छात्र नेता विपिन राठौर ने योगी सरकार की शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश में शिक्षा का स्तर दिन प्रति दिन गिरता जा रहा। सरकारी स्कूलों की दुर्दशा देखकर मन दुखित हो जाता है। सरकारी स्कूलों की दुदर्शा ने गरीब परिवारों के बच्चों की शिक्षा पाने की ललक को कमजोर कर दिया है।
विपिन राठौर ने कहा कि सरकारों की गलत नीतियों ने समाज में जो अंतर पैदा किया है उसके अनुसार गरीब बच्चों की पहुंच सिर्फ सरकारी स्कूलों तक सीमित होकर रह गई है। क्योंकि प्राइवेट स्कूलों की फीस इतनी ज्यादा है कि उसे आम आदमी नहीं दे सकता है।
आज अगर सरकारी स्कूलों की बदहवाली और दुर्दशा की बात करें तो उत्तर प्रदेश प्रथम स्थान पर आएगा। यहाँ स्कूलों में बच्चे आज भी टाट-पट्टी पर बैठते है, शिक्षकों की भारी कमी है, शिक्षकों के लाखों पद खाली है जिसके कारण पढ़ाई पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। प्रदेश के हजारों स्कूल शिक्षामित्रों के सहारे चल रहें है। प्रदेश के बहुत से स्कूल इसलिए बंद हो गए क्योंकि वहाँ शिक्षक ही नहीं थे।
तिमाही परीक्षा सर पर है लेकिन अभी आधे छात्रों के हाथों में भी किताबें नहीं पहुंची हैं। आप सोचिए बिना किताबों के छात्र पढ़ेगा क्या और जब पढ़ेगा नहीं तो वह परीक्षा कैसे देगा ? साथ ही सरकार ने वादा किया था कि सभी बच्चों को यूनिफॉर्म के लिए धन देंगे वो भी सभी बच्चों तक अभी नहीं पहुंचा है। आखिर ऐसी व्यवस्था लायी ही क्यों जाती है जिसकी तैयारी न हो, जिसे जमीनी हकीकत में न बदला जा सकें।
उन्होंने कहा कि सरकार की मिड डे मील व्यवस्था भी हर दिन विवादों का कारण बन रही है। इस व्यवस्था के तहत छात्रों को पौष्टिक आहार देना है लेकिन कहीं छात्रों को नमक रोटी तो कहीं नमक भात दिया जा रहा, मानक के अनुसार किंचित जगह ही छात्रों को भोजन प्राप्त होता है। कुप्रबंधन का असर यह है कि एक लीटर दूध में चालीस बच्चों को दूध पिला दिया जाता है और बच्चे जब इस कुप्रबंधन का विरोध करते है तो उन्हें धमकाया जाता है, कन्नौज में तो उन्हें पीटकर स्कूल से भगा दिया गया। मिड डे मील के कुप्रबंधन में सरकार का बड़ा योगदान है क्योंकि सरकार इसमें खर्च भी कम करती है और देखरेख भी भी लापरवाही बरती जाती है। मिड डे मील में प्राथमिक स्तर पर सरकार एक छात्र पर 4.46 रुपया खर्च करती है, सोचिए इतनी महंगाई में इतने कम पैसों में किसी का पेट भर सकता है क्या ?
उत्तर प्रदेश के स्कूलों की बदहवाली देखकर मन गुस्से से भर जाता है। अपने बच्चों को विदेश पढ़ाने वाले नेता यह तक नहीं सोचते की देश के गरीब जनता के बच्चों को लिए जरूरी बुनियादी सुविधाओं वाला ही स्कूल का निर्माण करा दिया जाये। आज़ादी के 75 साल बाद भी गरीब बच्चों के स्कूलों में जानवर बाधने, भूसा व उपला रखने का मामला सामने आता रहता है। उनके स्कूलों की बिल्डिंग टूटी-फूटी स्थिति में है, वहाँ बच्चे जान हथेली पर रखकर पढ़ने जाते हैं। स्कूलों में न बैठने की व्यवस्था है न खेलने की व्यवस्था ही है। बहुत से स्कूलों में न बिजली है न शुद्ध पीने का पानी ही है। बाकी सुविधाओं के बारे में सोचना भी पाप जैसा लगता है।
सरकारी स्कूलों की बदहवाली व दुदर्शा का सबसे बड़ा कारण है कि वहाँ न नेताओं के बच्चे पढ़ने जाते है न ही अधिकारियों के बच्चे पढ़ने जाते है। इसलिए यह दोनों जिम्मेदार वर्ग इसके सुधार की तरफ ध्यान भी नहीं देते है। ऊपर से प्राइवेट स्कूल इन्हीं दो वर्गों के लोगों का है इसलिए वह चाहते भी नहीं की सरकारी स्कूल बेहतर बने क्योंकि सरकारी स्कूल बेहतर हुआ तो प्राइवेट स्कूलों का गोरखधंधा खत्म हो जाएगा।
सरकार को अपनी जिम्मेदारी तय करनी चाहिए और सरकारी स्कूलों की कमियों को दूर करके प्राइवेट स्कूलों के समकक्ष बनाए ताकि गरीब बच्चों का भविष्य प्रकाशमय हो सकें। इस दिशा में दिल्ली सरकार ने बेहतर काम किया है। उसका परिणाम भी सामने आने लगा है जहाँ सरकारी स्कूलों का परीक्षा परिणाम प्राइवेट स्कूलों के परिणाम से बेहतर आने लगा है।