प्रख्यात अभिनेता बलराज साहनी की 01 मई को जयंती है। यह महज संयोग ही है कि 01 मई को पूरे दुनिया में मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है और बलराज साहनी भी ताउम्र गरीबों एवं मजदूरों के मसीहा बने रहे। उनके स्वभाव में श्रेष्ठता का दिखावा बिल्कुल नहीं था। वह एक सामान्य जीवन जीना पसंद करते थे और अपने पूरे जीवन उन्होंने इसका पालन पूरी सच्चाई के साथ किया। तथाकथित कुलीन समाज से उनकी गहरी नाराजगी का एक किस्सा उनके बेटे परीक्षित साहनी ने उनकी याद में लिखी और पिछले साल प्रकाशित अपनी पुस्तक में लिखा है- यह 50 का दशक था जब एक अभिनेता के रूप में बलराज साहनी हिंदी सिनेमा में स्थापित हो चुके थे। उनके बेटे परीक्षित साहनी सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ रहे थे। एक बार बलराज साहनी किसी काम से दिल्ली आए तो उनके मित्र प्रेम कृपाल जो तत्कालीन सरकार के किसी मंत्रालय में सचिव थे, ने अपने यहां आयोजित एक भव्य पार्टी जिसमें दिल्ली के सभी प्रतिष्ठित नेता, अधिकारी, बिजनेसमैन, लेखक, बुद्धिजीवी और कलाकार आमंत्रित थे, में जाने का मौका मिला।
हॉस्टल में रह रहे परीक्षित साहनी भी खाने के लालच में वहां पहुंच गए थे। सभी पुरुष सूट-टाई में थे तो महिलाएं शिफॉन साड़ी में, लेकिन बलराज साहनी पंजाब की ठेठ ड्रेस लुंगी-कुर्ता और जूते में वहां पहुंचे… वैसे भी सभी राजकीय समारोह में वे इसी ड्रेस में जाया करते थे। पार्टी में सभी उन्हें आश्चर्य और कौतुक से देख रहे थे। तभी एक कुलीन महिला उनके पास आई और बोली- सुना है आप एक्टर हैं। एक्टर शब्द का उच्चारण उसने बड़ी उपेक्षा से किया था। बलराज साहनी ने बड़े शिष्ट तरीके से मुस्कुराकर कहा, हां मैडम, तब उस महिला ने गहरे तंज से पूछा, आजकल आप कौन सा बकवास काम कर रहे हैं। भारतीय फिल्में कचरा ही तो होती हैं। बलराज को ऐसी टिप्पणी की उम्मीद नहीं थी। हिंदी सिनेमा के प्रति ऐसे हिकारत भरे नजरिये से वे बहुत परेशान रहते थे। “आप सही कह रही हैं। दो बीघा जमीन फिल्म देखी है क्या आपने… महिला ने बड़े तिरस्कार से कहा, नहीं, मैं हिंदी फिल्में नहीं देखती, बहुत बढ़िया बलराज साहनी ने जवाब दिया। तो क्या आप फ्रेंच फिल्में देखती हैं। महिला ने तुरंत जवाब दिया हां, बिल्कुल मैं कोई भी फ्रेंच फिल्म नहीं छोड़ती।” तब उन्होंने कहा कि आपने “हिरोशिमा मोन एमा” तो अवश्य देखी होगी। महिला थोड़ा चकराई और बोली शायद यही एक फिल्म है जो मुझसे छूट गई हो।”
ऐसा कहकर महिला वहां से जाने लगी तब साहनी ने जोर-जोर से बोलते हुए कहा, अरे यह ऑस्कर विनिंग फिल्म तो आपको जरूर देखनी चाहिए। फिर उन्होंने फिल्म की कहानी बतानी शुरू की तो वह महिला चुपचाप वहां से निकल भागी। बात यहीं खत्म नहीं हुई, जब सभी मेहमान पश्चिमी धुन पर खड़े-खड़े नाचते हुए ड्रिंक कर रहे थे तब बलराज साहनी एक कोने में जमीन पर बैठ गए और वहीं एक पंजाबी बैरे को अपने पास बैठाकर पंजाबी में बातचीत करते हुए उसके साथ ड्रिंक करते रहे और वहां उपस्थिति अभिजात्य वर्ग परेशान होता रहा। इतना ही नहीं उन्होंने खाना भी ढेर सारा लिया और हाथ से ही खाना शुरू कर दिया। तब एक महिला उनके पास यह कहने आई कि आप अभिनेता होते हुए इतना कैसे खा रहे हैं, तब उन्होंने बाकायदा एक जोकर की तरह हरकत करते हुए चिकन हाथ से तोड़कर खाकर दिखाया। उस महिला ने तुरंत वहां से निकलना बेहतर समझा।
कुछ देर बाद बलराज साहनी अपने बेटे परीक्षित साहनी के पास मुस्कराते हुए आए और बोले, “मैं तुमसे कहता हूं कि सब ढोंगी हैं! कपटी और पाखण्डी। भूरे साहब जैसा कि अंग्रेज़ इन्हें पुकारते थे। ये वो गाद हैं जो भारत के तटों से औपनिवेशिक शासन के ज्वार उतरने से अंग्रेज अपने पीछे छोड़ गए हैं। ये पाखंडी हर भारतीय चीज को नीची नजरों से देखते हैं। इन्हें सबक सिखाना जरूरी है। मैं शर्त लगाता हूं कि इनमें से एक को भी अपनी मातृभाषा ठीक ढंग से नहीं आती होगी।”
चलते चलते: भोजन के अंत में जब कारमेन गायन का संगीत बजना शुरू हुआ तो बलराज साहनी फिर परेशान हो गए। उन्हें यूरोपीय शास्त्रीय संगीत की न तो समझ थी, न वे उसे पसंद करते थे। उनकी पत्नी तोश जिन्हें पाश्चात्य संगीत पसंद था से भी उनकी इस बात को लेकर लगातार बहस चलती रहती थी और कई बार घर में जब यह संगीत बजता था तो वह दूसरे कमरे में चले जाते थे और जब बहुत देर हो जाती थी तो वह पेट में दर्द होने की एक्टिंग करते हुए उसको बंद करवाते थे। यहां भी उन्होंने कुछ ऐसा ही किया और लोग कुछ समझ पाए जब तक वे पेट पकड़ कर वहीं जमीन पर लेट गए। तब परीक्षित साहनी ने उन्हें यह कहकर कि उन्हें हॉस्टल जल्दी लौटना है वहां से ले जाकर किसी तरह पार्टी को बचाया।
(लेखक- राष्ट्रीय साहित्य संस्थान के सहायक संपादक हैं। नब्बे के दशक में खोजपूर्ण पत्रकारिता के लिए ख्यातिलब्ध रही प्रतिष्ठित पहली हिंदी वीडियो पत्रिका कालचक्र से संबद्ध रहे हैं। साहित्य, संस्कृति और सिनेमा पर पैनी नजर रखते हैं।)