और परोसा जा रहा है। आनलाइन आपूर्ति करने वाले की रसोई भी निगरानी तंत्र पर रहें। ऐसा होने पर ही मिलावट के धंधे रुक पाएंगे और डिब्बाबंद अमानक खाद्य सामग्री या प्रतिबंधित अखाद्य पदार्थों पर लापरवाही रुकेगी।
जब तक इसे लेकर नियम कठोर और सख्त नहीं होंगे तथा कानून का भय नहीं होगा, तब तक मिलावट या खाने की सामग्री में कुछ भी मिला देने पर रोक लग नहीं सकती। परचून की दुकानों, माल या बाजारों में उस क्षेत्र के स्थानीय नियंत्रणकर्ता एजंसी की जानकारी तथा संपर्क सूची अनिवार्यतः लगे, जहां गुणवत्ता में कमी या किसी दोष की शिकायत की जा सके। खाने में अखाद्य तत्त्व मिलने या खाकर बीमार पड़ने की शिकायतें तो सामने आती हैं, मगर कभी कोई नजीर बनने वाली कार्रवाई नहीं होती। ऐसे गंभीर मामले या तो पुलिस के पास पहुंचते हैं या फिर हीला-हवाली में अनदेखे या ढीले पड़ जाते हैं। अभी कुछ मसालों में कैंसर पैदा करने वाले तत्त्वों को लेकर सुर्खियां बनीं। जिस तेजी से रेडीमेड मसालों, दूसरी खाद्य सामग्री और पैक खाने का रिवाज बढ़ रहा है, उससे इस कारोबार पर भी दवाओं के निर्माण जैसी बहुत ही कड़ी निगरानी की जरूरत है। इसके लिए कड़े कानून की जरूरत है, जो देशव्यापी हों और सबको पता हों।
जनस्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ और मिलावटी कारोबार रोकना प्राथमिकता में शुमार हो। इसके लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, जो बिना किसी दलगत राजनीति के प्रभाव में आए, लोकहित में हो, तभी इस पर अंकुश लग पाएगा। नहीं तो, सख्ती के अभाव में लोग यों ही मिलावट का शिकार होते रहेंगे ।