बंगाली समाज द्वारा इंदौर में आयोजित दुर्गा पूजा महोत्सव के समापन अवसर पर सिंदूर खेला का आयोजन किया गया। इसमें महिलाओं ने सौभाग्य के मंगल चिह्नों को धारण करने के साथ एक-दूसरे को सिंदूर लगाया।
शष्ठी से नवमी तक जिसकी आराधना भगवान और आवभगत बेटी के समान की गई, उसे दशमी को बिदा किया गया। मायके से ससुराल जाते वक्त एक मां जैसे अपनी बेटी को बिदा करती है, ठीक उन्हीं रस्मो-रिवाजों का यहां पालन किया गया।
लाल बॉर्डर वाली सफेद साड़ी, जिस पर सुनहरे तार से किया गया वर्क, नख से शिख तक श्रृंगार और चेहरे पर उत्साह की लालिमा लिए सैकड़ों महिलाएं यहां पहुंची। इसमें केवल बंग्लाभाषी महिलाएं ही नहीं, बल्कि गैर बंग्लाभाषी महिलाएं भी शामिल थीं। इस उत्सव का हिस्सा बनने की इच्छा केवल इसलिए नहीं होती कि देवी से अपने पति की लंबी उम्र और परिवार की खुशहाली की कामना की जाए, बल्कि देवी के मुख को स्पर्श कर उनके तेज को अपने में अनूभूत करने का मौका भी वर्ष में केवल एक ही बार मिलता है।
थाली में पान, सुपारी, दुर्वा, धान, सिंदूर, मिठाई, सिक्का लिए महिलाओं ने देवी का वरण किया। पान के पत्ते को पहले देवी दुर्गा के चेहरे पर लगाया गया फिर सिंदूर से देवी का ललाट और मांग सजाकर मिठाई खिलाई गई। इसके बाद तमाम महिलाओं ने एक-दूसरे को सिंदूर लगाया। देखते ही देखते पूरा माहोल सिंदूरमयी हो गया। इसके बाद देवी को ससुराल के लिए बिदाई दी गई।