अपनी बेजोड़, बेबाक और फक्कड़ लेखनी से भारत और पाकिस्तान में साहित्य की दुनिया को अपने दौर के तल्ख हालात से रु-ब-रू कराने वाले उर्दू के महान लेखक सआदत हसन मंटो ने बंटवारे का दंश खुद झेला. उस दर्द को जब उन्होंने ‘टोबा टेक सिंह’, ‘खोल दो’ और ‘ठंडा गोश्त’ जैसी कहानियों के जरिए पेश किया तो बनाई गईं सरहदें इंसानियत पर बोझ लगने लगीं. अब नंदिता दास ‘मंटो’ की कहानी को रुपहले पर्दे पर लेकर आई हैं. मंटो की कहानी को जब आप पर्दे पर देखेंगे तो ऐसा लगेगा कि मानो वक्त आज भी ठहरा हुआ सा है. हिंदू-मुसलमान की नफरत हो या फिर सहिष्णुता-अहिष्णुता पर बहस… उस दौर की ये बातें आज भी समाज में जिंदा हैं. सारी कहानी, हालात आज के हालात से बखूबी मेल खाती है.
नंदिता दास ने कहानियों के साथ-साथ पाखंडी समाज को लेकर मंटो के दिलो-दिमाग में चल रही उहापोह को भी बयां किया है. लेकिन यहां उन्होंने कुछ भी ऐसा नहीं दिखाया जो आप पहले से नहीं जानते हों. अफ़साने के साथ-साथ मंटो की वास्तविक ज़िंदगी में चल रहे संघर्ष को नंदिता ने फिल्म में समेटने की कोशिश की है लेकिन अगर आप मंटो की कहानियों के पात्रों से परिचित नहीं हैं तो आपको ये फिल्म देखने में जरा मुश्किल आएगी.
एक्टिंग
‘मंटो’ के किरदार में अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी हैं. उन्होंने इस लेखक को पर्दे पर जीवंत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. नवाज ने मंटो के हर रुप को बखूबी निभाया है. कोर्ट में दलीलें देते समय नवाजुद्दीन के चेहरे पर जो आक्रोश झलकता है, वो उनकी अदाकारी का एक जीता जागता नमूना है, तो वहीं परिवार की जिम्मेदारी को ठीक से ना निभाने का दर्द भी उन्होंने बेहद संजीदा ढंग से निभाया है.
मंटो की पत्नी सफिया की भूमिका में रसिका दुग्गल खूब जम रही हैं, अपनी एक्टिंग से वो अपनी छाप छोड़ जाती हैं. कहीं भी नवाजुद्दीन के सामने फीकी नहीं पड़तीं. जहां भी दोनों एक सीन में होते हैं उसे अपने स्वभाविक अदाकारी से बहुत नेचुरल बना देते हैं. ऐसा पति जो कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाने के साथ नशे में डूबा रहता है, उनके साथ ज़िंदगी गुजारना इतना आसान नहीं है. पति की मनोव्यथा को समझने के साथ सफिया की व्यथा को रसिका दुग्गल बखूबी पर्दे पर उतार देती हैं.
इसमें मंटो के दोस्त श्याम चड्ढा को नंदिता दास ने फिल्म में खासी जगह दी है. इस रोल में अभिनेता ताहिर राज हैं जो अपना असर छोड़ जाते हैं. इसके अलावा इसमें ऋषि कपूर, जावेद अख्तर और परेश रावल जैसे कई दिग्गज एक्टर हैं जो कहीं-कहीं दिखाई देते हैं और साधारण से दिखने वाले दृश्यों को असाधारण बनाकर चले जाते हैं. मंटो की खासमखास दोस्त और लेखिका इस्मत चुगताई का रोल राजश्री देशपांडे ने किया है. एक-दो सीन ही, लेकिन इस्मत चुगताई की मौजूदगी से फिल्म में रौनक बढ़ जाती है.
डायरेक्शन
डायरेक्ट करने के साथ-साथ नंदिता दास ने इसे लिखा भी है. यहां नंदिता एक तरफ उनकी कहानियों को दिखाती हैं तो दूसरी तरफ खुद ज़िंदगी, लेखनी से जूझ रहे मंटो को. फिल्म के लिए नंदिता ने ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’ और ‘टोबा टेक सिंह’, ‘100 वॉट का बल्ब’ जैसी कहानियों को चुना है. नंदिता दास की तारीफ होने चाहिए कि कमर्शियल सिनेमा के दौर में उन्होंने एक स्ट्रगल करने वाले राइटर की कहानी दिखाने की सोची. उन्हें शाबाशी भी मिलनी चाहिए क्योंकि जिस दौर में सही बोलने पर लोगों पर पाबंदियां लग रही हैं उस वक्त उन्होंने उसी को फिल्माने के बारे में सोचा. कम बजट की इस फिल्म में नंदिता ने मंटो की ज़िंदगी से जुड़े हर पहलू की झलक दिखा दी है. लेकिन क्या ये फिल्म सिर्फ उन लोगों के लिए है जो मंटो में दिलचस्पी रखते हैं? साहित्य में रुचि रखते हैं? उनका क्या जिन्होंने मंटो को नहीं पढ़ा है? क्योंकि इसकी सबसे बड़ी खामी यही है कि अगर आप उनके बारे में नहीं जानते हैं तो कब, क्या और क्यों हो रहा है ये समझना बहुत मुश्किल है.
करीब एक घंटे 52 मिनट की इस फिल्म के इंटरवल से पहले के हिस्से में अलग-अलग दृश्यों में तालमेल नहीं है. हां, इंटरवल के बाद फिल्म में ठहराव आता है. ‘ठंडा गोश्त’ को नंदिता ने अभिनेत्री दिव्या दत्ता और रणवीर शौरी पर फिल्माया है. इन एक्टर्स की बदौलत ये कहानी असरदार है. लेकिन कुछ कहानियों के साथ न्याय नहीं हुआ. ‘टोबा टेक सिंह’ और ‘खोल दो’ को पढ़ते वक्त दिलो दिमाग पर जो असर होता है वो फिल्म में कहानी को देखते हुए महसूस ही नही होता. ये कहानियां कब आती हैं और चली जाती हैं पता ही नहीं चलता.
इन खामियों के बावजूद नंदिता बहुत ही ऐसी बातें दिखाने में कामयाब रहती हैं जो आपको सोचने पर मजबूर कर देंगी.
आजादी के बाद हुए दंगो में मंटो हिंदू और मुस्लिम दोनों की टोपियां साथ लेकर चलते हैं और एक बार पत्नी सफिया से कहते हैं, ”’मजहब जब दिलों से निकलकर सिर पर चढ़ जाए तो टोपियां पहननी पड़ती हैं…” ये सुनते वक्त बहुत चोट लगती है. वजह ये भी है कि आजकल धर्म को लेकर जैसी खबरें आती हैं उससे आप सीधे जोड़ पाते हैं.
जब मंटो से पूछा जाता है कि आपकी हर कहानी में औरतों के लिए हमदर्दी झलकती है तो वो कहते हैं, ”हर औरत के लिए नहीं. कुछ तो उनके लिए जो खुद को बेच तो नहीं रही लेकिन लोग उसे खरीदते जा रहे हैं. और कुछ उसके लिए जो रात को जागती है और दिन में सोते वक्त बुरे ख्वाब देखकर उठ जाती है कि बुढ़ापा उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है.” अगर आप समाज से सरोकार रखते हैं तो ये बातें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं.
‘ठंडा गोश्त’ को लेकर मंटो पर जो केस चला उसकी सुनवाई को विस्तार से दिखाया है. कोर्ट रुम में चल रहे आरोप-प्रत्यारोप के सीन बहुत असरदार हैं. यहां लेखनी को लेकर जो तीखी टिप्पणियां की जाती हैं, दलीलें दी जाती हैं वो काफी प्रभावशाली हैं. मंटो कहते हैं, ”मैं अपनी कहानियों के एक आइना समझता हूं जिसमें समाज अपने आप को देख सके…”
क्यों देखें/ना देखें
क्यों देखें/ना देखें फिल्मों को लेकर लोगों का स्वाद बदला है. लेकिन फिल्म मेकर्स की नज़र करोड़ों वाले क्लब में शामिल होने पर होती है. हकीकत को दरकिनार कर मसालेदार चीजें परोसी जा रही हैं, आइटम सॉन्ग से महफिल लूटने की कोशिश की जा रही है, उस समय अगर कोई फिल्ममेकर मंटो के बारे में दुनिया को बताने के लिए अपने कदम बढ़ा रहा है तो उसकी हौसलाआफजाई जरुर होनी चाहिए. अगर आप कुछ नया जानना चाहते हैं तो जरुर देखिए. लेकिन आप इंटरटेनमेंट के लिए फिल्में देखते हैं तो इससे दूर रहें.