बीएस राय: झारखंड चुनाव 2024: 24 साल पहले अस्तित्व में आया झारखंड इस बार अभूतपूर्व राजनीतिक मोड़ पर खड़ा है। राज्य की राजनीति में न तो पारंपरिक मुद्दों की गूंज है और न ही पुराने समीकरणों की पकड़। ऐसे समय में चुनावी मैदान में उतरे नेता पुरानी समस्याओं को उठाने में असमर्थ नजर आ रहे हैं। झारखंड की राजनीतिक तस्वीर में आए इस बदलाव के पीछे पांच बड़ी वजहें बताई जा रही हैं, जिसने इस चुनाव को पूरी तरह बदल दिया है।
60 बनाम 40 कl एजेंडा
“60 बनाम 40” का मुद्दा लंबे समय से झारखंड की राजनीति के केंद्र में रहा है। 60% स्थानीय और 40% बाहरी आबादी के समीकरण ने चुनावी एजेंडे को आकार दिया था। 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीयता का मुद्दा भी अक्सर राजनीति का ध्रुव रहा है। 2019 में हेमंत सोरेन की वापसी ने इस मुद्दे को मजबूत किया था, लेकिन इस बार यह चर्चा के केंद्र से गायब है। भाजपा इस पर जोर नहीं दे पा रही है, जबकि झामुमो इस मुद्दे को लागू न कर पाने के कारण बचाव की मुद्रा में है।
जातिगत समीकरणों का कमजोर होना
आदिवासी, कुर्मी और यादव जातियां झारखंड की राजनीति में प्रमुख भूमिका निभाती रही हैं। लेकिन इस बार जातिगत गोलबंदी की धार कुंद हो गई है। जातिगत संघर्षों की जगह आदिवासी पहचान और बाहरी लोगों की घुसपैठ के सवाल प्राथमिक हो गए हैं। कुर्मी समुदाय के नेता जयराम महतो ने चुनाव से पहले कुछ हलचल मचाई थी, लेकिन अब यह मुद्दा ठंडा पड़ गया है। यादवों के दम पर गोलबंदी करने वाली आरजेडी अब सिर्फ जेएमएम पर निर्भर नजर आ रही है।
महिला वोट बैंक का उदय
इस बार झारखंड की राजनीति में महिलाओं का एक स्वतंत्र और प्रभावी वोट बैंक उभरा है। भारत गठबंधन “मैया सम्मान योजना” के जरिए महिलाओं को लुभाने की कोशिश कर रहा है। वहीं एनडीए ने “गोगो दीदी” और एक रुपये में जमीन की रजिस्ट्री जैसी योजनाओं से महिलाओं को आकर्षित करने की रणनीति बनाई है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक इस बार 128 महिला उम्मीदवार मैदान में हैं, जो 2019 (127) और 2014 (111) से ज्यादा है।
तीसरे मोर्चे की कमज़ोर मौजूदगी
झारखंड की राजनीति में तीसरे मोर्चे की अहम भूमिका रही है। 2005 में बाबूलाल मरांडी और दूसरे दलों ने तीसरी ताकत के तौर पर अपनी मजबूत मौजूदगी दर्ज कराई थी। हालांकि, इस बार तस्वीर अलग है। बाबूलाल मरांडी अब भाजपा के साथ हैं और चुनाव एनडीए और अखिल भारतीय गठबंधन के बीच ही सीमित है। तीसरे मोर्चे का प्रभाव नाममात्र का रह गया है।
बिहार की पार्टियों का प्रभाव कम हुआ
झारखंड की राजनीति में बिहार की पार्टियों का प्रभाव पहले काफी बड़ा था। 2005 में जेडीयू और आरजेडी ने झारखंड में बड़ी संख्या में उम्मीदवार उतारे थे। 2024 में आरजेडी और जेडीयू एक समझौते के तहत कुछ ही सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। आरजेडी 5 सीटों पर सिमट गई है, जबकि जेडीयू सिर्फ़ 2 सीटों पर है। सीपीआई (एमएल) भी सिर्फ़ 4 सीटों पर उम्मीदवार उतार पाई है।
पारम्परिक मुद्दों से हटकर हो रहा है चुनाव
झारखंड में इस बार के चुनाव ने पारंपरिक मुद्दों से हटकर नए आयामों की ओर ध्यान केंद्रित किया है। स्थानीयता, जातिगत समीकरण और बाहरी हस्तक्षेप जैसे मुद्दों की जगह महिला सशक्तिकरण, आदिवासी पहचान और घुसपैठ जैसे विषयों ने ले ली है। यह देखना दिलचस्प होगा कि इन बदलते समीकरणों और नए कारकों के बीच कौन सी पार्टी राज्य की जनता का विश्वास जीत पाती है और झारखंड की राजनीति को किस दिशा में ले जाती है।