पिछले दिनों बेसिक शिक्षा राज्य मंत्री अनुपमा जायसवाल का लिखा एक पत्र मीडिया में धूम मचा गया। पत्र राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी को लिखा गया और उसमें मंत्री के हालिया देवरिया दौरे में उनके कराए गए विकास कार्यों का उल्लेख था। अब हंगामा होना था, हुआ। मंत्री जी को खंडन करना था, किया। विपक्ष को मुद्दा मिलना था, मिला। सरकार को बैकफुट पर जाना था, गई।
कुछ मंत्री विवादों के दुलारे हैं। पिछले वर्ष सरकार ने डेढ़ करोड़ बच्चों को स्वेटर बांटने का निर्णय किया। यह काम बड़ा था, पहली बार हो रहा था तो सराहना हुई लेकिन, बस कुछ ही दिन। सर्दियां आधी बीतने के बाद स्वेटर बंटना शुरू हुए। इन्हीं बच्चों को जूते मोजे दिये जाने थे लेकिन, उसमें टेंडर और गुणवत्ता के इतने एंगिल निकल आए कि बात हाईकोर्ट तक जा पहुंची और जहां सरकार को बताना पड़ा कि कितने जूते खराब निकले। बेसिक शिक्षा विभाग के ऐसे ही मामलों की शिकायत पूर्वांचल के एक सांसद ने भी की थी लेकिन, फिर अचानक जाने क्यों वह खामोश हो गए।
इसी तरह सहकारिता विभाग है जहां अब भी समाजवादी पार्टी सरकार के समय के कुछ अधिकारी जमे हैं। सहकारिता एमडी की जांच हुई, उन पर दोष सिद्ध हुए लेकिन, उन्हें कृषि उत्पादन आयुक्त की कड़ाई और मुख्यमंत्री के दखल के बाद ही निलंबित किया जा सका।
उत्तर प्रदेश कोआपरेटिव बैंक में भर्तियों में हुई धांधलियों और राज्य भंडारागार निगम के कर्ताधर्ताओं के खिलाफ शिकायतों की फाइल सहकारिता विभाग में ही कहीं ऊपर फंस गई है। सरकारी वकीलों की नियुक्ति को लेकर खींचतान मची और रह रहकर उसकी चिंगारियां अब भी भड़कती हैं। इन्वेस्टर्स समिट में हुई फूलों की सजावट का मसला उद्यान विभाग की सरहदों से निकलकर थाने तक जा पहुंचा है। एक मंत्री ओमप्रकाश राजभर हैं जो अपने विभागीय कामों से अधिक अपने बयानों के कारण सुर्खियां बटोरते हैं और यह संदेश देने में भरपूर सफल हैं कि उन पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं।
लखनऊ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, योगी सरकार और भाजपा संगठन के बीच समन्वय बैठक में कार्यकर्ताओं ने यदि कुछ मंत्रियों और अधिकारियों पर नाराजगी जतायी तो यह अकारण नहीं था। थाना पुलिस की शिकायत और विधायकों-मंत्रियों पर आरोप लगाने में बहुत अंतर होता है। बेशक, ऐसे अधिकारी भी हैं जिनकी सुस्ती आम लोगों पर अब बहुत भारी पड़ रही है। एक उदाहरण बिल्डर अंसल का ही है। कोई बिल्डर किसी का मेहनत से कमाया पैसा हड़प कर जाए तो सरकार यह कहकर नहीं बच सकती कि बिल्डर जाने या उसके ग्राहक। जो अमरूदों की तरह थोक में फ्लैट खरीदते हैं, उन्हें एकाध न भी मिला तो भला क्या अंतर पड़ेगा। ठग ने ही तो ठगा ठगों को। हां, जिनके जीवन का सपना एक अदद छोटा सा घर होता है, वे बेचारे तड़पकर रह जाते हैं। सरकार केवल इस बात की ही जांच करा ले कि अंसल के आशियाने किन-किन नेताओं और नौकरशाहों ने खरीदे तो कई नकाब उतरेंगे। लखनऊ में अंसल के खिलाफ आपराधिक मुकदमा लिखा जाना चाहिए था। उस जैसे अन्य बिल्डरों की गहरी पड़ताल होनी चाहिए थी। यह देखा जाना चाहिए था कि एक बिल्डर ने कितने मन तोड़े।
क्या यह संभव है? न! सीता को स्थान देने वाली जमीन अब जनप्रतिनिधि जो उगलने लगी है।