दूसरों से भिन्नता प्रकट करने के लिए सबसे प्रथम और सुगम उपाय नाम

अशोक “प्रवृद्ध”

किसी भी समाज का बाहरी स्वरुप होना नितान्त आवश्यक है, और प्रत्येक समाज का यह स्वयं करणीय कर्म अर्थात कार्य है कि वह अपने लक्षण (स्वरूप) का निर्धारण स्वयं करे, जो देखने वालों को दिखाई दे। उदहारण के रूप में आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दुओं में अत्यंत प्राचीन काल में सिर पर चोटी अर्थात शिखा धारण करना, तिलक लगाना, धोती पहनना और नाम विशेष द्वारा प्रकट किया जाता था, किन्तु ज्यों-ज्यों पाश्चात्य प्रभाव बढ़ता जा रहा है, त्यों-त्यों बाहरी लक्षण विलुप्त होते जा रहे हैं। चोटी तो अब लगभग विलुप्त ही हो चुकी है। यज्ञोपवीत भी बहुत ही कम लोग धारण कर रहे हैं। तिलाकादि भी बहुत कम लोग लगाया करते हैं। पहनावे में धोती का स्थान पैंट ने ले लिया है। कोट भी खूब पहना जाता है और टाई के बिना तो अब काम ही नहीं चलता। यद्यपि इसमें किसी प्रकार का कोई दोष नहीं है, तदपि जातीय अर्थात राष्ट्रीय स्वरूप की आवश्यकता तो है ही। एक समय ऐसा भी था, जब यदि किसी की चोटी को छल अथवा बल से काट दिया जाता था, तो यह माना जाता था कि उसकी वह जातीयता समाप्त हो गई है। कहीं-कहीं नाम बदल जाने से जातीयता बदल जाना मान लिया जाता था। यदि किसी ने रामचन्द्र के स्थान पर अपना नाम रहमान अथवा रहीमुद्दीन रख लेता था तो यह समझ लिया जाता था कि वह हिन्दू से मुसलमान बन गया है। इसी प्रकार कोई करीम से अपना नाम कृष्टो रख लेता था तो समझा जाता था कि वह मुसलमान से ईसाई हो गया है। जो कोई पुनः अपने पूर्व समुदाय में वापस आना चाहता था तो उसको पूर्व के सब लक्षण स्वीकार करने पड़ते थे, परन्तु अब शनैः-शनैः नाम के अतिरिक्त अन्य बाहरी सभी लक्षण विलुप्त होते जा रहे हैं। उनको अब अनावश्यक समझा जाने लगा है। स्थिति तो यहाँ तक बिगड़ चुकी है कि बहुसंख्यकों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए विधर्मी तत्व अपना नाम छुपाकर अन्य नाम रख छद्म रूप में व्यवसाय करने लगे हैं। गत दिनों उत्तरप्रदेश व उत्तराखंड सरकार तथा और मध्य प्रदेश के उज्जैन नगर निगम के कांवड़ यात्रा के रास्ते की दुकानों, रेहड़ी-पटरी के ठेलों पर मालिकों के नाम, मोबाइल नंबर लिखने के आदेश पर देश में हड़कंप मच गया। जिस पर सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अंतरिम रोक लगाए जाने के बाद ही विवाद थम सका। लेकिन इस बीच भांति- भांति के तर्क सामने आते रहे। अब एक बार पुनः उत्तरप्रदेश सरकार ने राज्य के होटल, रेस्टोरेंट आदि व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में मालिक व कर्मचारियों के नाम अपने प्रतिष्ठानों में दर्ज करवाने के निर्देश जारी किया गया है।  देश के विपक्ष और धर्म विशेष के रहनुमाओं ने कहा कि राज्य सरकारों के इन निर्देशों का उद्देश्य धार्मिक भेदभाव को बढ़ावा देना है।

  1. ऐसी परिस्थिति में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि आर्य सनातन वैदिक धर्मावलंबी हिन्दू समाज के घटकों का भी कोई बाहरी लक्षण होना चाहिए कि नहीं? ये लक्षण मान्यताओं से पृथक हैं, और मान्यताओं में ऐसा कुछ भी नहीं जिसका कि सम्बन्ध जातीय स्वरुप से हो। यह एक अति जटिल प्रश्न है कि लगभग दो सौ राजनीतिक मानव समुदायों के लिए इतने बाहरी लक्षण क्यों हैं और क्या वे हो भी सकते हैं? और अगर मान लिया जाय कि हो सकते हैं, तो क्या किसी प्रकार का कोई लाभ किसी जाति को होगा? जब संसार में यातायात के साधन सीमित अथवा नगण्य थे, तब इन लक्षणों का औचित्य संभव प्रतीत होता था, परन्तु अब तो यातायात के साधन इतने विकसित,विस्तृत और सरल हो गये हैं कि इससे अनेक समुदायों के बाह्य लक्षण विलुप्त होते जा रहे हैं। विश्व के अधिकांश देशों में अब कमीज,पतलून अर्थात शर्ट-पैंट, कोट,टाई और जूते साधारण परिधान माना जाने लगा है। अब वस्त्रों द्वारा जातीयता का स्वरुप विलुप्त हो गया है। कुछ इस्लामी देशों को छोड़कर समस्त संसार में एकसमान वस्त्र धारण किये जाने लगे हैं। इससे यह स्पष्ट है कि अब जातीय पहरावा लक्षण नहीं रहा। शिखा अर्थात चोटी, जनेऊ और तिलक भी विलुप्त हो गये हैं। भाषा का ज्ञान अब देशगत जातियों का रह गया है, परन्तु सांस्कृतिक समाजों में यह भी विलुप्त होता जा रहा है।  ऐसे में प्रश्न खड़ा होता है कि देश का बहुसंख्यक समाज इस सब में कहाँ खड़ा है? क्या देश के बहुसंख्यक समाज के लिए बाहरी लक्षणों की आवश्यकता है? क्यों कोई हिन्दू विशेष प्रकार के वस्त्र पहने अथवा कोई अन्य बाहरी लक्षण रखे और यदि रखे तो क्या रखे? ध्यातव्य है कि हिन्दू समाज केवल एक स्थानीय समुदाय नहीं वरन एक वैश्विक समाज है। यह तो ठीक है कि हिन्दू समुदाय का भारत देश से विशेष सम्बन्ध है और हिन्दू समुदाय के स्वभाव में भारतवर्ष के प्रति विशेष ममत्व भी है, परन्तु यह विषय तो यहाँ सरकार का है, इसी विषय पर तो असम में विवाद चल रहे हैं और गृहयुद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। यह असम के निवासियों की पहचान का विवाद है, यह असम के निवासियों की पहचान की लड़ाई है। यह विवाद हिन्दू अथवा अहिन्दू का नहीं है। यह लड़ाई असम की अस्मिता और पहचान की लड़ाई है। भारतीय अर्थात हिन्दू समाज के लक्षण और मान्यताओं से पृथक हिन्दू समाज की पहचान के लिए किसी बाहरी लक्षण की नितान्त आवश्यकता है और कोई ऐसा बाहरी लक्षण होना ही चाहिए, जिसका मान्यताओं के साथ अटूट सम्बन्ध हो। वह सम्बन्ध भाषा का है, जो उन मान्यताओं को स्वीकार करते हैं, और जहाँ तक विदित हो पाया है, उनका सम्बन्ध संस्कृत भाषा से है। इन मान्यताओं को स्वीकार करने वालों का विचार करने का माध्यम सदा संस्कृत भाषा ही रही है, और आज भी संसार की साँझी भाषा अंग्रेजी होते हुए भी भारतीय अर्थात हिन्दू समाज का सम्पूर्ण साहित्य संस्कृत भाषा में ही है। विद्वानों का मत है कि हिन्दू समाज की मान्यताओं की व्याख्या जिस विशेषता से संस्कृत भाषा में व्यक्त की जाती है, वह किसी अन्य भाषा में व्यक्त नहीं की जा सकती। इस प्रकार यह निर्विवाद सत्य है कि इन मान्यताओं के मानने वालों का ऐतिहासिक सम्बन्ध संस्कृत भाषा के साहित्य से ही है। इसलिए भारतीय अर्थात हिन्दू समाज का श्रेष्ठ बाहरी लक्षण इस भाषा के अतिरिक्त अन्य किसी भाषा में नहीं हो सकता, और प्रसन्नता की बात है कि इसका एक चिह्न तो अभी भी भारतीय समाज में विद्यमान है। भारतीय समाज में विद्यमान वह लक्षण है हिन्दू समाज के घटकों के नाम।

\अधिकांश घटकों के नाम संस्कृत भाषा और साहित्य से लेकर ही रखे जाते हैं। जैसे- हरिशंकर, श्रुति, अनिधा, रजत, आनीत्त अवात्तम, सोमनाथ इत्यादि। समाज के घटकों में समीपता प्रकट करने और दूसरों से भिन्नता प्रकट करने के लिए सबसे प्रथम और सुगम उपाय नाम के जानने से ही है। इसके जानने की आवश्यकता और लाभ यह है कि मान्यताओं को मानने वालों को जानने का यह एक मोटा और सुगम उपाय है। यह मिथ्या भी हो सकता है, परन्तु सामान्य जीवन में इसका लाभ है। समाज के घटकों में सम्पर्क, सह्करिता तथा वार्तालाप, व्यापारिक सम्पर्क अंग हैं, जो अंग्रेजी में सोशल बिहेवियर कहलाता है। इस व्यवहार के कारण ही मानव सामाजिक प्राणी माना जाता है। इस व्यवहार में मान्यताओं का घनिष्ठ सम्बन्ध है। समाज के घटकों के नाम इन मान्यताओं का प्रथम संकेत हैं। उदाहरणतः, दो व्यक्ति रेल में यात्रा करते हुए जा रहे हैं और वे परस्पर बातें करने लगते हैं। उनमें से एक का नाम हो रामगुलाम और दूसरे का गुलाम मुहम्मद तो परस्पर के वार्तालाप में बहुत से प्रतिबन्ध स्वतः ही प्रकट हो जायेंगे। रामगुलाम के लिए यह आवश्यक हो जायेगा कि वह सावधान रहे कि कहीं गुलाम मुहम्मद को यह न कह बैठे कि हजरत मोहम्मद औरतों को घर की मेज-कुर्सी के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं समझते थे। वह हजरत मुहम्मद के गैर-मुसलमानों के साथ किये गये व्यवहार की बात भी नहीं करेगा। नाम जान लेने से ये तथा इस प्रकार के अन्य अनेक प्रतिबन्ध स्वतः समुपस्थित हो जाया करते हैं। और यदि कहीं वह सहयात्री रामचन्द्र अथवा कृष्णमूर्ति हो तो बिना यह जाने कि उनमें से एक स्वामी शंकराचार्य का मतानुयायी अथवा कि नहीं वह निःशंक हो द्वैतवाद अथवा त्रैतवाद की निन्दा-स्तुति करने लगेगा। इस अवसर पर तो यह भी कहने का साहस किया जा सकता है कि देवदासियों की प्रथा एक प्रकार से वेश्याओं का बाजार है अथवा धर्म और पवित्रता का श्रेष्ठ संगम? नाम का ज्ञान होने से यह सामान्य सी सुविधा हो जाती है। वैसे समाज में घनिष्ठ संबंधों के बनने अथवा न बनने में यह पूर्व ही होता है। इसलिए समाज के घटकों के नाम इस विशेष भाषा में होने के कारण जीवन सुलभ, सरस और सरल होने में सहायक बन जाता है। इससे समाज के बाह्य लक्षणों के नियत करने से जीवन में सुगमता और सरलता होगी। भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय, पंथों के मिशनों की बात छोड़ भी दिया जाए तो भी हिन्दू समाज का बाहरी रूप, संस्कृत भाषा में नाम एक अत्यन्त उपकारी और सुगम एवं निरापद उपाय है। संस्कृत भाषा को ही इस महती कार्य हेतु उपयुक्त समझे जाने का कारण सभी हिन्दू-शास्त्र तथा अन्यान्य विद्याओं के ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध होना, संस्कृत भाषा संसार की अन्य भाषाओं से अति मधुर, सरल और ठीक-ठीक अर्थ प्रकट करने वाली भाषा होना, संस्कृत भाषा की वर्तमान लिपि संसार की सब भाषाओं की लिपियों से अधिक वैज्ञानिक और पूर्ण होने और भाषाओं व लिपियों का सर्वाधिक आवश्यक गुण संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि में विद्यमान होने के गुण आदि है। इसलिए भारतीय मान्यताओं के साक्षी रूप नाम सरल और सार्थक भाषा में होनी चाहिए, और यह भाषा संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि ही हो सकती है।

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