फांसी की सजा पाए दोषियों को फांसी देने में हो रही देरी पर सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की. अदालत ने कहा कि वह राज्य और न्यायपालिका के लिए दिशा निर्देश जारी करेगा.
दुष्कर्म और हत्या के मामले में फांसी की पा चुके कैदी को फांसी में देरी हो रही थी, जिसके बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने उसकी फांसी को 35 साल की जेल में बदल दिया था. महाराष्ट्र सरकार हाईकोर्ट के इसी फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. न्यायमूर्ति अभय ओका, न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने मामले की सुनावई के दौरान यह टिप्पणी की.
जानें सुनवाई में क्या हुआ
जस्टिस ओका ने सुनवाई के दौरान कहा कि क्या हम ऐसी कोई प्रक्रिया नहीं बना सकते, जिसके तहत सुप्रीम कोर्ट से मौत की सजा सुनाए जाने के बाद राज्य सरकार फांसी का वारंट जारी करने के लिए सत्र न्यायालय से संपर्क करे. इसके बाद दोषी को नोटिस देकर कानूनी प्रतिनिधित्व के अधिकारों के बारे में बताया जाए. इस बात की पुष्टि की जानी आवश्यक है कि क्या कोई दया याचिका लंबित है या फिर नहीं. राज्य की जिम्मेदारी है कि वह अदालत के आदेशों को लागू करना सुनिश्चित करे.
यह है पूरा मामला
2007 में पुणे के एक बीपीओ में काम करने वाली 22 साल की युवती को गैंगरेप के बाद मौत के घाट उतार दिया गया था. मामले में अदालत ने दो आरोपियों को मौत की सजा सुनाई. साल 2015 सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा को बरकरार रखा. बावजूद इसके वर्षों तक उन्हें फंदे पर नहीं चढ़ाया गया. इसके बाद दोषियों ने बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हाईकोर्ट ने फांसी को 35 साल के कारावास में बदल दिया. शीर्ष अदालत ने टिप्पणी कि वर्षों बाद क्या हम दोबारा इसे मौत की सजा में बदल सकते हैं. क्या नौ साल की देरी अधिक नहीं है.
दया याचिका में होती है देरी
सुप्रीम कोर्ट से फांसी की सजा मिलने के बाद आरोपी राज्यपाल या फिर राष्ट्रपति के पास 30 दिनों के अंदर दया याचिका दायर कर सकता है. आम तौर पर फांसी की सजा पाया कैदी दया याचिका दायर करता ही है. अधिकांश वक्त दया याचिका में निर्णय लेने में संबंधित अधिकारी के यहां देरी हो जाती है.